Saturday

टाई बाँधना और बच्चों को बँधवाना

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टाई बांधना इस्लाम में सख्त मना है। यह ईसाईयों का मजहबी शिआर (पहचान) है। उनके अक़ीदे के मुताबिक हजरत ईसा अलैहिस्सलाम को यहूदियों ने फांसी दी थी। ईसाई इस फांसी के फंदे को गले में आज तक गले मे डाले हुए हैं ,जिसे टाई कहा जाता है ।

लेकिन कुरआन करीम में फरमाया गया है कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को खुदाए तआला ने जिंदा उठा लिया और काफी हदीसों में यह बात साबित है कि अब भी हयाते ज़ाहिरी के साथ आसमानों पर तशरीफ़  फरमा है, क़ियामत के करीब ,ज़मीन पर तशरीफ़ लायेंगे और इस्लाम फैलायेंगें।लिहाज़ा इस्लामी नुक़्तए नज़र से फाँसी का वाकिया मन गढ़न्त है और गलत है जो यह अक़ीदा रखे कि ईसा अलैहिस्सलाम को फांसी दे दी गई वह मुसलमान नहीं बल्कि काफिर है क्योंकि वह क़ुरआन व हदीस का मुन्किर है।

   मुसलमानों! अब तो आँखें खोलो । तुमने काफिरों की नकल कि उसके अंदाज अपनाएं लेकिन मौजूदा दौर के हालात से यह खूब जाहिर हो गया है कि वह भी तुम्हारे दुश्मन ही रहे और तुम्हें मिटाने और कत्ल करने में कोई कमी नहीं कर रहे हैं।

लिहाज़ा अब खुदारा अपने इस्लामी तरीके अपनाओ सच्चे पक्के मुसलमान बनो । फिर देखना खुदाए तआला व रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम भी राज़ी होंगे और दुनिया में भी इज़्ज़त व अज़मत नसीब होगी। इस मौके पर यह भी जान ले कि जो लोग छोटे बच्चों में लड़कों को लड़कियों की तरह और लड़कियों को लड़कों की तरह लिबास पहनाते हैं। इसका अज़ाब का गुनाह भी उन्हीं पहनाने वालों पर है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 107)

कुछ तारीखों को शादी ब्याह के लिए मनहूस जानना

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बाज लोग कुछ तारीखों में शादी ब्याह और खुशी का काम करने को मना करते हैं और खुद भी नहीं करते मसलन 3,13,23 और 8, 18, 28 इन तारीख को  शादी व खुशी के लिए बुरा जाना जाता है हालांकि ये सब बेकार बातें हैं और काफिरों और गैर मुस्लिमों की सी वहमपरस्तीयां हैं। इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है।

   निकाह शादी हर दिन और हर तारीख में जायज़ है माहे मोहर्रम में निकाह को बुरा जानना राफ़ज़ियो ,शीओ का तरीका है जो बाज़ जगह अहले सुन्नत में भी फैल गया है

मुसलमानों! इस्लाम को अपनाओ और सच्चे पक्के मुसलमान बनो, वहमपरसतियाँ छोड़ो खुदा व रसूल की पैरवी करो, मोहर्रम और सफर (चेहलम) को बुरा मत जानो।
( ग़लत फ़हमियां और उनकी इस्लाह, पेज 106)

बिल्ली रास्ता काट जाये तो क्या होता है?

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कुछ जगहों पर पर देखा गया है कि कोई शख्स गली और रास्ते में जा रहा है और सामने से बिल्ली गुजर गई जिसे रास्ता काटना कहते हैं तो वह कुछ देर के लिए ठहर जाता है और फिर बाद में चलने लगता है और वह समझता है कि बिल्ली ने रास्ता काट दिया शगुन खराब हो गए अब कोई नुकसान हो सकता है हालांकि ये सब बेकार की बातें हैं और इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं और एक मुसलमान को इस किस्म के ख्यालात कभी नहीं रखना चाहिए और यह नहीं समझना चाहिए कि बिल्ली के रास्ता काटने से कुछ होता है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 106)



Wednesday

क्या हर दीवाना मजज़ूब वली है?

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अल्लाह तआला के नेक बन्दो और औलिया किराम में एक खास किस्म मजज़ूबों की भी है। ये लोग हैं जो खुदाए तआला की महब्बत और उसकी याद में इतने गर्क हो जाते हैं कि उन्हें अपने तन बदन का होश नहीं रहता और दुनिया वालों को पागल और दीवानों से नजर आते हैं। लेकिन हर पागल और दीवाने को मजज़ूब नहीं ख्याल करना चाहिए। आजकल आम लोगों में यह मर्ज  पैदा हो गया है कि जिस पागल को देखते हैं उस पर विलायत और मजज़ूबियत का हुक्म लगा देते हैं और उसके पीछे घूमने लगते हैं। और अगर कोई है भी तो उसको उसके हाल पर छोड़ दीजिए वह जाने और उसका रब ।

बेहतर तरीका यह है कि अगर किसी शख्स के बारे में आपको ऐसा शक हो जाए तो उसकी बुराई भी मत कीजिए और उसके पीछे भी मत घूमिए। आप तो वह करो जिसका आपको खुदाए तआला ने हुक्म दिया- अहकामे शरअ की पाबन्दी करें बुरे कामों से बचें इस्लाम में ऐसा कोई हुक्म नहीं है कि दीवानों में तलाश करो कि उनमें कौन मजज़ूब है और कौन नहीं।

बाज़ जगह ऐसी सुनी सुनाई बातों पर यकीन करके कुछ लोगों को मजज़ूब करार दे दिया जाता है और फिर लाखों लाख रुपया खर्च करके उनके मरने के बाद मज़ार बना देते हैं और उर्सों के नाम पर मेले ठेले और तमाशे शुरू कर देते हैं। और उर्सों के नाम पर ये मेले और तमाशे दिन ब दिन बढ़ते जा रहे हैं और इस्लाम और इस्लामियत के हक़ में यह अच्छा नहीं हो रहा है।

खुलासा यह है कि अगर कोई मजज़ूब है और वह खुदाए तआला की याद में बेहोश हुआ है तो उसका सिला और बदला उसको अल्लाह तआला देने वाला है । आपके लिए तो दूरी ही बेहतर है और ये जो अहले इल्म व फ़ज़्ल औलिया व उलेमा की सुहबत इख्तियार करने की फ़ज़ीलत आई हैं, ये मजज़ूबों के लिए नहीं। मजज़ूब की सुहबत से कोई फाइदा नहीं है।
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हुज़ूर मुफ्ती आज़म हिन्द मौलाना मुस्तफा रज़ा खां अलैहिर्रहमह फरमाते है
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हर कस व नाकस को मजज़ूब नहीं समझ लेना चाहिए और जो मजज़ूब हो उससे भी दूर ही रहना चाहिए कि इससे नफा कम और ज़रर(नुकसान) ज़ाइद पहुँचने का अंदेशा है।
(फतावा मुस्तफविया ,हिस्सा 3, सफहा 175)
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कुछ दीवाने सत्र खोले नंगे पड़े रहते हैं और लोग उनके पास जाकर उन की खिदमत करते हैं । यह गुनाह है क्योंकि वह अगर मजज़ूब भी हैं तब भी ऐसी हालत देखना नाजाइज़ है क्योंकि वह मजज़ूब है आप तो होश में हैं। मजज़ूब होने की बिना पर अगरचे उस पर गुनाह नहीं लेकिन आप उसके बदन के वो हिस्से देखेंगे जिनका छुपाना फर्ज है तो आप जरूर गुनहगार होंगे।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 104)

Sunday

खानकाही इख़्तिलाफात और इस सिलसिले में सही बात

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आजकल खानकाही इख़्तिलाफात का भी जोर है और एक पीर के मुरीद दूसरे के मुरीदों को और एक सिलसिले वाले दूसरे सिलसिले वालों को एक आंख नहीं भाते और उन्हें अपना दुश्मन जानते हैं और यह इसलिए कि उन्हें इस्लाम व कुरआन और अल्लाह का रसूल से महब्बत नहीं वरना यह हर मुसलमान और अल्लाह और रसूल पर ईमान रखने वाले से महब्बत करते ।

आजकल कुछ पीर भी ऐसे हैं कि उन्हें अपने ही मुरीद भाते हैं और अच्छे लगते हैं और दूसरों के मुरीदों को देखकर उनका खून खोलता है जबकि पीरी उस्तादी के आदाब व उसूल से है कि वह अपने शागिर्दों मुरीदों को जहां अपनी ज़ात से अक़ी दत व महब्बत सिखाये वहीं दूसरे अहले इल्म व फ़ज़्ल ,मशाइख और सुलहा की बेअदबी व गुस्ताख़ी से बचाये। बल्कि मुरीद करने का मकसद ही उसे बेअदबी से बचाना है क्योंकि इसमें ईमान की हिफाजत है और ईमान बचाने के लिए ही तो मुरीद किया जाता है और ईमान अदब का ही दूसरा नाम है।
जो पीर मुसलमानों को नफरत की तालीम दे रहे हैं और कौमे मुस्लिम को टुकड़ों में बांट रहे हैं, मुरीदों को मशाइख व उलेमा का बे अदब बना रहे हैं ,वो हरगिज़ पीर नहीं हैं बल्कि वो  शैतान का काम कर रहे हैं और इबलीस का लश्कर बढ़ा रहे हैं।
इस बारे में हक़ व दुरुस्त बात यह है कि जो मुसलमान किसी भी सिलसिलाए सहीहा में मुत्तासिलुस्सिलसिला पाबन्दे शरअ पीर का मुरीद है और उसके अक़ाइद दुरुस्त हैं, वह हमारा भाई है और मुरीद न भी हुआ हो वह भी यकीनन मुसलमान है और उसकी निजात के लिए यह काफी है। मुरीद होना ज़रूरी नहीं, मुसलमान होना ज़रूरी है। मुरीद होना सिर्फ एक अच्छी बात है, वह भी उस वक़्त जबकि पीर सही हो।

दरअसल पीरी व मुरीदी लड़ाई झगड़े और गिरोह बन्दी का सबब तब से बनी जब से यह ज़रीयए मआश और सिर्फ खाने कमाने और लम्बे लम्बे नज़रानों के हासिल करने का धन्धा बनी है। आज ज़्यादातर पीरों को इस बात की फ़िक्र नहीं कि मुरीद नमाज़ पढ़ता है कि नहीं, ज़कात निकालता है कि नहीं, सुन्नी है कि बद अक़ीदा ,मुसलमान हैकि ग़ैर मुस्लिम, उन्हें तो बस नज़राना चाहिए। जो ज़्यादा लम्बी नज़्र दे वही मियाँ के करीब है वरना वह मियाँ के नज़दीक बदनसीब है।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 103)

मामूली इख़्तिलाफात को झगड़ों का सबब बनना

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बाज़ फुरुई और नौपैद मसाइल जिनका ज़िक्र सराहतन खुले अलफ़ाज़ में कुरआन व हदीस और फ़िक़्ह की मुस्तनद क़िताबों में नहीं मिलता, उनके मुताल्लिक कभी कभी आलिमों की राय अलग अलग हो जाती है। खास कर आज साइंस के दौर में नई नई ईजादात की बुनियाद पर ऐसे मसाइल कसरत से सामने आ रहे हैं तो कुछ लोग उलेमा के दरमियान इख्तिलाफात को लड़ाई,झगड़े, गाली गलौच ,लअन व तअन का सबब बना लेते हैं और आपस में गिरोह बन्दी कर लेते हैं, यह उनकी सख्त गलतफहमी है।

फरुई मसाइल में इख़्तिलाफ़ की बुनियाद पर पार्टीबन्दी कभी नहीं करना चाहिए । एक दूसरे को बुरा भला कहना चाहिए बल्कि जो बात आपके नज़दीक हक़ व दुरुस्त है वह दूसरों को समझा देना काफी अगर मान जाये तो ठीक वरना उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए और उन्हें अपना मुसलमान भाई ही ख्याल करना चाहिए । मगर आजकल छोटी छोटी बातों पर आपस में लड़ाई , झगड़े, दंगे करना और पार्टियां बनाने की मुसलमान में बीमारी पैदा हो गई है । यह इसलिए भी हुआ कि आजकल लोग नमाज़ व इबादत व कुरआन की तिलावत और दीनी किताबों के पढ़ने में मशगूल नहीं रहते। खाली रहते हैं, इसलिए उन्हें खुराफात सूझती है और ख्वामखाह की बातों में लड़ते और झगड़ते है ।
कुछ लोग इस फुरुई इख़्तिलाफ़ को उलेमाए दीन की शान में गुस्ताखी करने और उन्हें बुरा भला कहने का बहाना बना लेते हैं । ऐसे लोग गुमराह व बद्दिन हैं । इनसे दूरी बहुत जरूरी है और इनकी सुहबत ईमान की मौत है। क्योंकि उलेमा ए दीन की शान में गुस्ताखी और मौलवियों को बुरा भला कहना बद मज़हबी है गुमराहओ की गुमराही की शुरुआत यहीं से होती है।

अहले इल्म व फ़ज़्ल असहाबे दयानत व अमानत में अगर किसी बात पर इख़्तिलाफ़ हो जाये ,उस बात पर अमल करना चाहिए और खुदाए तआला से रो रो कर तौफीक खैर और सीधे रास्ते पर काइम रहने की दुआ करते रहना चाहिए।

हदीस शरीफ में है की रसूले पाक   सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम जब जंगे खंदक से वापस मदीने में तशरीफ़ लाएं और फौरन यहूदियों के कबीले बनू क़ुरैज़ा पर हमले का इरादा फरमाया और सहाबा को हुक्म दिया की असर की नमाज बनू क़ुरैज़ा में चलकर पढ़ी जाए लेकिन रास्ते में वक्त हो गया यानी नमाज असर का वक्त खत्म हो जाने का अंदेशा हो गया तो कुछ सहाबा ने नमाज का वक्त जाने के खौफ से रास्ते में ही नमाज अता फरमाई और उन्होंने ख्याल किया कि हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम का मकसद यह नहीं था कि चाहे वक़्त जाता है लेकिन नमाज़ बनू क़ुरैज़ा ही में नहीं पढ़ी जाए और कुछ लोगों ने वक़्त की परवाह न की और नमाज़ असर बनू क़ुरैज़ा ही में जाकर पढ़ी। हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के  सामने जब यह जिक्र आया तो आपने दोनों ही को सही व दुरुस्त फरमाया दोनों में से किसी को बुरा नहीं कहा।
( सही बुखारी, जिल्द 1, सलातुल तालिब वलमतलूब, सफहा 129)

एक और हदीस शरीफ में है एक मर्तबा हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के दो सहाबा सफर को गए रास्ते में पानी ना मिलने की वजह से दोनों ने मिट्टी से तयम्मुम करके नमाज़ अदा फरमाई फिर आगे बढ़े पानी मिल गया और नमाज़ का वक़्त बाकी था। एक साहब ने वुज़ू करके नमाज़ दोहराई लेकिन दूसरे ने नहीं दोहराई । वापसी में हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की खिदमत में हाजिर होकर किस्सा बयान किया तो हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने उन साहब से जिन्होंने नमाज़ नहीं  दोहराई थी और तयम्मुम की नमाज़  को काफी समझा था उनसे फरमाया तुमने सुन्नत के मुताबिक काम किया और दोहराने वालों से फरमाया तुम्हारे लिए दो गुना सवाब है।(निसाई ,अबू दाऊद ,मिश्क़ात बाबे तयम्मुम, सफहा 55) यानी हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने दोनों को हक व दुरुस्त फरमाया इन हदीसों से पता चलता है कि इख़्तिलाफ़ के बाद भी दो गिरोह हक पर हो सकते हैं जब कि दोनों की नीयत सही हो । इन हदीसों से तक़लीदे अइम्मा का इन्कार करने वाली नाम निहाद जमाअत अहले हदीस (गैर मुकल्लिद) को सबक लेना है जो कहते हैं कि इख़्तिलाफ़ के बावजूद चारों मसलक यानी हनफ़ी, शाफ़ई, मलिकी,हम्बली कैसे हक़ पर हो गए।
हज़रत मौलाए कायनात सय्यिदिना व मौलाना अली मुर्तज़ा रदियल्लाहु तआला अन्हु और सय्यिदिना अमीरे मुआविया रदियल्लाहु तआला अन्हु में जंग हुई मगर दोनों का ही एहतिराम किया जाता है और दोनों में से किसी को बुरा भला कहना सख्त गुमराही और जहन्नम का रास्ता है।

इसकी मिसाल यू समझना चाहिए कि जैसे मां और बाप में अगर झगड़ा हो जाए तो औलाद अगर मां को मारे पिटे या गालियां दें तब भी बदनसीब व महरूम और अगर बाप के साथ ऐसा बर्ताव करे तब भी यानी औलाद को उस झगड़े ने इजाजत ना होगी कि एक ही तरफ होकर दूसरे की शान में बेअदबी करें बल्कि दोनों का एहतेराम जरूरी होगा या किसी शागिर्द के दो उस्तादों में लड़ाई हो जाए तो शागिर्द के लिए दोनों में से किसी के साथ बेहूदगी और बदतमीजी की इजाजत ना होगी।

 मकसद यह है कि बड़ों के झगड़ों में छोटों को बहुत एहतियात व होशियारी की जरूरत है।

इस उनवान के तहत हमने जो कुछ लिखा है उसका हासिल यह है कि जब कोई शख्स दीन की जरूरी बातों का मुनकिर और अक़ीदे में खराबी की वजह से इस मंजिल को ना पहुंच जाए कि उसको खारिजे इस्लाम और काफिर कह सकें तब तक उसके साथ नरमी का ही बर्ताव करना चाहिए और समझाने की कोशिश करते रहना चाहिए और खुदाए तआला से उसकी हिदायत की दुआ करते रहना चाहिए।

हां वह लोग जो दिन की जरूरी बातों के मुन्किर हो,
कुरआन व हदीस से साबित सरीह उमूर के काइल न हो,या या अल्लाह तआला और उसके महबूब सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम और दीगर अम्बिया किराम व औलियाए किराम व औलिया इज़ाम व उलेमाए ज़विल एहतिराम की शान में तौहीन और गुस्ताखी करते, या गुस्ताखाने रसूल (सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम) की तहरीकों और जमाआतों से कसदन जुड़े हुए हो, उनकी तारीफ करते हो, वह यकीनन इस लाइक नहीं बल्कि उनसे जितनी नफरत की जाये कम है क्यूंकि अल्लाह और अल्लाह वालों की शान में गुस्ताख़ी व बेअदबी इस्लाम में सबसे बड़ा जुर्म है, और ऐसे शख्स की सुहबत ईमान के लिए ज़हरीला नाग है।

उलेमाए अहले हक़ के दरमियान फुरुई इख़्तिलाफात क़ी सूरत में दोनों जानिब का इहतिराम व अदब मलहूज़ रखने का मशविरा जो हमने दिया है यह वाकई आलिम हो फकीह व मुहद्दिस हो। वरना आजकल के अनपढ़ जो दो चार उर्दू की किताबें पढ़ कर आलिम बनते या सिर्फ तकरीरे करके स्टेजों पर अल्लामा कहलाते,कुरआन व हदीस में अटकलें लगाते हैं, मसाइल में उलेमा से टकराते है,अपनी दुकान अलग सजाते हैं ये इसमें दाखिल नहीं बल्कि ये तो उम्मते मुस्लिमा में रखना अंदाज़ी करने वाले और फितना परवर हैं।
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सय्यिदि आला हज़रत फरमाते हैं >जहां इख़्तिलाफाते फुरुईया हो जैसे हनफ़ी और शाफ़ई फिरके अहले सुन्नत में वहाँ हरगिज़ एक दूसरे को बुरा कहना जाइज़ नही।
(अलमलफूज़ हिस्सा अव्वल सफहा 51)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 99)

 
शरीअत की मुखालिफत करने वाले पीर 

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आजकल ऐसे पीरों की तादाद भी काफी है जो नमाज़ रोज़ा व दीगर अहकामे शरअ पर न खुद अमल करते हैं और न अपने मुरीदों से अमल कराते हैं बल्कि इस्लाम व कुरआन की बातों को यह कह कर टाल देते हैं कि यह मौलवी लाइन की बातें हैं हम तो फ़क़ीरी लाइन के हैं यह खुले आम शरीअत इस्लामिया का इन्कार और नमाज़ रोज़े की मुखालिफ़त करने वाले पीर तो पीर, मुसलमान तक नहीं हैं। उनका मुरीद होना ऐसा ही है जैसे किसी गैर मुस्लिम को अपना पेशवा बनाना , क्योंकि शरीअते इस्लामिया का इन्कार ✳इस्लाम✳ ही का इन्कार है और यह कुफ्र है।
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सय्यिदी आला हज़रत मौलाना शाह अहमद रज़ा खां साहब अलैहिर्रहमह इरशाद फरमाते हैं ।
सराहतन शरीअते मुतह्हरह को मआज़अल्लाह मुअत्तल व मुहमल लग्व व बातिल कर देना यह सरीह कुफ्र व इरतिदाद व ज़िन्दका व इलहाद व मोजिबे लअनत व इबआद है ।
(मकाले उरफा , सफहा 9)
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हक़ यह है कि अल्लाह तआला का वली और अल्लाह तआला वाला वही है जो रसूले अकरम हज़रत मुहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु तआला अलैही वसल्लम ने बताया और खुद उस पर चल कर दिखाया । उसका  मुखालिफ़ हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम का मुखालिफ है और हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि  वसल्लम का मुखालिफ अल्लाह तआला का मुखालिफ है और शैतान लईन का मुरीद है ।
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क़ुरआने करीम में खुदाए तआला का फरमान है ।
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#तर्जमा- ऐ महबूब तुम फरमाओ कि अगर तुम अगर अल्लाह तआला से महब्बत करते हो तो मेरा कहना मानो तुम अल्लाह तआला के प्यारे हो जाओगे और वह तुम्हारे गुनाहों को माफ फरमा देगा और अल्लाह तआला बहुत बख्शने वाला मेहरबान है  ।
  (पारा 3, रूकू 12)
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इस आयते करीमा से खूब मालूम हुआ कि अल्लाह तआला तक पहुंचने के सारे रास्ते हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैही वसल्लम ही के  कदमों से गुज़रते हैं वह आलिमों मौलवियों के हो या फकीरों दुरवेशों के । हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैही वसल्लम का रास्ता छोड़कर हरगिज़ कोई खुदाए तआला तक नहीं पहुंच सकता । और हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम का रास्ता ही शरीअते  इस्लामिया है और तरीकत भी इसी का एक टुकड़ा है इसको शरीअत से जुदा मानना गुमराही है ।

कुछ गुमराह पीरों के गुमराह मुरीदों को यह कहते भी सुना गया है कि हमने अपने पीर का दीदार कर लिया यही हमारी नमाज़ व इबादत है उनका यह कौल सख्त बद दीनी है । नमाज़ इस्लाम में इतनी अहम है इसको अगर मुरीद छोड़ेंगे तो वह कब्र व हश्र में अज़ाबे  इलाही का मज़ा चखेंगे और पीर छोड़ेंगे तो वह भी आख़िरत में खूब ठोंके जाएंगे और वह पीर ही नहीं । जो ना खुद अल्लाह तआला की इबादत करें ना दूसरों को करने दें।

नमाज का तो इस्लाम में इतना बुलंद मकाम है कि हुज़ूर सय्यिदे आलम अहमदे मुजतबा मुहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम जब मक्कए मुअज़्ज़मा से हिजरत फरमा कर मदीना तैय्यिबा तशरीफ़ लाए थे तो आपने अपने घर वालों के रहने के लिए हुजरे और मकानात बाद में तामीर फरमाए थे पहले खुदाए तआला की इबादत यानी नमाज़ के लिए मस्जिद शरीफ की तामीर फ़रमाई थी जो आज भी है उसका एक एक हिस्सा अहले ईमान के लिए दिल व जान से बढ़ कर है।

हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम फरमाते हैं कि नमाज़ मेरी आंखो की ठंडक है और नमाज़ जन्नत की कुंजी है पहले जमाने के बुज़ुर्गाने  मुरशिदाने किराम सूफी और दुरवेश सब के सब नमाज़ी दीनदार और निहायत दरजा हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की शरीअत पर चलने वाले परहेज़गार होते थे।
वह यह नहीं कहते कि हम फकीरी लाइन के हैं हम पर नमाज़ माफ है बल्कि वह औरों से ज्यादा सारी सारी रात नमाज़ पढ़ते थे । आजकल के कुछ जाहिल नाम निहाद  सूफियों और पीरों ने सोचा कि पीरी भी चलती रहे और आजादी व आराम ने भी कोई कमी ना आए इसलिए वह अहकामे शरअ नमाज़ व रोज़े वगैरा की मुखालिफत करते हैं ।

गौर करने की बात है कि पहले के बुजुर्गों के आस्ताने और मज़ार जहां मिलेंगे वहीं मस्जिदे भी जरूर मिलेंगी। अजमेर शरीफ मैं ख्वाजा गरीब नवाज़ मोइनुद्दीन चिश्ती का  आस्ताना दिल्ली में हज़रत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, हज़रत निज़ामुद्दीन महबूब ए इलाही, हज़रत नसीरुद्दीन चिराग देहलवी ,हजरत शैख अब्दुल हक मुहद्दिस देहलवी वगैरा की खानकाहे लाहौर में हजरत शैख दातागंज बख्श का आस्ताना , नागौर शरीफ में हजरत सूफी हमीदुद्दीन नागौरी, कछौछा में हज़रत शैख मखदूम अशरफ समनानी, पाक पटन में हज़रत फरीदुद्दीन गंज शकर, कलियर शरीफ में हज़रत शैख अलाउद्दीन साबिर कलियरी वगैरा इन सबके आस्तानों पर आपको जहां मज़ारात मिलेंगे वहाँ मस्जिदे भी मुत्तसिल बनी हुई नजर आयेगी। इस मे राज़ यह है कि यह हज़रात जहां क़ियाम फरमाते ठहरते और बिस्तर लगाते वहाँ ख़ुदा तआला का घर यानी मस्जिद बनाकर अज़ान और नमाज़ से उसको आबाद फरमाते और जब उन्होंने खुद खुदाए तआला की इबादत करके उसके घरों को आबाद किया तू खुदाए तआला ने उनके दर आबाद कर दिये।

और इस्लाम इन्हीं दो चीज़ों का नाम है कि खुदाए तआला की इबादत इताअत भी होती रहे और उसके महबूब बन्दों, खासाने खुदा हज़राते अम्बिया व  औलिया की ताज़ीम और उनसे महब्बत भी होती रहे।
जो खुदाए तआला के अलावा किसी और की इबादत पूजा और परसतिश करें वह मुसलमान नहीं और जो खुदा वालों से महब्बत का मुतलकन इनकार करें उनकी बारगाहों में बेअदबी से पेश आए गुस्ताखी करे वह भी इस्लाम से ख़ारिज है।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 95)

Saturday

बुज़ुर्गों की तसवीरें घरों में रखना

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आजकल बुजुर्गाने दीन की तस्वीरें और उनकी फोटो घरो दुकानों में रखने का भी रिवाज़ हो गया है । यहां तक कि कुछ लोग पीरों , वलियों की तस्वीरें फ्रेम में लगाकर घरों में सजा लेते हैं और उन पर मालाये डालते अगरबत्तियां सुलगाते यहां तक कि कुछ जाहिल अनपढ़ उनके सामने मुशरिकों, काफिरों ,बुतपरस्तो की तरह हाथ बांध कर खड़े हो जाते हैं । यह बातें सख्त तरीन हराम , यहां तक कि कुफ्र अंजाम है बल्कि यह हाथ बांधकर सामने खड़ा होना उन पर फूल मालाएं डालना है यह काफिरों का काम है ।
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सय्यिदी आला हज़रत मौलाना शाह अहमद रज़ा खां साहब अलैहिर्रहमह इरशाद फरमाते हैं ।
अल्लाह अज़्ज़ वजल इबलीस के मक्र से पनाह दे । दुनिया मे बुत परस्ती की इब्तिदा यूंही हुई कि अच्छे और नेक लोगों की महब्बत में उनकी तसवीरें बना कर घरों और मस्जिदों में तबर्रुकन रख ली । धीरे धीरे वहीं मअबूद हो गई
(फतावा रज़विया , जिल्द 10 , क़िस्त 2 , मतबूआ बीसलपुर , सफ़हा 47)
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बुखारी शरीफ और मुस्लिम शरीफ की हदीस में है कि वुद ,सुवाअ, यऊक और नसर जो  मुशरिकीन के मअबूद और उनके बुत थे जिनका ज़िक्र क़ुरआने करीम मे भी आया है। यह सब कौमे नूह के नेक लोग थे उनके विसाल हो जाने के बाद कौम ने उनके मुजस्समे बना कर अपने घरों में रख लिये उस वक़्त सिर्फ महब्बत में ऐसा किया गया था लेकिन बाद के लोगों ने उनकी इबादत और परसतिश शुरू कर दी । इस किस्म की हदीसे कसरत से हदीस की किताबों में आई हैं ।
खुलासा यह कि तसवीर, फ़ोटो इस्लाम में हराम हैं ।और पीरों, वलियों, अल्लाह वालों के फ़ोटो और उनकी तसवीरें और ज़्यादा हराम हैं । काफिरों , इस्लाम दुश्मन ताक़तों की साजिशें चल रही हैं वह चाहते हैं कि तुमको अपनी तरह बनायें और तुम से कुफ्र करायें खुद भी जहन्नम में जायें और तुमको भी जहन्नम में ले जायें।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 94)

मालदार होने के लिए मुरीद होना

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आजकल ज्यादातर लोग इसलिए मुरीद होते हैं कि हम मालदार हो जाएंगे या दुनियावी नुकसानात से महफूज़ रहेंगे। कितने लोग यह कहते सुने जाते हैं कि हम फलां पीर के साहब से मुरीद हो कर मालदार हो गए अफसोस का मकाम है पीरी मुरीदी कभी रुश्द व हिदायत, ईमान की हिफाज़त और शफ़ाअत और जन्नत हासिल करने का ज़रिआ ख़्याल की जाती थी आज वह हुसूले दौलत व इमारत या सिर्फ नक्श व तावीज़ , पढ़ना और फूँकना बन कर रह गई है। अब शायद ही कोई खुशनसीब होगा जो अहले इल्म व फ़ज़्ल उलमा , सुलहा या मज़ारते मुक़द्दसा पर इस नियत से हाज़िरी देता हो कि उनसे गुनाहों की मगफिरत और खत्मा अलल ईमान की दुआ कराएगें।
इस्लाम में दुनिया को महज एक खेल तमाशा कहा गया और आख़िरत को बाकी रहने वाली , लेकिन जिसका पता नहीं कब साथ छोड़ जाए उसको संवारने, बनाने में लग गए और जहां सब दिन रहना है उसको भुला बैठे । हदीसे पाक में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया जब तुम किसी बंदे को देखो कि अल्लाह तआला उसको गुनाहों के बावजूद दुनिया दे रहा है मगर हक़ तआला की तरफ से बजाए पकड़ के नेमतें मिल रही हैं तो यह नेमतें नहीं बल्कि अज़ाब है। रात दिन दौलत कमाने में लगे रहने वाले अब मस्जिदों , खानकाहों में कभी आते हैं तो सिर्फ दौलत दुनिया और ऐश व आराम की फ़िक्र लेकर । किस कद्र महरूमी है। खुदाए तआला आख़िरत की फ़िक्र करने की तौफीक अता फरमाए।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 93)

पीर से पर्दा

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यह बात काफी मशहूर है कि पीर से पर्दा नहीं है हालाँकि असलियत यह है कि पर्दे के मामले में पीरों आलिमों इमामों का अलाहिदा से कोई हुक्म नहीं  ।
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सय्यिदी आलाहज़रत रदियल्लाहु तआला अन्हु फरमाते हैं
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पर्दे के मामले में पीर व ग़ैरे पीर हर अजनबी का हुक्म यकसां है जवान औरत को चेहरा खोलकर भी सामने आना मना और बुढ़िया के लिए जिससे एहतिमाल फितना न हो मुज़ाइका (हरज) नहीं ।

(फतावा रज़विया , जिल्द 10 ,सफहा 102)

अगर सही पीर न मिले तो क्या करना चाहिए?

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अक़ाइदे सहीहा पर काइम रहे अहकामे शरीअत परअमल करे और तमाम औलिया किराम और उलमाए ज़विल एहतिराम से महब्बत करें । हुज़ूर पुरनूर सय्यिदना गौसे आज़म रदियल्लाहु तआला अन्हु से अर्ज़ की गई कि अगर कोई शख्स हुज़ूर का नाम लेवा हो और उसने न हुज़ूर के दस्ते मुबारक पर बैअत की हो न हुज़ूर का खिरका पहना हो क्या वह हुज़ूर के मुरीदों में है तो फ़रमाया: जो अपने आप को मेरी तरफ मनसूब करे और अपना नाम मेरे गुलामों में शामिल करे अल्लाह तआला उसे कबूल फरमाएगा और वह मेरे मुरीदों के जुमरे में है।
(ब हवाला फतावा अफ्रीका, सफहा 140)

इसके अलावा सय्यिदना शैख़ अब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी अलैहिर्रहमह ने फरमाया कि जिसको पीरे कामिल जामेअ शराइत न मिले वह हुज़ूर (सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ) पर कसरत से दुरूद पढ़े।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 92)



काफिरों को मुरीद करना

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कुछ जाहिल नाम निहाद पीर काफ़िरों को मुरीद कर लेते है जब की काफ़िरों को जब तक वो  कुफ़्र और उसके लवाज़िमात से तौबा करके और कलमा पढ़ कर मुसलमान न बने उनको मुरीद करना उनके लिए मुरीद का लफ़्ज़ बोलना जहालत है। अजब बात है महादेव की पूजा कर रात दिन ,बूतों के सामने दंडवत करें और मुरीद आप का कहलाए। जो खुदा और रसूल का नहीं वो आपका कैसे हो गया?
सही  बात यह है कि वह आपका मुरीद न हुआ बल्कि उसकी मालदारी देख कर आप उसके मुरीद हो गए हैं।
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सय्यिदी आला हज़रत रदियल्लाहु तआला अन्हु फरमाते हैं ।
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कोई काफ़िर ख्वाह मुशरिक हो या मुवहहिद हरगिज़ न दाख़िले सिलसिला हो सकता है और न बे इस्लाम उसकी बैअत मुअतबर न कल्बे इस्लाम उसकी बैअत मुअतबर अगरचे बाद को मुसलमान हो जाए कि बैअत हो या कोई और अमल सब के लिए पहली शर्त इस्लाम है।
(फतावा रज़विया ,जिल्द 9, सफहा 157)
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काफ़िरों को मुरीद करने वाले कुछ पीर कहते है की हम ने उसे इसलिए मुरीद कर लिया है की वो हमारी मुहब्बत में मुसलमान हो जाए। ठीक है आपकी ये नियत है तो उसके साथ अच्छे अख़लाक़ और किरदार से पेश आइये लेकिन जब तक मुसलमान न हो उसे मुरीद न कहिये । और ज़रा यह भी बताइए कि अब तक आपने मुरीद करके कितने काफिर मुसलमान बनाए हैं आज तो वह ज़माना है कि  ग़ैर मुस्लिमों से वही दोस्ती और यारी रखने वाले मुसलमान ही काफ़िर या उनकी तरह हो रहे हैं । और मिसाल में उन बुजुर्गों के अखलाख व किरदार को पेश करते हैं जिन्होंने एक एक सफर में 90 90 हज़ार काफिरों को कलमा पढ़ाया ख्याल रहे कि तुममें और उनमें बड़ा फर्क है वह काफिरों को मुसलमान करते थे और तुम ताल्लुकात रखकर खुद उनकी तरह होते जा रहे हो पहले के बुजुर्गों के बारे में तारीख में ऐसी कोई मिसाल नहीं कि उन्होंने पहले मुरीद कर लिया हो और बाद में वह मुसलमान हुआ हो बल्कि पहले मुसलमान करते फिर मुरीद।  तुम में हिम्मत हो तो ऐसा ही करो

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 91)

क्या पीर के लिए सय्यिद होना ज़रूरी है?

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आज कल ये प्रोपेगण्डा किया जाता है कि पीर बनने और मुरीद करने का हक़ सिर्फ़ सय्यदों को है,ऐसा प्रोपेगण्डा करने वालों में ज़्यादातर वो लोग हैं,जो सय्यद नहीं होकर भी ख़ुद को आले रसूल और सय्यिद कहलवाते हैं.
सादात ए किराम से मुहब्बत और उनकी तअज़ीम अहले ईमान की पहचान है,निहायत ही बदबख़्त और बदनसीब है वो जिसे आले रसूल से मुहब्बत ना हो, *लेकिन पीर के लिए सय्यद होना ज़रूरी नहीं.*
क़ुरआन में है:
तर्जमा: *तुम में अल्लाह के हुज़ूर शराफ़त व इज़्ज़त वाले मुक्तक़ी और परहेज़गार लोग हैं.*
हज़रत सय्यिदना ग़ौसे आज़म ख़ुद नजीबुत्तरफ़ैन हसनी हुसैनी सय्यिद हैं,लेकिन ग़ौसे आज़म के पीरो मुरशिद शैख़ अबू सईद मख़ज़ूमी और उनके पीर शैख़ अबुल हसन हक्कारी और उनके मुरशिद शैख़ अबुल फ़रह तरतूसी,यूंही सिलसिला ब सिलसिला शैख़ अब्दुल वाहिद तमीमी,शैख़ अबु बक्र शिबली,जुनैद बग़दादी,शैख़ सिर्री सक़ती,शैख़ मअरूफ़ करख़ी रदिअल्लाहु अन्हुम में से कोई भी सय्यिद व आले रसूल नहीं.
सुल्तानुल हिन्द ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ अलैहिर्रहमह के पीरो मुरशिद हज़रत शैख़ ख़्वाजा उस्माने हारूनी भी सय्यिद नहीं थे.
अब फिर भी ये कहना के पीर के लिए सय्यद होना ज़रूरी है,यह बहुत बड़ी जहालत व हिमाक़त है.
आला हज़रत फ़रमाते हैं,पीर के लिए सय्यिद होने की शर्त ठहराना तमाम सलासिल को बातिल करना है.सिलसिल ए आलिया क़ादरिया में सय्यिदना इमाम अली रज़ा और ग़ौसे आज़म के दरमियान जितने हज़रात हैं वो सादात ए किराम में से नहीं हैं.और सिलसिल ए आलिया चिश्तिया में तो सय्यिदना मौला अली के बाद ही इमाम हसन बसरी हैं, जो ना सय्यिद हैं ना क़ुरैशी ना अरबी,और सिलसिल ए आलिया नक़्शबन्दिया का ख़ास आग़ाज़ ही सय्यिदना सिद्दीक़ ए अकबर रद़िअल्लाहु अन्हु से है.
(फ़तावा रज़विया जिल्द 9,स:114 मतबूआ बीसलपुर)
और हुज़ूर के सहाबा जिनकी तादाद एक लाख से भी ज़्यादा है,उनमें चन्द को छोड़ कर कोई सय्यिद और आले रसूल नहीं,लेकिन उनके मरतबे को कोई क़यामत तक नहीं पहुँच सकता,चाहे सय्यद हो या ग़ैरे सय्यद।
(गलत फहमियां ओर उनकी इस्लाह, पेज 91)


मुरीद होना कितना ज़रूरी ?

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आजकल जो बैअत राइज है उसे बैअत तबर्रुक कहते हैं जो फ़र्ज़  है ना वाजिब और न ऐसा कोई हुक्मे शरई कि जिसको न करने पर गुनाह या आख़िरत में मुवाखिज़ा हो ।

हाँ अगर कोई सही पीर मिल जाए तो उसके हाथ में हाथ देकर उसका मुरीद होना यकीनन एक अच्छा काम और बाइसे खैर व बरकत है और इसमें बेशुमार दीनी वह दुनियावी फायदे हैं ।

लेकिन इसके बावजूद अगर कोई शख्स अकाइद दुरुस्त रखता हो ,  बुज़ुर्गाने दीन और उलमाए किराम से महब्बत रखता हो और किसी खास पीर का मुरीद न हो तो उसके लिए यह अक़ाइद ईमान की दुरुस्तगी  , औलियाए किराम व उलमाए ज़विल एहतिराम से महब्बत ही काफी है । और किसी खास पीर का मुरीद ना होकर हरगिज वह कोई शरई मुजरिम या गुनाहगार नहीं है मगर आजकल गांव-देहातों में कुछ जाहिल बे शरअ पीर यह प्रोपेगंडा करते हैं कि जो मुरीद न होगा उसे जन्नत नहीं मिलेगी यहां तक कि कुछ नाख्वान्दा पेशेवर मुकर्रीर जिनको तकरीर करने की फुर्सत है मगर किताबें देखने का वक्त उनके पास नहीं । जलसों में उन जाहिल पीरो को खुश करने के लिए यह तक कह देते हैं जिसका कोई पीर नहीं उसका पीर शैतान है और कुछ नाख्वान्दे इसको हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम का फरमान बताते हैं।  और इससे आज की पीऱी मुरीदी मुराद लेते हैं अव्वलन तो यह कोई हदीस नहीं । हां कुछ बुजुर्गों से जरूरी मनकूल है कि जिसका कोई शैख़ नहीं उसका शैख़ शैतान है । तो उस शैख़ से मुराद मुरशिदे आम है न कि मुरशिदे खास । और मुरशिदे आम कलामुल्लाह व कलामे अइम्मा शरीअत व तरीकत व कलामे उलमाए ज़ाहिर व  बातिन है। इस सिलसिलए सहीहा पर कि अवाम का हादी कलामे उलमा और उलमा का रहनुमा कलामें अइम्मा और अइम्मा का मुरशिद कलामे  रसूल (सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम) और रसूल (सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम) का पेशवा कलामुल्लाह ।
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सय्यिदी व सनदी आला हज़रत रहमतुल्लाहि तआला अलैहि फरमाते हैं *
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सहीहुल अक़ीदा कि अइम्मए हुदा को मानता ,तक़लीद अइम्मा को ज़रूरी जानता, औलियाए किराम का सच्चा मुअतकिद ,तमाम अक़ाइद में राहे हक़ पर मुस्तकीम वह हरगिज़ बे पीर नहीं, वह चारों मुरशिदाने पाक यानी कलामे खुदा और रसूल व अइम्मा व उलमाए ज़ाहिर व बातिन उसके पीर है अगरचे ब-ज़ाहिर किसी खास बन्दए ख़ुदा के दस्ते मुबारक पर शरफे बैअत से मुशर्रफ न हुआ हो।

(निकाउस्सलाफ़ह फिल अहकामिल बैअत वल खिलाफह, सफ़हा 40)

    और फरमाते है
रस्तगारी (जहन्नम से नजात और छुटकारे) के लिए नबी को मुरशिद जानना काफी है।

(फतावा अफ्रीका ,सफहा 136)
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इस सिलसिले में मजीद तहक़ीक़ व तफसील के लिए आला हज़रत अलैहिर्रहमह की तसनीफात में फतावा अफ्रीका, बैअत क्या है और निकाउस्सलाफ़ह वगैरा क़िताबों का मुतालआ करना चाहिए।
 
   खुलासा यह कि अगर जामेअ शराइत मुत्तबेअ शरअ पीर मिले मुरीद हो जाए कि बाइसे खैर व बरकत और दरजात की बुलन्दी का सबब है । और ऐसा लाइक व अहल पीर न मिले तो ख्वाही न ख्वाही गांव गांव फेरी करने वाले जाहिल बे शरअ, उलमा की बुराई करने वाले नाम निहाद पीरों के हाथ मे हाथ हरगिज़ न दे । ऐसे लोगों से मुरीद होना ईमान की मौत है।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 89)

कुतुब सितारे की तरफ पैर करके न सोना

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यह मसअला अवाम में काफी मशहूर हो गया है और हिन्दुस्तान में काफी लोग यह ख्याल करते हैं कि उत्तर की सम्त पैर फैलाना मना है क्योंकि उधर कुतुब है यहां तक की अगर कोई उत्तर की जानिब पांव करके लेटे या सोए तो उसको निहायत बुरा जानते हैं और मकानों में चारपाईयां डालने में इस बात का खास ख्याल रखते हैं की सरहाना या तो पश्चिम की तरफ हो या उत्तर की जानिब।

शरअन क़िब्ले की जानिब पाँव फैलाना तो यकीनन बेअदबी व महरूमी है इसके अलावा बाकी तमाम सम्ते इस्लाम में बराबर है किसी को किसी पर कोई बरतरी व फ़ज़ीलत नहीं।

आला हजरत मौलाना शाह अहमद रज़ा खान साहब रहमतुल्लाहि तआला अलैह इरशाद फरमाते हैं
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यह मसअला जाहिलों में बहुत मशहूर है, कुतुब अवाम में एक सितारे का नाम  है तो तारे तो चारों तरफ है किसी तरफ़ पैर न करें।
(फतावा रज़विया, जिल्द 10, क़िस्त 2 मतबूआ बीसलपुर, सफ़हा 158, अलमलफूज़, जिल्द 2, सफ़हा 57)
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यानी अगर कुतुब सितारे की वजह से उत्तर की तरफ पैर करके सोना मना हो जाए तो सितारे चारों तरफ किसी जानिब पैर फैलाना जाइज़ नहीं होगा ।
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आजकल अगर लोग यह रिवाज़ को मिटाने और गलतफहमी को दूर करने के लिए चारपाइयों की पाइती उत्तर की जानिब रखें तो वह अज्र के मुस्तहिक़ होंगे और उन्हें यह गलत रिवाज़ को मिटाने का सवाब मिलेगा ।

कुछ लोग यह कहते हैं की मय्यत को कब्र में लिटाते वक़्त उसका सर क़ुतुब यानी उत्तर की जानिब क्यों किया जाता है । तो बात यह है की मय्यत का सर उत्तर की  तरफ करने या कब्र में उसे दाहिनी करवट लिटाने का मामूल इसलिए है ताकि उसका चेहरा क़िब्ले की तरफ हो जाए । और सोने या लेटने में क़िब्ले की तरफ मुँह रखने का कोई हुक़्म नहीं और सोने और लेटने वाला एक करवट नहीं रह सकता । लिहाज़ा उसका चेहरा क़िब्ले की तरफ नहीं रह पाता वह करवटे बदलता है मुर्दे में यह सब नहीं और सोते वक़्त भी अगर कोई क़िब्ले की तरफ चेहरा करले तो अच्छी नियत की वजह से यह अमल भी अच्छा ही है लेकिन शरअन ज़रूरी नहीं ।  और जो लोग उत्तर की तरफ पैर करके सोने को मना करते हैं उनका मकसद तो कुतुब की ताजीम करना होता है नाकी चेहरे को क़िब्ले की तरफ करना और कुतुब सितारे की ताज़ीम का हुक्म अगर इस्लाम में कहीं आया हो तो हमें भी बताये या लिखकर भेजें ।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 86)

बेवा औरतों के निकाह को बुरा समझना 

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बेवा औरतों के लिए इस्लाम में निकाह जायज है और लोगों की बदनियती, बदनिगाही और फ़ासिद इरादों और बदकारी से बचने के की नीयत से हो तो बिला शुबहा बाइसे अज्र व सवाब हैं और निकाह करने पर बिला वजह किसी औरत पर लअन-तअन करना उसको बुरा भला कहना या बेवा औरत को मनहूस ख्याल करना सब गुनाह है।
आजकल के माहौल में बदकारो ,ज़िनाकारों ,अय्याशों, होटलों, क्लब घरों और रन्डी खानों में अय्याशी व ज़िनाकारी करने वाले मर्दोंऔर औरतों की कसरत के बावजूद उन्हें कोई कुछ नहीं कहता बल्कि वह नेता काइद और बड़े आदमी कहलाए जा रहे हैं और कोई बेवा औरत  निकाह करे या अधेड़ उम्र का मर्द या कोई मर्द एक से ज़्यादा निकाह करे तो उसको लोग बुरा जानते हैं और मलामत करते हैं यह सब जहालत और इस्लाम से दूरी के नतीजे हैं । निकाह शरई जितने ज्यादा हो उतना बेहतर क्योंकि निकाह बदकारी को मिटाता है ज़िनाकारी और ज़िनाकारों के रास्ते बंद करता है। आजकल लेने देने ,लम्बी बारातो ,जहेज़ की ज़्यादती और रुसूम व रिवाज़ की कसरतों से निकाह शादियां मुश्किल हो गई है इसीलिए बदकारी व ज़िनाकारी बढ़ रही है निकाह को आसान करो ताकि बदकारी मिट जाए।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 85)

जवान लड़के लड़कियों की शादी में देर करना 

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आजकल जवान लड़के लड़कियों को घर में बिठाए रखना और उनकी शादी में ताखीर करना आम हो गया है इस्लामी नुक़्तए नज़र से यह गलत बात है ।

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हदीसे पाक में है रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैही वसल्लम इरशाद फरमाते हैं
जिस की लड़की 12 बरस की उम्र को पहुंचे और वह उसका निकाह ना करें फिर वह लड़की गुनाह में मुब्तला हो तो वह गुनाह उस शख्स पर है (मिश्कात शरीफ सफहा 271)
ऐसी ही हदीस लड़कों के बारे में भी आई है
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आजकल की फुज़ूल रस्मो और बेजा ख़र्चों ने भी शादियों को मुश्किल कर दिया है जिसकी वजह से भी बहुत सी जवान लड़कियां अपने घरों में बैठी हुई है और लड़के मालदारो की लड़कियों की तलाश में बूढ़े हुए जा रहे हैं इन खर्चों पर कंट्रोल करने के लिए जगह-जगह तहरीके चलाने और तन्ज़ीमे बनाने की जरूरत है चाहे वह अपनी अपनी बिरादरी की सतह पर ही काम किया जाए तो कोई हर्ज नहीं । भाइयों ! दौर काम करने का है सिर्फ बातें मिलाने या नारे लगाने और मुशायरे सुनने से कुछ हासिल ना होगा शादी ब्याह में कम से कम खर्च करने का माहौल बनाओ ताकि ज्यादा से ज्यादा मर्द और औरतें शादीशुदा रहे ।

कुछ लोग आला तालीम हासिल कराने के लिए लड़कियों की उम्र ज्यादा कर देते हैं उन्हें वह गैर शादीशुदा रहने पर मजबूर कर देते हैं वह भी निरी हिमाकत और बेवकूफी है ।

आजकल मुसलमानों में कुछ बदमज़हब और बातिल फिरके जवान लड़कियों की आला तालीम के लिए मदारिस और स्कूल खोलने में  बहुत कोशिश कर रहे हैं । उनका मकसद अपने बातिल और मखसूस गैर-इस्लामी अक़ाइद मुसलमानों में फैलाने के अलावा और कुछ नहीं है और इधर लोगों में आजकल औलाद से मोहब्बत इस कदर बढ़ गई है कि हर शख्स कोशिश में है मेरी लड़की मेरा लड़का पता नहीं क्या-क्या बन जाए आला तालीम के नशे सवार है और बनता तो  कोई कुछ नहीं लेकिन अक्सर बुरे दिन देखने को मिलते हैं लड़के ज्यादा पढ़ कर बाप बन रहे हैं लड़कियां माँ बन रही है।

हो सकता है कि हमारी इन बातों से कुछ लोगों को इख्तिलाफ हो मगर हमारा मशवरा यही है लड़कियों को आला तालीम से बाज़ रखा जाये , खासकर जब कि यह तालीम शादी की राह में रुकावट हो और पढ़ने पढ़ाने के चक्कर में अधेड़ कर दिया जाता हो और खासकर गरीब तबके के लोगों में क्योंकि उनके लिए पढ़ी लिखी लड़कियां बोझ बन जाती है क्योंकि उनके लिए शौहर भी ए क्लास और आला घर के होना चाहिए और वह मिल नहीं पाते कोई मिलता भी है तो वह जहेज़ मे मारुती कार मोटरसाइकिल का तालिब है बल्कि बारात से पहले एक दो लाख रूपये का सवाल करता है ।
हिंदुस्तान गवर्नमेंट जो बच्चों को ऊँची तालीम दिलाने पर ज़ोर दे रही है , उसके लिए मेरा मशवरा है कि वह तालीम याफ्ता बच्चों की नौकरी व मुलाज़िमत की ज़िम्मेदारी ले या उनके वज़ीफ़े मुतय्यन करे। खाली पढ़ा  कर छोड़ देना ,न घर का रखा न बाहर का,न खेत का न दफ्तर का। यह गरीबों के साथ ज़ुल्म है और समाज की बर्बादी है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 83)

लडकों की शादी में बजाए वलीमे के मंढ़िया करना

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लड़के की शादी में जो ज़ुफ़ाफ यानी बीवी और शौहर के जमा होने के बाद सुबह को अपनी बिसात के मुताबिक मुसलमानों को खाना खिलाया जाए उसे 'वलीमा' कहते हैं और यह सय्यिदे आलम सल्लल्लाहु तआला अलैही वसल्लम की मुबारक सुन्नत है काफी हदीसों में इसका ज़िक्र है सरकार सल्लल्लाहु तआला अलैही वसल्लम ने खुद वलीमे किये और सहाबा किराम को भी उस का हुक्म दिया मगर आजकल काफी लोग शादी से पहले दावते करके खाना खिलाते हैं जिसको मंढ़िया कहा जाता है वलीमा ना करना उसकी जगह मंढ़िया करना खिलाफे सुन्नत है मगर लोग रस्मो-रिवाज पर अड़े हुए हैं और अपनी ज़िद और हठधर्मी या नावाकिफी की बुनियाद पर रसूले करीम सल्लल्लाहु तआला अलैही वसल्लम की इस मुबारक और प्यारी सुन्नत को छोड़ देते हैं । इस्लाम के इस तरीके में एक बड़ी हिकमत यह है कि अगर निकाह से पहले ही खाना खिला दिया तो हो सकता है किसी वजह से निकाह ना होने पाए और अक्सर ऐसा हो ही जाता है तो इस सूरत में वह निकाह से पहले के तमाम इखराजात बे मकसद और बोझ बनकर रह जाते हैं ।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 83)

मुतलक्का की इद्दत कितने दिन है?

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काफी लोग यह ख्याल करते हैं कि मुतलक्का(जिसे तलाक दी गई हो) की इद्दत तीन  महीने या तीन महीने तेहरा दिन में पूरी हो जाती है यह गलत है। तलाकशुदा औरत की इद्दत यह है कि अगर वह हामिला(गर्भवती) न हो तो तलाक के बाद उसको तीन माहवारी(मासिकधर्म ,हैज़ ,पीरियड) हो जाये, ख्वाह तीन माहवारियाँ तीन महीने से कम में हो जाये या उससे ज्यादा में ख्वाह साल गुज़र जाये अगर तीन बार उसको माहवारी नही हुई तो इद्दत पूरी नहीं होगी। हाँ अगर वह पचपन(55) साल की हो गई हो और महीना आना बंद हो गया हो या नाबालिग हो कि अभी महीना शुरू ही नहीं हुआ या उसको कभी महीना किसी मर्ज़ की वजह से आया ही न हो तो उसकी इद्दत तीन माह है और हामिला की इद्दत बच्चा पैदा होने जाना है ख्वाह तलाक़ के बाद फ़ौरन बच्चा पैदा हो जाये इद्दत हो जायेगी।

खुलासा यह है कि आम तौर से तलाक की इद्दत 3 महीने या 3 महीने 13 दिन समझना गलत है। सही बात वह है जो हमने ऊपर बयान कर दी।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 82)

इद्दत के लिए औरत को मायके में लाना

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आजकल अगर किसी औरत को तलाक हो जाए तो मायके वाले उसको फौरन अपने घर ले जाते हैं बल्कि इस पर फख्र किया जाता है और अगर वह शौहर के घर में रहे तो कुछ लोग उसके मां-बाप और भाइयों को गैरत दिलाते हैं की तलाक़ के बाद भी लड़की को शौहर के घर छोड़ दिया है यह सब गलत बातें हैं

 मसअला यह है की तलाक के बाद भी औरत शौहर के घर में ही इद्दत गुज़ारें और शौहर के ऊपर इद्दत का नान व नफ़का और रहने के लिए मकान देना लाज़िम है।
  क़ुरआन करीम के पारा 28 सूरह तलाक का तर्जमा यह है >"तलाक वाली औरतों को उनके घर से न निकलो न वह खुद निकले मगर जब कि वह खुली हुई बेहयाई करें।"<
हां यह जरूर है कि वह दोनों अजनबी और एक दूसरे के गैर हो कर रहे और बेहतर यह है कि उन के दरमियान कोई बूढ़ी औरत रहे और उनकी देखभाल रखें और यह भी हो सकता है कि शौहर घर में न रहे ख़ास कर रात को कहीं और सोये। औरत के हाथ का पका हुआ खाना खाने में कोई हर्ज नहीं है शौहर के कपड़े  बगैरा  धोना भी तलाक़ के बाद कोई गुनाह नहीं है क्योंकि बादे तलाक वह अगरचे बीवी नहीं मगर एक मुसलमान औरत है और शरई हुदूद की पाबंदी के साथ एक मुसलमान का दूसरे मुसलमान के काम में आ जाना हुस्ने अखलाक है और अच्छी बात है।

यह जो कुछ जगह लोग इतनी सख्ती करते हैं कि बादे तलाक इद्दत में अगर शौहर बीवी के हाथ का पका हुआ खाना भी खा ले तो हुक़्क़ा पानी बन्द कर देते हैं, यह गलत है। जब तक खूब यकीन से मालूम न हो कि वो मियां बीवी की तरह मख़सूस मुआमलात करते हैं सिर्फ शुकूक की वजह से उन्हें तंग न किया जाये और बदगुमानी इस्लाम में गुनाह है।

हाँ अगर तलाक ए मुगल्लज़ा या बाइना की इद्दत हो और शौहर फ़ासिक़ ,बदकार हो  और कोई वहां ऐसा ना हो कि अगर शौहर की नियत खराब हो तो उसको रोक सके तो औरत के लिए उस घर को छोड़ देने का हुक्म है ।
(फतावा फैज़ुर्रसूल ,जिल्द 2 सफ़हा 290)

क्या औरत के बीस बच्चे हो जाए तो उसका निकाह टूट जाता है?

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औरत के बीस बच्चे हो जाए तो उसका निकाह टूट जाता है यह एक आमियाना और खालिस जाहिलाना ख्याल है । सही बात यह है कि बच्चे बीस हो जाए या इससे भी ज्यादा उसके निकाह पर कोई फर्क नहीं पड़ता और पहला निकाह बाकी रहता है । दोबारा निकाह की कोई ज़रूरत नहीं है ।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 80)


जिस औरत के ज़िना का हमल हो उससे निकाह
जाइज़ है

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ज़ानिया हामिला यानी वह औरत जो बिना निकाह किए ही गर्भवती हो गई हो उससे निकाह को कुछ लोग नाजायज़ समझते हैं हालांकि वह जाइज़ है । ज़िना इस्लाम में बहुत बड़ा गुनाह है और इसकी सज़ा बहुत सख्त है लेकिन अगर किसी औरत से ज़िनाकारी सरज़द हुई , उससे निकाह किया जाये तो निकाह सही हो जाएगा,ख्वाह वह ज़िना से हामला हो गई हो जबकि वह औरत शौहर वाली न हो और निकाह अगर उसी शख्स से हो जिसका हमल है तो निकाह के बाद वह दोनों साथ रह सकते हैं , सुहबत व हमबिस्तरी भी कर सकते हैं और किसी दूसरे से निकाह हो तो जब तक बच्चा पैदा न हो जाए दोनों लोगों को अलग रखा जाए और उनके लिए हमबिस्तरी जाएज़ नहीं ।

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इमामे अहले सुन्नत सय्यिदी आला हजरत फरमाते हैं
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जो औरत मआज़ल्लाह ज़िना से हामिला हो उससे निकाह सही है  ख्वाह उस ज़ानी से हो या गैर से फ़र्क़ इतना है अगर ज़ानी  से निकाह हो तो वह बादे निकाह उससे कुर्बत भी कर सकता है और गैर ज़ानी से हो तो वज़ए हमल तक( बच्चा पैदा होने तक) कुर्बत न करे।

( फतावा रज़विया जिल्द 5 ,सफ़हा 199, फतावा अफ्रीका ,सफ़हा 15)

क्या शौहर के बीवी को हाथ लगाने से पहले महर माफ कराना ज़रूरी है

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काफी लोग यह ख्याल करते हैं कि शौहर के लिए ज़रूरी है कि निकाह के बाद पहली मुलाकात में अपनी बीवी से पहले महर माफ कराये फिर उसके जिस्म को हाथ लगाए यह एक गलत ख्याल है इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं । महर माफ कराने की कोई ज़रूरत नहीं। आजकल जो महर राइज है, उसे 'गैर मुअज़्ज़ल' कहते हैं जो या तो तलाक देने या फिर दोनों में से किसी एक की मौत पर देना वाजिब होता है । इससे पहले देना वाजिब नहीं हां अगर पहले दे दे तो कोई हर्ज नहीं बल्कि निहायत ही उम्दा बात है । माफ करने की कोई ज़रूरत नहीं और महर माफ कराने के लिए बाँधा नहीं जाता है । अब दे या फिर दे, वह देने के लिए  है,माफ कराने के लिए नहीं ।
 
हाँ अगर महर 'मुअज़्ज़ल' हो यानी निकाह के वक़्त देना तय कर लिया गया हो तो बीवी को इख्तियार है कि वह अगर चाहे तो बगैर महर वसूल किए खुद को उसके काबू दे ना दे और उसको हाथ ना लगा दे और चाहे तो बगेर महर लिए भी उसको यह सब करने दे , माफ कराने का यहां भी कोई मतलब नहीं ।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 79)


समधन चाची और ममानी से निक़ाह

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कुछ लोग समधन चाची और मुमानी से  निक़ाह को हराम जानते हैं हालांकि समधन से निकाह बिला शक जाइज़ है , यूं ही चाची और मुमानी से भी निकाह में कोई हर्ज नहीं जबकि उनके शौहरों ने उन्हें तलाक दे दी हो या वो मर चुके हैं और इद्दत के बाद समधन चाची और मुमानी से निकाह जाइज़ है ।  जो लोग इन निकाहों को हराम जानते हैं , वह जाहिल है ।

हवाले के लिए देखिए ⤵
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(मलफूज़ाते आला हज़रत अलैहिर्रहमा जिल्द सोएम सफ़हा 10 और फतावा अफ्रीका सफ़हा 100)

क्या हालत ए हमल में तलाक नहीं होती?

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हमल की हालत में तलाक़ वाकेअ हो जाती है यह जो कुछ लोग समझते हैं कि औरत हमल से हो और उस हालत में शौहर तलाक़ दे तो तलाक़ वाकेअ नहीं होती यह उनकी गलतफहमी है ।

सय्यिदी आला हज़रत इमामे अहले सुन्नत इरशाद फरमाते हैं >>जाइज़ व हलाल है अय्यामे हमल मे दी गई हो । (फतावा रज़विया जिल्द 5 सफहा 625)


क्या तलाक के लिए औरत का सामने होना या सुनना ज़रूरी है?

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कुछ लोग समझते हैं कि शौहर अगर बीवी को तलाक दे तो तलाक के अल्फाज का औरत के लिए सुनना और औरत का तलाक के वक्त सामने होना जरूरी है यह गलतफहमी है औरत अगर ना सुने और वहां मौजूद भी ना हो तब भी शौहर के तलाक देने से तलाक हो जाएगी चाहे शौहर बीवी में हजारों मील का फासला हो ।

आला हजरत इमाम अहले सुन्नत सय्यिदी शाह अहमद रज़ा खाँ साहब रदियल्लाहु तआला अन्हु फरमाते हैं>

तलाक के लिए औरत का वहां हाज़िर होना कोई शर्त नहीं ।
(फतावा रज़विया , जिल्द 5 , सफहा 618)



निकाह पढ़ाने में ईजाब व कुबूल के बाद खुतबा पढ़ना

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 यह रिवाज़ भी गलत है सुन्नत यह है कि ख़ुतबए  निकाह  ईजाब कबूल से पहले पढ़ा जाए।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 77)


शरअ पयम्बरी महर मुकर्रर करना

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कभी-कभी कुछ जगहों पर निकाह में महर शरअ पयम्बरी मुकर्रर किया जाता है और उससे उनकी मुराद  चौसठ रुपये और दस आने होती है या कोई और रकम। हालांकि यह सब यह सब बातें हैं शरीयत ए पैगम्बरे आज़म सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने महर में ज़्यादती की कोई हद मुकर्रर नहीं की है जितने पर दोनों में फरीक मुत्त्तफिक़ हो जाए वही महर शरए पयम्बरी है हां कम से कम महर की मिकदार दस दिरहम यानी तकरीबन दो तोले तेरह आने भर चांदी है उससे कम महर सही नहीं  अगर बांधा गया तो महरे मिस्ल लाज़िम आएगा । और  बाज़ लोग महर शरअ पयम्बरी से सय्यिदितुना फातिमा रदियल्लाहु तआला अन्हा के अक़दे  मुबारक का महर ख्याल करते हैं हालांकि खातूने जन्नत के निकाहे मुबारक का महर चार सौ मिस्काल यानी डेढ़ सौ तोले चांदी था।

     खुलासा यह की शरअ की तरफ से महर की कोई रकम मुकर्रर नहीं की गई । हाँ यह ज़रुर है कि दस दिरहम यानी दो तोले तेरह आने भर चांदी से कम कीमत न हो।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 76)


तीन तलाकों का रिवाज़

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आजकल अज़ रूए जहालत व नादानी अपनी औरतों को तीन या उससे ज़्यादा तलाक दे डालते हैं या काग़ज़ों में लिखवा देते हैं और फिर कभी बात को दोबारा बनाने के लिए उसकी सजा यानी हलाले से बचने लिए झूट सच बोलते और मुफ़्तीयाने किराम और उल्मा दीन को परेशान करते है ।
काश यह लोग तलाक से पहले ही उलमा से मशवरा कर लें तो यह नौबत ही न आए । तीन तलाक़ एक वक़्त देना गुनाह है I तलाक का मकसद सिर्फ यह है कि बीवी को अपने निकाह से बाहर करके दूसरे के लिए हलाल करना कि इद्दत के बाद वह किसी और से निकाह कर सके यह मक़सद सिर्फ एक तलाक या दो से भी हासिल हो जाता है I एक तलाक देकर उसको इद्दत गुजरने के लिए छोड दिया जाए और इद्दत केअन्दर उसको एक अजनबी व गैर औरत की तरह रखा जाए और जबान से भी रजअत न की जाए तो इद्दत के बाद वह दूसरे से भी निकाह कर सकती है और पहले शौहर के निकाह में भी सिर्फ निकाह करने से,बगैर हलाले के वापस आ सकती है । और तीन तलाको के गुनाह व बबाल से भी बचा जा सकता है । ज़रूरत के वक़्त तलाकइस्लाम में मशरूअ हैं क्यूंकि मिया बीवी का रिश्ता कोई पैदाइशी खूनी और फितरी रिश्ता नहीं होता बल्कि यह तअल्लुक अमूमन  जवानी में काइम होता है । तो यह जरूरी नहीं कि यह महब्बत काइम हो ही जाए बल्कि मिजाज़ अपने अपने आदतें अपनी अपनी तौर तरीके अपने अपने ख्यालात व रुजहानात अलग अलग होने की सूरत में बजाए महब्बत के नफरत पैदा हो जाती है और एक दुसरे के  साथ जिन्दगी गुजारना निहायत मुश्किल बल्कि कभी कभी नामुमकिन हो जाता है ।और नौबत रात दिन के झगडो, मारपीट यहाँ  तक कि कभी क़त्ल व खूंरेजी तक आ जाती है I बीवी शौहर एक दूसरे के लिए जानी दुश्मन बन जाते हैं तो इन हालात के पेशे नज़र इस्लाम में तलाक रखी गई कि लड़ाईयों,झगड़ों, नफरतों , और मारका आराईयों के बजाए सुलह व सफाई और हुस्न व खूबी के साथ अपना अपना रास्ता अलग अलग कर  लिया जाए ।

    इसी लिए जिन मज़हबों और धर्मो में तलाक नहीं है यानी जिसके साथ जो बँध गया वह हमेशा के लिए बँध गया जान छुडाने का कोई रास्ता नहीं । औरतों के क़त्ल तक कर दिये जाते हैं या जिन्दगीं चैन व सुकन के बजाए अजाब बनी रहती है । आज औरतों की हमदर्दी के नाम पर कछ इस्लाम दुश्मन ताकतें ऐसे कानून बना रही हैं जिनकी रू से तलाक का वुजूद मिट जाए और कोई तलाक न दे सकें यह लोग औरतो के हमदर्द नही बल्कि उनका क़त्ल कर रहे हैं । आज मिट्टी के तेल बदन पर डाल कर औरतों को जलाने, पानी में डुबोने, ज़हर खिला कर उनको मारने वगैरा ईज़ारसानी के ख़ौफ़नाक वाक़िआत ज़िम्मेदार वही लोग हैं जो किसी भी सूरते हाल में तलाक़ के रवादार नहीं और जब से हर हाल में तलाक को ऐब और बुरा जानने का रिवाज़ बढ़ा तभी से ऐसे दर्दनाक वाकिआत कीतादाद बढ गई ।
  हम पूछते हैं क्या किसी औरत को मारना, जलाना, डुबोना, बेरहमी से पीटना बेहतर है या उसको महर की रकम देकर साथ इज्जत के तलाक दे देना और किसी औरत के लिए अपने शौहर को किसी तरह राज़ी करके उस से तलाक हासिल  कर लेना और अपनी आज़ादी कराके किसी और से निकाह कर लेना बेहतर है  या यारों , दोस्तों, आशनाओ से मिल कर शौहर को क़त्ल कराना। आज इस किस्म  के  वाकिआत व हादसात की ज़्यादती है जिनका अन्दाज़ा अखबारात का मुतालआ करने से होता है और अगर मुआशरे को बरकरार रखने के लिए इस्लाम ने शौहर और बीवी के जो हुकक बताए हैं उन पर अमल किया जाए तो यह नौबतें न आयें और लडाई झगड़े और तलाक तक बात ही न पहुँचे।

(गतल फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 74)



ज़कात के मुताअल्लिक कुछ गलतफहमियां

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कुछ लोग फकीरों ,मस्जिदों ,मदरसों को यूंही देते रहते हैं और बाकाइदा ज़कात नहीं निकालते उनसे कहा जाता है कि आप ज़कात निकालिये तो कह देते हैं कि हम वैसे ही रहे खुदा में काफी खर्च करते रहते हैं यह उनकी सख्त गलतफहमी है आप हज़ार राहे खुदा में खर्च कर दें लेकिन जब तक हिसाब करके नियत ज़कात से ज़कात अदा नहीं करेंगे आपके यह इख़राजात जो राहे खुदा में आपने किये हैं  यह ज़कात ना निकालने के अज़ाब व वबाल से आपको बचा नहीं सकेंगे ।
                 हदीस शरीफ में है कि जिसको अल्लाह तआला माल दे और वह उसकी ज़कात अदा ना करें तो कियामत के दिन वह माल गंजे सांप की शक्ल में कर दिया जाएगा जिसके सर पर दो चोटियां होंगी वह सांप उसके गले में तौक बना कर डाल दिया जाएगा । फिर उसकी बांछें पकड़ेगा और कहेगा मैं तेरा माल हूं मैं तेरा खजाना हूं । खुलासा यह की राहे खुदा में खर्च करने के जितने तरीके हैं उनमें सब से अव्वल ज़कात है ,नियाज़ नज़्र और फ़ातिहायें वगैरा भी उसी माल से की जायें जिसकी ज़कात अदा की गई हो । वरना वह क़ाबिले कबूल नहीं। अपनी ज़कात खुद खाते रहना और राहे खुदा में ख़र्च करने वाले बनना बहुत बड़ी गलतफहमी है और शैतान का धोखा है। इस मसअले की खूब तहक़ीक़ और तफसील देखना हो तो आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खाँ बरेलवी की तसनीफ़ "अअज़्ज़ुल इकतिनाह " का मुतालआ कीजिये। ज़कात सिर्फ साल  में एक बार निकलती है और वह एक हजार में सिर्फ 25 रुपये है जो कि साहिबे निसाब पर निकालना फ़र्ज़ है मसाइले ज़कात उलमा से मालूम किया जायें और बाकाइदा ज़कात निकाली जाए ।  ताकि नियाज़ व  नज़्र और सदक़ा व ख़ैरात भी क़बूल हो सके ।
(गतल फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 73)

हज़रत अली मुश्किल कुशा और सोलह सय्यिदों का रोज़ा

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कुछ जगह औरतें अली मुश्किल कुशा (रदियल्लाहु तआला अन्हु) का रोज़ा रखती है तो रोज़ा हो या कोई इबादत सब अल्लाह तआला के लिए ही होती है । हां अगर यह नियत कर ली जाए कि इसका जवाब हजरत अली रदियल्लाहु तआला अन्हु की रूहे पाक को पहुंचे तो यह अच्छी बात है लेकिन इस रोज़े में इफ़्तार आधी रात में करती हैं और घर का दरवाजा खोलकर दुआ मांगती हैं यह सब खुराफात और वाहियात और वहमपरस्ती की बातें हैं ।
        (फतावा रज़विया , जिल्द 4 , सफहा 660)
यूं ही 16 रजब को सोलह सय्यिदों का रोज़ा रखा जाता है । उसमें जो कहानी पढ़ी जाती है , वह गढ़ी हुई है ।
      (गलत फहमियां और उनकी इस्लाह , पेज 73)

रोट बोट का रोज़ा

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कुछ जगहों पर रजब की 17 तारीख को रोज़ा रखते हैं और उसे रोट बोट का रोज़ा कहते हैं खास तौर से इस दिन रोज़ा रखने का शरीअते के इस्लामिया में कोई हुक़्म नहीं । नफ़्ल रोज़ा साल में ममनूअ दिनों को छोड़ कर कभी भी रखा जा सकता है । 17 रजब को रोज़े के लिए मखसूस करके उसे रोट बोट का रोज़ा कहना मखसूस वज़न की छोटी बड़ी दो रोटियां और बोटियां पकाना ,छोटी फातिहा पढ़ने वाले को और बड़ी रोज़ेदार को खिलाना बे अस्ल और गढ़ी हुई बातें है

( गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 72)

क्या नापाक रहने से रोज़ा टूट जाता है?

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अगर कोई शख्स रोज़ा रखकर दिन में नापाक रहें और इस नापाकी की वजह से उसकी नमाज़ छुटती है तो उसके ऊपर नमाज़ छोड़ने का गुनाहे अज़ीम होगा क्योंकि फ़र्ज़ नमाज़ छोड़ना इस्लाम में बड़ा गुनाह और जहन्नम का रास्ता है ।
       लेकिन इस नापाकी का उसके रोज़े पर कोई असर नहीं पड़ेगा यानी रोज़ा हो जायेगा । यह ख्याल रखना की नापाकी की हालत में रोज़ा नहीं होगा गलतफहमी है ।  पाक  रहना नमाज़ के लिए शर्त है और रोज़े के लिए नहीं चाहे दिन भर नापाक रहे तब भी रोज़ा बाकी रहेगा लेकिन यह नापाक रहना मोमिन की शान नहीं क्योंकि इस तरह नमाजें कज़ा  होंगी ।

अहदीसे करीमा की रोशनी में इस मसअले की तहक़ीक़ व तफ़सील जिसे देखना हो वह फतावा रज़विया ,  जिल्द न• 4, सफहा 615 को देखें ।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 72)


क्या रमजान की रातों में शौहर और बीवी का हमबिस्तर होना गुनाह है?⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬

अवाम में कुछ लोग ऐसा ख्याल करते हैं हालांकि यह उनकी गलतफहमी है । माहे रमज़ान में इफ़्तार के वक़्त से सहरी तक रात में जिस तरह खाना पीना जाइज़ है , उसी तरह बीवी और शौहर का हमबिस्तर होना और सुहबत व मुजामअत बिला शक जाइज़ है और बकसरत अहादीस से साबित है बल्कि कुरआन शरीफ में खास इसकी  इजाज़त के लिए आयते करीमा नाज़िल फरमाए गई ।

इरशादे बारी तआला है ::-

तर्जमा >तुम्हारे लिए रोज़े की रातों में  औरतों से सुहबत हलाल की गई वह तुम्हारे लिए लिबास है तुम उनके लिए लिबास ।
( पारा 2 , रूकू 7)

क्या इन्जेक्शन लगवाने से रोज़ा टूट जाता है?

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इन्जेक्शन चाहे गोश्त में लगवाया जाये या रग मे , इससे रोज़ा नहीं टूटता । अलबत्ता उलेमाए किराम ने रोज़े में इंजेक्शन लगवाने को मकरूह फरमाया ।
 लिहाज़ा जब तक खास ज़रूरत न हो न लगावाये इस मसअले की तफ़सील व तहकीक जानने के लिए देखिए
( फतावा फैज़ुर्रसूल , जिल्द 1 , सफहा 517 , फतावा मरकजी दारुल इफ्ता सफहा 359)
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नोट➡इस मसअले में अपने इलाके के सुन्नी सहीहुल अक़ीदा आलिम से राब्ता करें ।
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रेडियो तार टेलीफोन की खबर पर बगैर शरई सुबूत के चांद मान लेना

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आजकल काफी लोग सिर्फ रेडियो तार टेलीफोन की खबर पर बगैर चांद देखे या बगैर शरई सुबूत के ईद मना लेते हैं या रमजान शरीफ का चांद हो तो रोजा रख लेते हैं यह गलत है अगर आसमान पर धुंध गुबार या बादल हो तो रमजान के चांद के लिए और ईद के चांद के लिए दो बा शरअ दीनदार भले मर्दों की गवाही जरूरी है आसमान साफ हो तो बहुत से लोगों का चांद देखना जरूरी है एक दो की गवाही काफी नहीं महज रेडियो तार व टेलिफोन की खबर पर न रोजा रखे न ईद मनायें जब तक कि आप की बस्ती में शरई तौर पर चांद का सबूत ना हो या दूसरी बस्ती में चांद देखा गया हो और शरई तौर पर इसकी इत्तिला आप तक ना आ गई हो । रेडियो टेलीफोन पर ईद मनाई जाए तो आजकल पूरी दुनिया में एक ही ईद होनी चाहिए और हमेशा ईद का चांद 29 दिन का ही होना चाहिए क्योंकि दुनिया में ईद का चांद कहीं ना कहीं 29 का जरूरी हर साल मान लिया जाता है और आज कल पूरी दुनिया में इसकी खबर हो जाना बज़रिए रेडियो टेलीफोन एक आम व आसान सी बात है तो रोज़े कभी 30 हो ही नहीं सकते।

सऊदी अरब में भी अमूमन हिंदुस्तान से हमेशा एक दिन पहले ईद मनाई जाती है तो रेडियो ,टेलीफोन पर अकीदा रखने वाले वहां के ऐलान पर ईद क्यों नहीं मनाते ? दिल्ली के ऐलान पर क्यों मनाते हैं ? इस्लामाबाद कराची लाहौर ढाका और रंगून की इत्तिलाआत क्यों नजर अंदाज कर दी जाती है?

अगर कोई यह कहे वह दूसरे मुल्क है तो हम पूछते हैं यह मुल्कों के तसकीम और बटवारे क्या कुरान व हदीस की रू से  हैं क्या खुदा तआला व रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने कर दिए हैं या आजकल की मौजूदा सियासत और अहकामे मुत्ताहिदा की तरफ से हैं? और अहकामे मुत्ताहिदा की तसकीम की शरीअते इस्लामिया में क्या कोई हैसियत है ? यह भी हो सकता है की कोई कौमी हुक्मरां हो जाए खुदाए तआला पैदा फरमाये और वह इन सब मुल्कों को फतेह करके सबको एक ही मुल्क बना डालें और ऐसा हुआ भी है

और अगर जवाबन कोई कहे की मुल्क दूसरा और दूरी ज्यादा होने की बिना पर मतलअ अलग अलग है तो खयाल रहे कि इख़्तिलाफ़े मतालेअ मोतबर  नहीं और अगर बिल फर्ज़ मान भी लीजिये तो हिंदुस्तान के वह शहर और इलाके जो अपने मुल्क के शहरों दिल्ली मुंबई और कोलकाता वगैरा से दूर है और दूसरे मुल्कों पाकिस्तान बांग्लादेश वर्मा चीन तिब्बत लंका नेपाल के बाज़ शहरों से करीब हैं तो उन्हें आप चाँद के मामले में कहां की पैरवी करने का मशवरा देंगे , अपने मुल्क की या जिन मुल्कों और शहरों से वह करीब है वहां की और वह मतलअ के बारे में दिल्ली मुंबई और कोलकाता की मुवाक़िफ़त करेंगे या दूसरे मुल्कों के अपने से करीब इलाकों की ?
         खुलासा यह की बगैर शरई सुबूत के महज़ रेडियो तार व टेलीफोन की खबरों पर चांद के मामले में एतिबार करना इस्लाम व कुरान व हदीस के मुतलक़न खिलाफ है।
     
(फतवा आलमगीरी मिसरी ,जिल्द 3 ,सफहा 357 में है>" पर्दे के पीछे से अगर कोई शख्स गवाही दे तो उसकी गवाही मोतबर नहीं क्योंकि एक आवाज दूसरी आवाज की तरह होती है।")

 तो रेडियो और टेलीफोन पर बोलने वाला तो हजारों लाखों पर्दों आड़ों के पीछे है उसकी गवाही क्यों मौतबर होगी?
फिर यह कि अगर आप की बस्ती में 29 का चांद ना हुआ और किसी जगह हो गया और आप तक शरअन इत्तिला न आई आपने रोज़ा न रखा या ईद का चांद है और ईद ना मनाई बल्कि रोज़ा रखा तो आप पर हरगिज़ कोई गुनाह अज़ाब नहीं क्योंकि  अज़ाब व सवाब की कुंजी अल्लाह तआला के दस्ते कुदरत में है।
  लिहाज़ा आप वह कीजिए जिसका उस ने हुक्म दिया है और उतना कीजिए जितना उस ने फरमाया है । हद से आगे मत बढ़िये और रेडियो टेलीफोन सुन-सुनकर शोर मत मचाइये कूद-फांद मत कीजिये । जाने दीजिए पूरी दुनिया में ईद हो जाए मगर आप तक शरई इत्तिला नहीं है आप रोज़ा रखिये आपसे बरोज़े क़ियामत कोई पुरसिश ना होगी फिर फिक्र की क्या ज़रूरत है के
फिक्र तो उसकी कीजिये जिसके बारे में कब्र व हश्र में सवाल होगा ।
     हदीस शरीफ में है रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम इरशाद  फरमाते हैं कि महीना कभी 29 का हो जाता है तो जब तक चाँद ना देखो रोज़ा ना रखो और अगर तुम्हारे सामने अब्र या गुबार आ जाए तो 30 दिन की गिनती पूरी की करो
(बुखारी व मुस्लिम, मिश्क़ात, सफहा 174)

गौर करने का मकाम है कि मौजूदा दौर की कचहरियों में भी जज और हकीम गवाहों को सामने बुलाकर गवाही लेते हैं अगर कोई घर बैठे टेलीफोन के ज़रिए गवाही दे दें तो हरगिज़ ना मानेंगे । तो शरई अहकाम और शहादतों कि आखिर आप की निगाह में कोई अहमियत है या नहीं , जिन्हें आप तार टेलीफोन और रेडियो के हवाले किये दे रहे हैं । खुदाए तआला का खौफ खाइए और आप दीनदार बनने की कोशिश कीजिये, दिन का ठेकेदार बनने की कोशिश मत कीजिये ।  वह जिसका काम है उस पर छोड़ दीजिये और अपनी अपनी बस्ती के उलेमा और इमाम जो अहले हक़ हो उनकी बात पर अमल कीजिये।

( गलतफहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 68)

एतिकाफ में चुप रहना

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कुछ लोग एतिकाफ में चुपचाप बैठे रहने को जरूरी समझते हैं हालांकि एतिकाफ में  चुप रहना न ज़रूरी ,न महज़ खामोशी कोई इबादत बल्कि चुप रहने को सवाब की बात समझना मकरुहे तहरीमी है ।
(बहारे शरीअत, हिस्सा 5, सफहा 153)

अलबत्ता बुरी बातों से चुप रहना जरूरी है खुलासा यह की एतिकाफ की हालत म कुरआन मजीद की तिलावत करें ,तसबीह व दुरूद का  विर्द रखें, नफिल पढ़े , दीनी किताबों का मुतालआ करे ,दीन की बातें सीखने और सिखाने में कोई हर्ज नहीं बल्कि इबादत है। जरूरत के वक़्त कोई दुनिया की जाइज़ बात भी की जा सकती है । इससे एतिकाफ फ़ासिद नहीं होगा । हां ज्यादा दुनियवी बातचीत से एतिकाफ बेनूर हो जाता है और सवाब कम हो जाता है।
(ग़लत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 67)


मज़ार पर चादर चढ़ाना कब जाइज़ है?

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अल्लाह तआला के नेक और खास बंदे जिन्हें औलिया किराम कहा जाता है उनके इंतिकाल के बाद उनकी मुकद्दस कब्रों पर चादर डाल देना जायज़ है इस चादर चढ़ाने में एक मसलिहत यह है कि इस तरह उनकी मुबारक कब्रों की पहचान हो जाती है कि यह किसी अल्लाह वाले की कब्र है और अल्लाह तआला के नेक बंदों की इज़्ज़त करना जिस तरह उनकी दुनियवी जिंदगी में जरूरी है उनके विसाल के बाद भी उनका अदब व इहतिराम जरूरी है और मज़ारात पर चादर चढ़ाना भी अदब व इहतिराम है और दूसरों से अलग उनकी पहचान बनाना है जो लोग औलिया किराम के मज़ार पर चादर चढ़ाने को नाजायज़ व गुनाह कहते हैं वह गलती पर है । लेकिन इस बारे में मसअला यह है कि एक चादर जो मज़ार पर पड़ी हो जब तक वह पुरानी और खराब ना हो जाए दूसरी चादर ना डाली जाए मगर आजकल अक्सर जगह मज़ारों पर उसके खिलाफ हो रहा है फटी पुरानी और खराब तो दूर की बात बात है मैली तक होने नहीं देते और दूसरी चादर डाल देते हैं। कुछ जगह तो दो चार मिनट भी चादर मज़ार पर रह नहीं पाती । इधर डाली और उधर उतरी यह गलत है और अहले सुन्नत के मज़हब के खिलाफ है । इस तरह चादर चढ़ाने के बजाए उस चादर की कीमत से मुहताजों व मिस्कीनों को खाना खिलादे या कपड़ा पहना दे या किसी गरीब मरीज़ का इलाज करा दे किसी ज़रूरतमंद का काम चला दे, किसी मस्जिद या मदरसे की ज़रुरत में ख़र्च कर दे , कहीं मस्जिद न हो वहां मस्जिद बनवा दे और इन सब कामो में उन्हीं बुज़ुर्ग के इसाले सवाब  की नियत कर ले जिनके मज़ार पर चादर चढ़ाना थीं तो यह उस चादर चढ़ाने से बेहतर है। हाँ अगर यह मालूम हो कि मज़ार पर चढ़ाई हुई चादर उतरने के बाद गरीबों मिस्कीनों और मुहताजों के काम में आती है तो मज़ार पर चादर चढ़ाने में भी कुछ हर्ज़ नही क्युकी यह भी एक तरह का सदक़ा और खैरात है लेकिन आजकल शायद ही कोई ऐसा मज़ार होगा जिसकी चादरें गरीबों मिस्कीनों के काम में आती हो बल्कि मुजावरिन और सज्जादगान उन पर कब्ज़ा कर लेते हैं और यह सब अक्सर मालदार होते हैं।
खुलासा यह है कि आजकल मज़ारात पर एक चादर पड़ी हो तो वहां दूसरी चादर चढ़ाने से बुजुर्गों के इसाले सवाब के लिए सदका व खैरात गरीबों मिस्कीनों और मोहताज के काम चलाना अच्छा है यही मजहबे अहले सुन्नत और उलमा ए अहले सुन्नत का फतवा है।

★आला हजरत इमामे अहले सुन्नत मौलाना अहमद रजा खान बरेलवी अलैहिर्रहमा फरमाते हैं★

और जब चादर मौजूद हो और वह पुरानी या खराब ना हुई हुई कि बदलने की हाजत हो तो चादर चढ़ाना फुज़ुल है बल्कि जो दाम इसमें खर्च करें वली अल्लाह की रूहे  मुबारक हो यह इसाले सवाब के लिए मोहताज को दें । हाँ जहाँ मालूम हो की चढ़ाई हुई चादर जब हाजत से ज़ाएद हो खुद्दाम मसाकीन हाजतमन्द ले लेते हैं और इस नियत से डालें तो कोई बात नहीं की यह भी सदक़ा हो गया। (अहकामे शरीअत  हिस्सा अव्वल सफहा 72)

और अगर ऐसी जगह जहां पहले से चादर मौजूद हो और वह बोसीदा और खराब ना हुई हो चादर चढ़ाने की मन्नत मानी हो तो उस मन्नत को पूरा करना जरूरी नहीं । और ऐसी मन्नत मानना भी नहीं चाहिए।

( गलतफहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 65)

कब्रिस्तानों में चिराग व मोमबत्ती जलाने और अगरबत्ती लोबान सुलगाने का मसअला

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शबे बरात वगैरह के मौके पर कब्रिस्तानों में चिराग बत्तियां की जाती हैं । इस बारे में यह जान लेना ज़रूरी है कि बिल्कुल खास कब्र के ऊपर चिराग व मोमबत्ती जलाना लोबान व अगरबती सुलगाना मना है । कब्र से अलाहिदा किसी जगह ऐसा करना जाइज़ है जबकि इन चीज़ो से वहाँ आने जाने और कुरआन शरीफ और फातिहा  वगैरह पढने वालों को या राहगीरों को नफा पहुँचने की उम्मीद हो । यह ख्याल करना कि इस की रोशनी और खुशबू कब्र में जो दफन हैं उनको पहुंचेगी जहालत ,नादानी,नावाकिफी  और गलतफहमी है । दुनिया की रोशनियाँ सजावटें और डेकोरेशन वगैरह जो कब्रिस्तानों में करते हैं और यह खुशबूए मुर्दों को नहीं पहुँचती मुर्दों को सिर्फ सवाब ही पहुँचता है । मुर्दा अगर जन्नती हैं तो उसके लिए जन्नत की खुशबू और रौशनी काफी है । औंर जहन्नमी के लिए कोई रोशनी है न खुशबू ।
(सही मुस्लिम,  जिल्द 1 सफहा 76, फतावा रजविया, जिल्द 4 सफहा 141)


मज़ारात पर हाज़िरी का तरीका

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औरतों को तो मज़ारात पर जाने की इजाज़त नहीं मर्दों के लिए इजाज़त हैं मगर वह भी चन्द उसूल के साथ :-

(1)पेशानी ज़मीन पर रखने को सज्दा कहते है यह अल्लाह तआला के अलावा किसी के लिए हलाल नहीं किसी बुजुर्ग को उसकी जिंन्दगी में या मौत के बाद सज्दा करना हराम है l कुछ लोग मज़ारात पर नाक और पेशानी रगड़ते है यह बिल्कुल हराम है।

(2) मज़ारात का तवाफ करना यानी उस के  गिर्द खानाए  काबा की तरह चक्कर लगाना भी नाजाइज़ है।

(3) अज़ रूए अदब कम से कम चार हाथ के फासिले पर खड़े होकर फातिहा पढ़े चूमना और छूना भी मुनासिब नहीं ।

(अहकामे शरीअत ,सफहा 234)

(4) मज़ामीर के साथ कव्वाली सुनना हराम है तफ़सील के लिए देखिये } फ़तावा रज़विया, जिल्द 10 , सफ़हा 54से 56)

कुछ लोग समझते हैं कि सज्दा बगैर नियत और काबे की तरफ़ मुतवज्जेह हुए नहीं होता ।  यह भी जाहिलाना ख्याल है सज्दे में जिसकी ताज़ीम या इबादत की नियत होगी उसको सज्दा माना जाएगा। और जो सज्दा अल्लाह तआला की इबादत की नियत से किया जाएगा  वह अल्लाह तआला के लिए होगा और जो मज़ारात पर या किसी भी ग़ैरे ख़ुदा के सामने किया जाए वह उसी के लिए होगा । खुलासा यह कि ज़मीन पर किसी बन्दे के सामने सर रखना हराम है । यूंही बक़दरे रूकूअ झुकना भी मना है हॉ हाथ बाँध कर खड़ा होना जाइज़ है ।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 64)

ज़िन्दगी में कब्र व मज़ार बनवाना

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कुछ लोग अपनी जिन्दगी में कब्र तय्यार कराते हैं यह मुनासिब नहीं ।अल्लाह तआला फरमाता हैं

★तर्जमा -कोई नहीं जानता कि वह कहाँ मरेगा।★

क़ब्र तय्यार रखने का शरअन हुक्म नहीं अलबत्ता कफन सिलवा कर रख सकता है कि जहाँ कहीं जाये अपने साथ ले जाये और कब्र हमराह (साथ) नहीं जा सकती ।
(अलमलफ़ूज़ ,हिस्सा अव्वल ,सफा 69)

कुछ खानकाहियों को देखा कि वह ज़िन्दगी में पक्का मज़ार बनवा लेते हैं । यह रियाकारी है गोया कि उनको यह यकीन है कि वह अल्लाह तआला के वली और बुजुर्ग व बेहतर बन्दे है और इस मरतबे को पहुंचे हुए है कि आम लोगों की तरह कच्ची कब्रे नहीं बल्कि उन्हें खूबसूरत मज़ार में दफन होना चाहिए । हालांकि सच्चे वलियों का तरीका यह रहा है कि वह खुद को गुनाहगार ख्याल करते थे ,जो खुद को वली ख्याल करते और अपनी विलायत के ऐलान करते फिरते हैं, ये लोग औलियाए किराम की रविश पर नही हैं ।

पीराने पीर सय्यिदिना गौसे आजम  शेख अब्दुल कादिर जीलानी रदियल्लाहु तआला अन्हु से बडा बुजुर्ग व वली हज़ार साल में न कोई हुआ और न कियामत तक होगा । उनकें बारे में हजरते सूफी जमाँ शेख मुसलेहुद्दीन सअदी शीराज़ी नकल करते हैं कि उनको हरमे कअबा में लोगों ने देखा कि कंकरियों पर सर रख कर खुदाए तआला की बारगाह में अर्ज़ कर रहे थे :-
*ऐ परवरदिगार अगर में सजा का ममुस्तहक़ हूँ तो तू मुझको क़ियामत के रोज़ अन्धा करके उठाना ताकि नेक आदमियों के सामने मुझको शर्मिन्दगी न हो।*(गुलिस्ताँ ,बाब 2 ,सफहा 67)

बाज़ सहाबए किराम के बारे में आया है कि वह यह दुआ करते थे *ऐ अल्लाह तआला मुझे जब मौत आये तो या जंगल का कोई दरिन्दा मुझे फाड़ कर खा जाये या कहीं समुन्द्र में डूब कर मर जाऊँ और मछलियों की ग़िज़ा हो जाऊँ।*
यअनी वह शोहरत से बचना चाहते थे और नाम व  नमूद के बिल्कुल रवादार न थे और यही अस्ल  फकीरी व दुरवेशी है, और आजकल के फकीरों को अपने मज़ारों की फिक्र पड़ी है ।

साहिबो ! चाहने मानने वाले मुरीदीन व  मोअतक़दीन ( अक़ीदत रखने वाले) बनाने और बढाने और मज़ार व क़ब्र को उम्दा व खूबसूरत बनाने या बनवाने से ज़्यादा आख़िरत की  फिक्र करो । खुदा व रसूल को राज़ी करो।  मुरीदीन व मुअतकदीन की कसरत और मज़ारों की उम्दगी और संगेमरमर की टुकड़ियाँ अज़ाबे इलाही और क़ब्र की पिटाई  से बचा नहीं सकेंगी अगर आप के कारनामो और ढंगों से खुदा व रसूल नाराज हैं ।

ऐसी फ़क़ीरी व सज्जादगी से भी क्या फाइदा कि कब्र के अन्दर आपकी बदअमलियों या बदएतकादियों और रियाकारियों की वजह से पिटाई होती हो और मज़ार पर मुरीदीन चादरें चढ़ाते, फूल बरसाते और धूम धाम से उर्स मनाते हों l

कोशिश इस बात की करो मुरीद हों या न हो मज़ार बने या न बने चादरें चढे या न चढें उर्स हो या न हो लेकिन कब्र में आपको राहत मिलती हो और जन्नत की खिड़की खुलती हो ख्वाह ऊपर से कब्र कच्ची हो और यह नेमत हासिल होगी, खुदा व रसूल के हुक्म पर चलने से I

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 62)


क्या औरत फातिहा नही पढ़ सकती?

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फातिहा व ईसाले सवाब जिस तरह मर्दों के लिए जाइज है उसी तरह बिला शक औरतो के लिए भी जाइज है । लेकिन बाज़ औरतें बिला वजह परेशान होती है और फातिहा के लिए बच्चों को इधर उधर दौडाती है । हालांकि वह खुद भी फातिहा पढ सकती हैं। कम अज़ कम अल्हम्दु शरीफ और कुल हुवल्लाहु शरीफ अक्सर औरतों को याद होती है। इसको पढ़कर खुदाए तआला से दुआ करें कि या अल्लाह तआला इसका सवाब और जो कुछ खाना या शीरीनी है उसको खिलाने और बाँटने का सवाब फलाँ फलाँ और फलाँ जिसको पहुँचना हो,उसका नाम लेकर कहें उसकी रूह को अता फरमा दे। यह फातिहा हो गई और बिल्कुल दुरुस्त और सही होगी ।
बाज़ औरतें और लड़कियां कुछ जाहिल मर्दो और कठमुल्लाओ से ज़्यादा पढ़ी लिखी और पारसा होती हैं। ये अगर उन जाहिलो के बजाय  खुद ही कुरआन पढ़कर ईसाले सवाब करें तो बेहतर है।
कुछ औरते किसी बुजुर्ग की फ़ातिहा दिलाने के लिए खाना वगैरह कोने में रखकर थोड़ी देर में उठा लेती हैं और कहती है कि उन्होने अपनी फातिहा खुद पढ़ ली। ये सब बेकार की बाते है जो जहालत की पैदावार है। इन ख्वामख्वाह की  बातों की बजाय उन्हें कुरआन की जो भी आयत याद हो , उसको पढ़कर ईसाले सवाब कर दे तो यही बेहतर है और यह बाक़ायदे फातिहा है।
हाँ इस बात का खयाल रखें की मर्द हो या औरत उतना ही कुरआन पढ़े जितना सही याद हो और सही मखारीज से पढ़े गलत पढ़ना हराम है और गलत पढ़ने का सवाब न ली मिलेगा और जब सवाब मिला ही नहीं तो फिर बख्शा क्या जाएगा। आजकल इस मसअले से अवाम तो अवाम बाज़ ख़्वास भी लापरवाही बरतते है।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 60)


फ़र्ज़ी कब्रे और मज़ार बनाना

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आजकल ऐसा काफी हो रहा है कि पहले वहाँ कुछ नहीं था अब बगैर किसी मुर्दे को दफन किये कब्र व मजार बना दिया क्या और पूछो तो कहते हैं कि ख़्वाब में बशारत हुई है । फलाँ मिया ने ख्वाब में आकर बताया है कि यहा हम दफन हैं, हमारा मजार बनाओ । सही बात यह है कि इस तरह कब्र व मज़ार बनाना उन पर हाजिरी देना, फातिहा पढ़ना, उर्स करना और चादर चढ़ना सब  हराम है । मुसलमानों को धोका देना और इस्लाम को बदनाम करना  है । और ख्वाब में मजार बनाने की बशारत शरअन कोई चीज नहीं और जिन लोगों ने ऐसे मजारात बना लिये हैं उनको उखाड देना और नाम व निशान खत्म कर देना बहुत ज़रूरी है ।
कुछ जगह देखा गया है कि किसी बुजुर्ग की छड़ी, पगड़ी वगैरा कोई उनसे मनसूब चीज़ दफन करके मज़ार बनाते हैं और कहीं किसी बुजुर्ग के मज़ार की मिट्टी दूसरी जगह ले जाकर दफन करके मज़ार बनाते हैं, यह सब नाजाइज़ व गुनाह है । सय्यिदी आला हज़रत फरमाते है *फ़र्ज़ी मज़ार बनाना और उसके साथ असल का सा मुआमला करना नाजाइज़ व बिदअत है और ख्वाब की बात ख़िलाफ़े शरअ उमूर में मसमूअ मकबूल नही हो सकता*।(फतावा रज़विया,जिल्द 4,सफहा 115)
जिस जगह किसी बुज़ुर्ग का मज़ार होने न होने में शक हो ,वहाँ भी नही जाना चाहिए और शक की जगह फातिहा भी नहीं पढ़नी चाहिए । कुछ जगह मज़ारात के नाम लोगों ने पतंग शाह बाबा,कुत्ते शाह बाबा ,कुल्हाड़ापीर बाबा ,झाड़झुड़ा शाह बाबा वगैरह रख लिए हैं । अगर वाकई वो अल्लाह वालों के मज़ार हैं तो उनको इन बेढ़ंगे नामों से याद करना ,उनकी शान में बेअदबी और गुस्ताखी है, जिससे बचना ज़रूरी है । और हमारी राय में इस्लामी बुज़ुर्गों को बाबा कहना भी अच्छा नहीं है क्योंकि इसमें हिन्दुओ की बोलियों से मुशाबहत है कभी यह भी हो सकता है कि वो इन मज़ारों पर कब्ज़ा कर ले और कहे कि यह हमारे पूर्वज है क्यूंकि बाबा तो हिन्दू धर्मात्माओं को कहा जाता हैं।


बच्चा पैदा होने की वजह से जो औरत मर जाये उसको बदनसीब समझना

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कुछ जगहो पर कुछ लोग ऐसी औरत को जो बच्चा पैदा होने की वजह से मर जाये उसको बुरा ख्याल करते हैं और कहते हैं कि वह नापाकी में मरी है, लिहाजा बदनसीब और मनहूस है । यहॉ तक सुना गया है कि कुछ लोग कहते हैं कि यह मर कर  चुड़ैल बनेगी । यह सब जाहिलाना बकवास और  निरी खुराफ़ाते  हैं । हदीस शरीफ में इस हाल में मरने वालीं औरत को शहादत का मरतबा पाने वाली फरमाया गया और यह इस्लाम में बहुत बड़ा मरतबा है I रही उसकी नापाकी तो वह उसकी मजबूरी हैं जिसका उस पर कोई गुनाह नहीं और मोमिन का बातिन कभी नापाक नहीं ,और यह नापाकी भी खून आने से होती है खून न आया हो तो ज़ाहिर से भी वह पाक हैं। ( गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 57)

फातिहा में खाना पानी सामने रखने का मसअला

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इस बारे में दो किस्म के लोग पाए जाते है ,कुछ तो वह हैं कि अगर खाना सामने रख कर सूरए फातिहा वगैरा आयाते क़ुरआनिया पढ़ दी जायें  तो उन्हें उस खाने से चिढ़ हो जाती है और वह उस खाने के दुश्मन हो जाते है और उसे हराम ख्याल करते हैं । यह वह लोग हैं जिनके दिलों में बीमारी है ।तो खुदाए तआला ने उनकी बीमारी को और बढा दिया । कसीर अहादीस और अकवाले अइम्मा और मामूलाते बुजुर्गाने दीन से मुँह मोड कर अपनी चलाते और ख़्वाहम ख्वाह मुसलमानो को मुशरिक और बिदअती बताते हैं ।
दूसरे हमारे कुछ वह मुसलमान भाई है जो अपनी जिहालत और वहम परस्ती की बुनियाद पर यह समझते हैं कि जब खाना  सामने न हो कुरआन की तिलावत व ईसाले सवाब मना है ।
कुछ जगह देखा गया है मीलाद शरीफ पढने के बाद इन्तिजार करते है कि मिठाई आ जाए तब तिलावत शुरू करें यहॉ तक कि मिठाई आने में अगर देर हो जाए तो गिलास में पानी लाकर रखा जाता है कि उनके लिए उनके जाहिलाना ख़्याल में फातिहा पढ़ना जाइज़ हो जाए कभी ऐसा होता है कि इमाम साहब आकर बैठ गए हैं और मुसल्ले पर बैठे इन्तिज़ार कर रहे हैं अगर खाना आए तो कुरआन पढ़े यह सब वह परस्तियाँ है । हकीकत यह है कि फातिहा में खाना सामने होना ज़रूरी नहीं अगर आयते और सूरते पढ़कर खाना या शीरीनी बगैर सामने लाए यूंही तकसीम कर दी जाए तब भी ईसाले सवाब हो जाएगा और फातिहा में कोई कमी नहीं आएगी ।
सय्यिदी आलाहज़रत मौलाना अहमद रज़ा खां बरेलवी फरमाते है *फातिहा व ईसाले सवाब के लिए खाने का सामने होना  ज़रूरी नहीं । ( फतावा रज़विया ,जिल्द 4, सफहा 225)
*और दूसरी जगह फरमाते है *अगर  किसी शख्स का यह एतिकाद हो कि जब तक खाना सामने न किया जाए सवाब न पहुँचेगा तो यह गुमान उसका महज ग़लत है *।(फतावा रज़विया, जिल्द 4,सफहा 195)
खुलासा यह कि खाने पीने की चीजें सामने रख कर पढने मे कोई हरज नहीं बल्कि हदीसों से उसकी अस्ल साबित  है और फातिहा में खाना सामने रखने को जरूरी ख्याल करना कि उसके बगैर फातिहा नहीं होगी यह भी इस्लाम में ज़्यादती, वहमपरस्ती और ,ख्याले खाम है । जिसको मिटाना मुसलमानों पर जरूरी है ।
हज़रत मौलाना मुफ़्ती मुहम्मद खलील खाँ साहब मारहरवी फरमाते हैं :
*तुम ने नियाज दुरूद व फातिहा में दिन या तारीख मुकर्ररा के बारे में यह समझ रखा है कि उन्हीं दिनों में सवाब मिलेगा आगे पीछे नहीं तो यह समझना हुक्मे शरई के खिलाफ है यूंही फातिहा व ईसाले सवाब के लिए खाने का सामने होना कुछ ज़रूरी नहीं या हज़रते फातिमा खातूने जन्नत की नियाज़ का खाना पर्दे में रखना और मर्दो को न खाने देना औरतों की जिहालतें है बे सबूत और गढ़ी हुई बाते हैं मर्दो को चाहिए कि इन ख्यालात को मिटायें और औरतों को सही रास्ते और हुक्मे शरई पर चलायें।*
(तौज़ीह व तशरीह फैसला हफ्त मसअला, सफहा 142)

मस्जिदों में आवाज़ करने वाले पंखों और कूलरों का मसअला

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आजकल कितने लोग हैं जो मस्जिदों में आते हैं तो उन्हे नमाज़ से ज्यादा अपने आराम, चैन व सुकून गर्मी और ठन्डक की फिक्र रहती है अपनी दुकानों, मकानो खेतों और खलिहानों ,काम धन्धों में बडी बडी परेशानियाँ उठा लेने वाले मशक्कतें झेलने वाले जब मस्जिदों में दस पन्द्रह मिनट के लिए नमाज़ पढने आते हैं । और जरा सी परेशानी हो जाए, थोडी सी गर्मी या ठन्डक लग जाए तो बौखला जाते हैं , गोया कि आज लोगो ने मस्जिदों को आरामगाह और मकामें  ऐश व इशरत समझ लिया है ।जहॉ तक शरीअते इस्लामिया ने इजाज़त दी हैं वहा तक आराम उठाने से रोका तो नहीं जा सकता लेकिन कुछ जगह यह देखकर. सख्त तक्लीफ होती है कि मस्जिदों को आवाज़ करने वाले बिजली के पंखों , शोर मचाने वाले कूलर से सजा देते है और जब यह सारे पंखे और कूलर चलते हैं तो मस्जिद में एक शोर व हंगामा होता है । और कभी कभी इमाम की किरअत तकबीरात तक साफ सुनाई नहीं देतीं या इमाम को उन पंखों और कूलरो की वजह से चीख़ कर किरअत व तकबीर की आवाज़ निकालना पड़ती है। बाज़ जगह तो यह भी देखा गया है कि मस्जिदों में अपने ऐश व आराम की खातिर भारी आवाज़ वाले जनरेटर तक रख दिये जाते है जो सरासर आदाबे मस्जिद के खिलाफ है ।  जहाँ तक बिजली के पंखों और कूलरों का सवाल है तो शुरू में अकाबिर उलमा ने इनको मस्जिद में लगाने को मुतलकन ममनूअ व मकरूह फरमाया था। जैसा कि फतावा रज़विया जिल्द 6 सफहा 384 पर खुद आलाहज़रत इमामे अहलेसुन्न्त मौलाना शाह अहमद रज़ा खां साहब अलैहिर्रहमतु वरिदवान के कलम से इसकी तसरीह मौजूद है । अब बाद में जदीद तहकीक़ात और इब्तिलाए आम की बिना पर अगरचे इनकी इजाज़त दे दी गई लेकिन आवाज़ करने वाले, शोर मचा कर मस्जिदों में हंगामा खड़ा कर देने वाले कूलरों और पंखों को लगाना आदाबे मस्जिद और खुशू व ख़ुज़ू के यकीनन खिलाफ है उनकी इजाज़त हरगिज़ नहीं दी जा सकती । निहायत हल्की आवाज़ वाले हाथ के पंखों से ही काम चलाया जाए । कूलरों से मस्जिदों को बचा लेना ही अच्छा है क्योंकि उसमें आमतौर से आवाज़ ज़्यादा होती है न की दर्जनों पंखे और कूलर लगा कर मस्जिदों में शोर मचाया जाए।
भाइयों खुदाए तआला का ख़ौफ़ रखो । खानए खुदा को ऐश व इशरत का मकाम न बनाओ वह नमाज़ व इबादत और तिलावते कुरआन के लिए है जिस्म परवरी के लिए नहीं। नफ़्स को मारने के लिए है नफ़्स को पालने के लिए नहीं । मस्जिदों में आवाज़ करने वाले बिजली के पंखों का हुक्म बयान फरमाते हुए आला हज़रत रदियल्लाहु तआला अन्हु फरमाते है:-
*बेशक मस्जिदों में ऐसी चीज़ का एहदास ममनूअ बल्कि ऐसी जगह नमाज़ पढ़ना मकरुह है।*
(फतावा रज़विया, जिल्द 6, सफहा 386 )
इस जगह आला हज़रत ने दुर्रे मुख्तार की इबारत भी नकल फरमाई है ।
*अगर खाना मौजूद हो और उसकी तरफ रग़बत व ख्वाहिश हो तो ऐसे वक़्त में नमाज़ पढ़ना मकरुह है ऐसे ही हर वह चीज जो नमाज़ की तरफ़ से दिल को फेरे और खुशू में खलल डाले।*
मजीद फरमाते है *चक्की के पास नमाज़ मकरुह है।* रद्दुल मुहतार में है  *शायद इसकी वजह यह है कि चक्की की आवाज़ दिल को नमाज़ से हटाती है ।*
वह पंखे जो खराब और पुराने हो जाने की वजह से आवाज़ करने लगते हैं उनको दुरुस्त करा लेना चाहिए या मस्जिद से हटा देना चाहिए।