चन्दों की ज़्यादती
⏬⏬⏬⏬⏬⏬आजकल चन्दे बहुत बढ़ते जा रहे हैं। इन पर रोक लगाना
बहुत जरूरी हो गया है जहाँ तक मदरसों और मस्जिदों का
मुआमला है तो ये कौम की ऐसी जरूरतों में से है कि जिनके
बगैर दीन बाकी नहीं रह सकता। लिहाजा उनके लिए अगर चन्दा लिया जाये तो कुछ हर्ज नहीं।
अलबत्ता गाँव गाँव मौलवियत की पढ़ाई के मदारिस खोलना मुनासिब नहीं है एक जिला में आलिम व फाज़िल बनाने वाले दो चार मदारिस काफी हैं। हाँ । बासलाहियत इमाम मसाजिद में रखे जायें और वह बगैर लम्बी पूरी चन्दे की तहरीक चलाये, इमामत के साथ साथ दो तीन जमाअत तक बच्चों को मौलवियत की इब्तिदाई तालीम दें और फिर बड़े मदरसों में दाख़िल करा दें तो यह निहायत मुनासिब बात है और खाली हाफ़िज़ बनाना और उन्हें इल्मे दीन और लिखने पढ़ने से महरूम रखना और इसी में उनकी उम्र गुजार देना उनके और कौम के हक में अच्छा नहीं है।
हाँ गाँव गाँव इस्लामी मकतब यअनी इस्लामी अन्दाज के
प्राइमरी स्कूल काइम करना बहुत ज़रूरी है जिसमें दीन की
जरूरी तालीम के साथ साथ दुनिया की भी तालीम हो।
मस्जिद की जहाँ जरूरत हो वहाँ अगर कोई सेठ साहब यूँ
ही बगैर दूसरों की मदद के बनवा दें तो वह यकीनन बहुत बड़े सवाब के मुस्तहिक होंगे और ऐसा न हो सके तो मस्जिद के लिए चन्दा करना और मस्जिद बनवाना निहायत बेहतर और उम्दा काम है । लेकिन मस्जिद की तज़ईन और उसकी सजावट और खूबसूरती के लिए गरीब, मजदूर और नादार मुसलमानों पर चन्दे डालना और उन पर गॉव बसती का दबाव बना कर वसूलयाबी करना हरगिज़ मुनासिब नहीं है। दुनिया भर में रसीद बुके लेकर घूमने और गरीब मजदूरों पर दबाव बना कर चन्दा वसूल करने से सादा सी मरिजद में नमाज पढ़ना बेहतर है। इस्लाम में मस्जिद का खूबसूरत होना कुछ भी जरूरी नहीं है। बल्कि पहले के उलेमा ने तो मस्जिदों को सजाने और संवारने से मना फरमाया है, बाद के उलेमा ने भी सिर्फ इजाजत दी है, लाजिम व जरूरी करार नहीं दिया है कि जिसके लिए गाँव गाँव फिरा जाये और दूर दूर के सफर किये जायें या ग़रीबों और मजदूरों को सताया जाये।
यह तो रहा मस्जिदों और मदरसों का मुआमला इसके
अलावा भारी भारी उर्स करने और खानकाहें और मजारात तामीर कराने के लिए चन्दे की कोई जरूरत नहीं है। आपसे जो हो सके अकीदत व महब्बत में हलाल कमाई से कीजिए। दूसरों के ज़िम्मेदार आप नहीं हैं अगर दो चार आदमी भी यौमे विसाल किसी बुजुर्ग की खानकाह में जाकर कुरआने करीम की तिलावत कर दें और थोड़ा बहुत जो मयस्सर हो वह उनके नाम पर उनकी रूह के ईसाले सवाब के खिलायें, पिलायें तो यह मुकम्मल उर्स है, जिसमें कोई कमी नहीं है।
और बखुशी बुज़ुर्गाने दीन के नाम पर जो कोई कुछ करे वह यकीनन इन्हदल्लाह माज़ूर है और सवाब का मुस्तहिक़ है।
जलसे और जुलूस और कान्फ्रेन्सों के नाम पर भी चन्दों को एक मखसूस व महदूद तरीका होना चाहिए क्यूंकि आज हिन्दुस्तान में कौमे मुस्लिम बदहाली और बेरोजगारी का शिकार है। गरीबों,मजदूरों और छोटे छोटे किसानों से चन्दे के नाम पर जबरन रकम वसूल करके 10,-10, 20-20 और 50-50 लाख की हती रखने वाले पेशावर मुकर्रिरों और शाइरों को नज़राने के नाम पर लम्बी लम्बी रकमें भेंट चढ़ाना कौम के हक में कुछ बेहतर नहीं है।
टैन्ट और डेकोरेशन वालों को भरने के लिए घर घर चन्दा
करते घूमना अक्लमन्दी नहीं है। हॉ कीजिए और मखसूस व
महदूद तरीके से एक दाइरे में रह कर कीजिए और जब जरूरत हो तब कीजिए।
और आजकल तो जलसे मुशाइरे बन कर रह गये और जो मुक़र्रेरीन हैं उनमें भी अकसर वाज़ व नसीहत वाले नहीं रंग व रोगन भरने वाले ज़्यादा हैं। और यह लम्बे लम्बे नज़राने पहले से तय करने वाले मुक़र्रेरीन व शाइरों को दूर दूर से बुलाना और उनके नखरे और ठस्से उठाना, बड़े पैमाने पर लाइट व डेकोरेशन सजाना ज्यादातर नाम व नमूद के लिए हो रहा है जो रियाकारी और दिखावा मालूम होता है और रियाकारी का कोई सवाब नहीं मिलता बल्कि अज़ाब होता है।
खुब पब्लिक जुटाने और मजमा बढ़ाने, मुकर्रीरो शाइरों से
तारीफ़ व तौसीफ सुनने के लिए हो रहा है। और जहाँ नाम व नमूद हो, रियाकारी और दिखावा हो, वहाँ चन्दे देने और दिलाने कुछ भी सवाब नहीं है। कमेटी वालों का मकसद सिर्फ यही है कि पब्लिक खूब आ जाये ख़्वाह उन्हें कुछ हासिल हो न हो । बल्कि बाज़ बाज़ जगह तो ये जलसे कराने वाले कमेटियों सदर, सेक्रटरी खजांची ऐसे तक हैं कि कौम से चन्द करके जलसे कराते हुए उन्हें मुद्दत हो गई मगर खुद भी नमाज़ी और दीनदार नहीं बन सके हैं।
शराब, जुआ, लाटरी और सिनेमा के शौक तक उनसे नहीं
छूट सके बल्कि अब तो बाज जगह जलसों के नाम पर चन्दा करके और थोड़ा खर्च करके लम्बी लम्बी रकम बचाने की रिपोर्ट भी मिल रही हैं।
इस सबको लिखने से हमारा मतलब यह नहीं है कि जलसे
बन्द कर दिये जाये। बल्कि जलसे किये जायें मुख्लिस वाएज़ीन व मुक़र्रेरीन से तकरीरें कराई जायें। नातख्वानी के लिए कुर्ब व जवार के किसी खुशगुलू से एक दो नाते पटवाई जायें। पेशावर शाइरों और मुकर्रिरों को चन्दे करके लम्बी लम्बी रकमें न दी जायें और ये सब न हो सके तो जलसे करना कोई फर्ज वाजिब नहीं हैं। मस्जिदों में बासलाहियत इमाम रखे जायें और वह नामाज़े जुमा वगैरह में वअज़ व तकरीर करें और लोगों को उलेमाए अहले सुन्नत की किताबें पढ़ने की तरगीब दिलायें।
लड़कियों की शादी के लिए भी चन्द करने की बीमारी आम
हो गई है। हालांकि यह चन्दा गैर जरूरी इखराजात (ख़र्च) और शादी में नामवरी कमाने के लिए होता है।
इस्लाम में न जहेज़ (दहेज़) वाजिब है, न बारात को खाना खिलाना। इसमें दखल लड़के वालों की ज़्यादती का भी है।
खुलासा यह है कि बिल्कुल सादा निकाह भी कर दिया जाये
तो यह बिला शुबह जाइज़ बल्कि आज के हालात के मुनासिब है।
लड़कियों की शादी के लिए भीक मांगने वाले अगर भीक
माँगने के बजाय किसी ऐसे के साथ बेटी का निकाह कर दें, जो दूसरी शादी का ख्वाहिशमन्द हो और दो औरतों का कफ़ील हो सके या तलाक दे चुका हो या उसकी बीवी मर गई हो या वह गरीब हो या उम्रसीदा हो। और अपनी इन कमज़ोरियों की वजह से शादी में इखराजात का तालिब न हो, जैसा कि आजकल माहौल है तो यह उनके लिए भीक माँगने से हजारों दर्जे बेहतर है क्यूंकि लड़की की शादी के लिए भीक माँगना गुनाह व नाजाइज़ है और जिन लोगों का अभी हमने जिक्र किया है, उनके साथ निकाह बिला शुबह जाइज़ है। हॉ बगैर सुवाल करे कोई खुद ही से किसी की मदद करे तो इसमें कोई रोक टोक नहीं। लेकिन सुवाल करना और भीक मॉगना, इस्लाम में सिवाय चन्द मखसूस सूरतों के जो अहादीस व फ़िक़्ह की किताबों में मजकूर हैं, हराम है। और जो सूरतें मजकूर हुई, उनमें शादी ब्याह के गैर ज़रूरी मरासिम अदा करना हरगिज शामिल नहीं।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 114)
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