Tuesday

क़ुरआने करीम हिफ़्ज़ करने से मुतअल्लिक़ कुछ ज़रूरी बातें

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
बगैर मआनी व मतलब समझे हुए सिर्फ कुरआने करीम को ज़बानी याद कर लेना यह एक फज़ीलत व बरतरी की बात है। लेकिन सिर्फ इसे ही इल्म नहीं कहा जा सकता। लिहाज़ा बच्चों को पूरा कुरआने करीम हिफ्ज़ कराने के बजाय उनको दीनी उलूम अक़ाइदे इस्लामिया और फ़िक़्ह के मसाइल सिखाये जायें तो ये ज़्यादा बेहतर है।

हज़रत सदरुश्शरीअत मौलाना अमजद अली साहब अलैहिर्रहमा फरमाते हैं- "कुछ कुरआन मजीद याद कर चुका है और उसे फुरसत है तो अफ़ज़ल यह है कि इल्मे फ़िक़्ह सीखे कि कुरआन मजीद हिफ्ज़ करना फ़र्ज़े किफ़ाया है और फ़िक्ह की ज़रूरी बातों का जानना फ़र्ज़े ऐन है।"
(बहारे शरीअत ,हिस्सा 16, सफ़ा 233)

नोट : फ़र्ज़े किफ़ाया वह फर्ज़ है कि शहर का एक भी मुसलमान कर ले तो सब पर से फर्ज़ उतर गया और अगर सबने छोड़ दिया तो सब गुनहगार हुए।

खुलासा यह कि हर शहर और इलाके में कुछ न कुछ हाफिज़ होना भी ज़रूरी है क्यूंकि इसके ज़रिये कुरआन के अल्फ़ाज़ की हिफाज़त है लेकिन इसके साथ साथ हमारी राय यह है कि जो बच्चे ज़हीन और याददाश्त के पक्के हों उन्हें अगर कम उम्री में हिफ्ज़ कराया जा सकता है तो करा दिया जाये वरना 15 , 15 और 20 , 20 साल की उम्र तक का सारा वक़्त  कुरआने करीम हिफ्ज़ कराने में खर्च करा देना ज़्यादा बेहतर नहीं है।

क्यूंकि आजकल उमूमन गरीबों और मुफ्लिसों के बच्चे दीनी मदारिस में आते हैं। उन्हें इस लाइक कर देना भी ज़रूरी है कि रोज़ी कमाने पर क़ादिर हों और दीनी और ज़रूरत के लाइक दुनियवी उलूम भी हासिल किये हुए हों जिन्हें पढ़ा लिखा कहा जा सके।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह , पेज 152)


No comments:

Post a Comment