मामूली इख़्तिलाफात को झगड़ों का सबब बनना
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बाज़ फुरुई और नौपैद मसाइल जिनका ज़िक्र सराहतन खुले अलफ़ाज़ में कुरआन व हदीस और फ़िक़्ह की मुस्तनद क़िताबों में नहीं मिलता, उनके मुताल्लिक कभी कभी आलिमों की राय अलग अलग हो जाती है। खास कर आज साइंस के दौर में नई नई ईजादात की बुनियाद पर ऐसे मसाइल कसरत से सामने आ रहे हैं तो कुछ लोग उलेमा के दरमियान इख्तिलाफात को लड़ाई,झगड़े, गाली गलौच ,लअन व तअन का सबब बना लेते हैं और आपस में गिरोह बन्दी कर लेते हैं, यह उनकी सख्त गलतफहमी है।
फरुई मसाइल में इख़्तिलाफ़ की बुनियाद पर पार्टीबन्दी कभी नहीं करना चाहिए । एक दूसरे को बुरा भला कहना चाहिए बल्कि जो बात आपके नज़दीक हक़ व दुरुस्त है वह दूसरों को समझा देना काफी अगर मान जाये तो ठीक वरना उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए और उन्हें अपना मुसलमान भाई ही ख्याल करना चाहिए । मगर आजकल छोटी छोटी बातों पर आपस में लड़ाई , झगड़े, दंगे करना और पार्टियां बनाने की मुसलमान में बीमारी पैदा हो गई है । यह इसलिए भी हुआ कि आजकल लोग नमाज़ व इबादत व कुरआन की तिलावत और दीनी किताबों के पढ़ने में मशगूल नहीं रहते। खाली रहते हैं, इसलिए उन्हें खुराफात सूझती है और ख्वामखाह की बातों में लड़ते और झगड़ते है ।
कुछ लोग इस फुरुई इख़्तिलाफ़ को उलेमाए दीन की शान में गुस्ताखी करने और उन्हें बुरा भला कहने का बहाना बना लेते हैं । ऐसे लोग गुमराह व बद्दिन हैं । इनसे दूरी बहुत जरूरी है और इनकी सुहबत ईमान की मौत है। क्योंकि उलेमा ए दीन की शान में गुस्ताखी और मौलवियों को बुरा भला कहना बद मज़हबी है गुमराहओ की गुमराही की शुरुआत यहीं से होती है।
अहले इल्म व फ़ज़्ल असहाबे दयानत व अमानत में अगर किसी बात पर इख़्तिलाफ़ हो जाये ,उस बात पर अमल करना चाहिए और खुदाए तआला से रो रो कर तौफीक खैर और सीधे रास्ते पर काइम रहने की दुआ करते रहना चाहिए।
हदीस शरीफ में है की रसूले पाक सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम जब जंगे खंदक से वापस मदीने में तशरीफ़ लाएं और फौरन यहूदियों के कबीले बनू क़ुरैज़ा पर हमले का इरादा फरमाया और सहाबा को हुक्म दिया की असर की नमाज बनू क़ुरैज़ा में चलकर पढ़ी जाए लेकिन रास्ते में वक्त हो गया यानी नमाज असर का वक्त खत्म हो जाने का अंदेशा हो गया तो कुछ सहाबा ने नमाज का वक्त जाने के खौफ से रास्ते में ही नमाज अता फरमाई और उन्होंने ख्याल किया कि हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम का मकसद यह नहीं था कि चाहे वक़्त जाता है लेकिन नमाज़ बनू क़ुरैज़ा ही में नहीं पढ़ी जाए और कुछ लोगों ने वक़्त की परवाह न की और नमाज़ असर बनू क़ुरैज़ा ही में जाकर पढ़ी। हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के सामने जब यह जिक्र आया तो आपने दोनों ही को सही व दुरुस्त फरमाया दोनों में से किसी को बुरा नहीं कहा।
( सही बुखारी, जिल्द 1, सलातुल तालिब वलमतलूब, सफहा 129)
एक और हदीस शरीफ में है एक मर्तबा हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के दो सहाबा सफर को गए रास्ते में पानी ना मिलने की वजह से दोनों ने मिट्टी से तयम्मुम करके नमाज़ अदा फरमाई फिर आगे बढ़े पानी मिल गया और नमाज़ का वक़्त बाकी था। एक साहब ने वुज़ू करके नमाज़ दोहराई लेकिन दूसरे ने नहीं दोहराई । वापसी में हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की खिदमत में हाजिर होकर किस्सा बयान किया तो हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने उन साहब से जिन्होंने नमाज़ नहीं दोहराई थी और तयम्मुम की नमाज़ को काफी समझा था उनसे फरमाया तुमने सुन्नत के मुताबिक काम किया और दोहराने वालों से फरमाया तुम्हारे लिए दो गुना सवाब है।(निसाई ,अबू दाऊद ,मिश्क़ात बाबे तयम्मुम, सफहा 55) यानी हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने दोनों को हक व दुरुस्त फरमाया इन हदीसों से पता चलता है कि इख़्तिलाफ़ के बाद भी दो गिरोह हक पर हो सकते हैं जब कि दोनों की नीयत सही हो । इन हदीसों से तक़लीदे अइम्मा का इन्कार करने वाली नाम निहाद जमाअत अहले हदीस (गैर मुकल्लिद) को सबक लेना है जो कहते हैं कि इख़्तिलाफ़ के बावजूद चारों मसलक यानी हनफ़ी, शाफ़ई, मलिकी,हम्बली कैसे हक़ पर हो गए।
हज़रत मौलाए कायनात सय्यिदिना व मौलाना अली मुर्तज़ा रदियल्लाहु तआला अन्हु और सय्यिदिना अमीरे मुआविया रदियल्लाहु तआला अन्हु में जंग हुई मगर दोनों का ही एहतिराम किया जाता है और दोनों में से किसी को बुरा भला कहना सख्त गुमराही और जहन्नम का रास्ता है।
इसकी मिसाल यू समझना चाहिए कि जैसे मां और बाप में अगर झगड़ा हो जाए तो औलाद अगर मां को मारे पिटे या गालियां दें तब भी बदनसीब व महरूम और अगर बाप के साथ ऐसा बर्ताव करे तब भी यानी औलाद को उस झगड़े ने इजाजत ना होगी कि एक ही तरफ होकर दूसरे की शान में बेअदबी करें बल्कि दोनों का एहतेराम जरूरी होगा या किसी शागिर्द के दो उस्तादों में लड़ाई हो जाए तो शागिर्द के लिए दोनों में से किसी के साथ बेहूदगी और बदतमीजी की इजाजत ना होगी।
मकसद यह है कि बड़ों के झगड़ों में छोटों को बहुत एहतियात व होशियारी की जरूरत है।
इस उनवान के तहत हमने जो कुछ लिखा है उसका हासिल यह है कि जब कोई शख्स दीन की जरूरी बातों का मुनकिर और अक़ीदे में खराबी की वजह से इस मंजिल को ना पहुंच जाए कि उसको खारिजे इस्लाम और काफिर कह सकें तब तक उसके साथ नरमी का ही बर्ताव करना चाहिए और समझाने की कोशिश करते रहना चाहिए और खुदाए तआला से उसकी हिदायत की दुआ करते रहना चाहिए।
हां वह लोग जो दिन की जरूरी बातों के मुन्किर हो,
कुरआन व हदीस से साबित सरीह उमूर के काइल न हो,या या अल्लाह तआला और उसके महबूब सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम और दीगर अम्बिया किराम व औलियाए किराम व औलिया इज़ाम व उलेमाए ज़विल एहतिराम की शान में तौहीन और गुस्ताखी करते, या गुस्ताखाने रसूल (सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम) की तहरीकों और जमाआतों से कसदन जुड़े हुए हो, उनकी तारीफ करते हो, वह यकीनन इस लाइक नहीं बल्कि उनसे जितनी नफरत की जाये कम है क्यूंकि अल्लाह और अल्लाह वालों की शान में गुस्ताख़ी व बेअदबी इस्लाम में सबसे बड़ा जुर्म है, और ऐसे शख्स की सुहबत ईमान के लिए ज़हरीला नाग है।
उलेमाए अहले हक़ के दरमियान फुरुई इख़्तिलाफात क़ी सूरत में दोनों जानिब का इहतिराम व अदब मलहूज़ रखने का मशविरा जो हमने दिया है यह वाकई आलिम हो फकीह व मुहद्दिस हो। वरना आजकल के अनपढ़ जो दो चार उर्दू की किताबें पढ़ कर आलिम बनते या सिर्फ तकरीरे करके स्टेजों पर अल्लामा कहलाते,कुरआन व हदीस में अटकलें लगाते हैं, मसाइल में उलेमा से टकराते है,अपनी दुकान अलग सजाते हैं ये इसमें दाखिल नहीं बल्कि ये तो उम्मते मुस्लिमा में रखना अंदाज़ी करने वाले और फितना परवर हैं।
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सय्यिदि आला हज़रत फरमाते हैं >जहां इख़्तिलाफाते फुरुईया हो जैसे हनफ़ी और शाफ़ई फिरके अहले सुन्नत में वहाँ हरगिज़ एक दूसरे को बुरा कहना जाइज़ नही।
(अलमलफूज़ हिस्सा अव्वल सफहा 51)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 99)