⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
आजकल अमानत में तसर्रूफ़ आम हो गया है। उमूमन ऐसा होता है कि एक शख्स ने दूसरे के पास कोई रकम ,रुपया, पैसा बतौरे अमानत रख दिया और वह उसकी इज़ाज़त के वगैर उसमें से यह सोचकर ख़र्च कर देता है या तिजारत में लगा देता है कि देने वाले को मैं अपने पास से दे दूँगा या अभी निकाल लूँ फिर बाद में पूरे कर दूँगा, यह सब गुनाह है और ऐसा करने वाले सब गुनाहगार हैं ख्वाह वह बाद में वह रकम उसे पूरी वापस कर दें क्योंकि अमानत में तसर्रुफ़ की इजाज़त नही ।
मस्जिदों के मुतवल्लियों और मदरसों के मुहतमिमों में देखा गया है कि वह चंदे के पैसों को इधर से उधर करते रहते हैं । कभी खुद अपनी ज़रूरतों में खर्च कर डालते हैं और ख्याल करते हैं हैं कि बाद में पूरा कर देंगे , यह सब खुदा के यहां पकड़े जायेंगे।
कुछ मुत्तक़ी , परहेज़गार व दीनदार बनने वाले तक इन बातों का ख्याल नहीं रखते और हराम को हलाल की तरह खाते हैं और अमानत में तसर्रूफ़ ही आदमी को एक दिन नियत ख़राब और खयानत करने वाला बना देता है । यह सोचकर खर्च कर लेता है कि बाद में अपने पास से पूरा कर दूंगा और फिर नियत खराब हो जाती है और फिर बड़े-बड़े परहेज़गार हरामखोर हो जाते हैं और खुदा के अज़ाब की फिक्र किये बगैर पराए माल को अपने की तरह खाने लगते हैं।
फ़तावा आलमगीरी में है
⤵⤵⤵⤵⤵⤵⤵⤵⤵⤵⤵⤵⤵
एक शख्स ने मस्जिद बनवाने के लिए चंदा किया उसमें से कुछ रकम अपने लिए खर्च कर ली फिर इतनी ही रकम अपने पास से मस्जिद में खर्च कर दी तो ऐसा करना उसके लिए जाइज़ नहीं।
(फतावा रज़विया, जिल्द 8,सफहा 29, फतावा आलमगीरी, जिल्द 2, किताबुल वक़्फ़, बाब 13, सफहा 480)
}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}}
आला हज़रत इमामे अहले सुन्नत फरमाते हैं
⤵⤵⤵⤵⤵⤵⤵⤵⤵⤵⤵⤵⤵⤵
ज़रे अमानत में तसर्रुफ़ हराम है,यह उन मवाज़ेअ में है जिनमे दराहिम व दनानीर मुतअय्यिन होते हैं।उसको जाइज़ नहीं कि उस रुपये के बदले दूसरे रुपये रख दे अगरचे बेऐनेही वैसा ही हो । अगर करेगा, अमीन न रहेगा ।
फिर आगे खास मदरसों के मुहतमिम हज़रात के बारे में फरमाते है
मोहतमिमाने अंजुमन ने अगर सराहतन भी इजाज़त दे दी हो कि तुम जब चाहना ख़र्च कर लेना फिर उसका इवज़ दे देना, जब भी न उसको तसर्रुफ़ जाइज़ न मुहतमिमों को इजाज़त देने की इजाज़त कि मुहतमिम मालिक नहीं और क़र्ज़ तबर्रुअ है और gaire मालिक को तबर्रुअ का इख्तियार नहीं। हाँ चंदा देने वाले इजाज़त दे जायें तो हर्ज नहीं ।
(फतावा रज़विया, जिल्द 8, सफहा 31)
पहले अमानत रखने वाले मुसलमानों का तरीका था कि वह थैलियां रखते और हर अमानत अलग-अलग एक थैली में महफूज रखते और फिर जो लिया था, खास उसी को लौटा देते।
भाइयों! ऐसे ही तरीके अपनाओ अगर कुछ आख़िरत की भी फिक्र है , वरना आज तसर्रूफ़ करने वाले होंगे और कल खाइन व नियत खराब क्योंकि हर नफ़्स के साथ शैतान लगा हुआ है
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 108)
No comments:
Post a Comment