Tuesday

क्या मछली और अरहर की दाल पर फ़ातिहा नहीं होगी?

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हमारे कुछ अवाम भाई अपनी नावाकिफ़ी की वजह से यह
ख्याल करते हैं कि मछली और अरहर की दाल पर फातिहा नहीं पढ़ना चाहिए हालांकि यह उनकी गलतफहमी है । इस्लाम में जिस चीज़ को खाना हलाल और जाइज़ है तो उस पर फ़ातिहा भी पढ़ी जा सकती है। लिहाज़ा अरहर की दाल और मछली चूंकि इनका खाना हलाल व जाइज़ है तो उन पर फातिहा पढ़ने में हरगिज़ कोई बुराई नहीं हैं, बल्कि मछली तो निहायत उम्दा और महबूब गिज़ा है।

जैसा कि हदीस में आया है कि जन्नत में अहले जन्नत को पहली गिज़ा मछली ही मिलेगी और जो खाना जितना उम्दा और लज़ीज़ होगा फातिहा में भी उसकी फज़ीलत ज़्यादा होगी।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 153)

क़ुरआने करीम हिफ़्ज़ करने से मुतअल्लिक़ कुछ ज़रूरी बातें

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बगैर मआनी व मतलब समझे हुए सिर्फ कुरआने करीम को ज़बानी याद कर लेना यह एक फज़ीलत व बरतरी की बात है। लेकिन सिर्फ इसे ही इल्म नहीं कहा जा सकता। लिहाज़ा बच्चों को पूरा कुरआने करीम हिफ्ज़ कराने के बजाय उनको दीनी उलूम अक़ाइदे इस्लामिया और फ़िक़्ह के मसाइल सिखाये जायें तो ये ज़्यादा बेहतर है।

हज़रत सदरुश्शरीअत मौलाना अमजद अली साहब अलैहिर्रहमा फरमाते हैं- "कुछ कुरआन मजीद याद कर चुका है और उसे फुरसत है तो अफ़ज़ल यह है कि इल्मे फ़िक़्ह सीखे कि कुरआन मजीद हिफ्ज़ करना फ़र्ज़े किफ़ाया है और फ़िक्ह की ज़रूरी बातों का जानना फ़र्ज़े ऐन है।"
(बहारे शरीअत ,हिस्सा 16, सफ़ा 233)

नोट : फ़र्ज़े किफ़ाया वह फर्ज़ है कि शहर का एक भी मुसलमान कर ले तो सब पर से फर्ज़ उतर गया और अगर सबने छोड़ दिया तो सब गुनहगार हुए।

खुलासा यह कि हर शहर और इलाके में कुछ न कुछ हाफिज़ होना भी ज़रूरी है क्यूंकि इसके ज़रिये कुरआन के अल्फ़ाज़ की हिफाज़त है लेकिन इसके साथ साथ हमारी राय यह है कि जो बच्चे ज़हीन और याददाश्त के पक्के हों उन्हें अगर कम उम्री में हिफ्ज़ कराया जा सकता है तो करा दिया जाये वरना 15 , 15 और 20 , 20 साल की उम्र तक का सारा वक़्त  कुरआने करीम हिफ्ज़ कराने में खर्च करा देना ज़्यादा बेहतर नहीं है।

क्यूंकि आजकल उमूमन गरीबों और मुफ्लिसों के बच्चे दीनी मदारिस में आते हैं। उन्हें इस लाइक कर देना भी ज़रूरी है कि रोज़ी कमाने पर क़ादिर हों और दीनी और ज़रूरत के लाइक दुनियवी उलूम भी हासिल किये हुए हों जिन्हें पढ़ा लिखा कहा जा सके।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह , पेज 152)



पढ़ने पढ़ाने से मुतअल्लिक़ कुछ गलतफ़हमियाँ

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आजकल कसरत से मुसलमान अपने बच्चों को ईसाईयों और बुत परस्तों मुश्रिकों के स्कूलों ,पाठशालाओं में पढ़ने भेज रहे हैं जबकि मुसलमानों को चाहिए कि वह हिन्दी,।अंग्रेज़ी,हिसाब व साइंस वगैरा की अदना (छोटी) व आला।(बड़ी) तालीम के लिए भी अपने स्कूल खोलें जिनमें दुनियवी तालीम के साथ साथ ज़रूरत के लाइक दीनी।तालीम भी हो या दीनी इस्लामी उलूम के साथ साथ ज़रूरत के लाइक दुनियवी उलूम भी पढ़ाये जायें और तालीम अगरचे दुनियवी भी हो लेकिन माहौल व तहज़ीब इस्लामी हो और गवर्नमेंट से मन्ज़ूरशुदा निसाब की किताबें भी पढ़ाई जायें लेकिन उनमें अगर कहीं कोई बात ऐसी हो जो इस्लामी नज़रियात के ख़िलाफ़ हों तो पढ़ाने वाले उस पर तम्बीह करके बच्चों के ईमान व अक़ीदे को बचायें क्यूंकि ईमान हर दौलत से बड़ी दौलत है।

मगर अफ़सोस कि मुसलमानों में भी हर किस्म के लोग।मौजूद हैं, दौलतमन्दों और अमीरों की तादाद भी काफी है, अगर चाहते तो आसानी से दुनियवी तालीम के लिए भी अपने स्कूल खोल देते मगर वहाँ तो ईसाईयत और मुशरिकाना तहज़ीब का नशा सवार है। ख्याल रहे कि वक़्त अब करीब आता मालूम हो रहा है और यह नशे जल्दी ही उतर जायेंगे। अस्ल बात यह कि जिस कौम के दिन पूरे हो चुके हों, उसे कोई समझा नहीं सकता। अभी जल्दी ही एक इस्लामी मुल्क इराक में अमरीकी ईसाईयों ने कब्ज़ा कर लिया और यह इसलिए हुआ कि वहाँ के लोगों ने ईसाई तहज़ीब और कल्चर को अपना लिया था और मुसलमान जिस कौम की तहज़ीब अपनाता है, उस कौम को उस पर हाकिम बना दिया जाता है।
इराकी मुसलमान गले में टाई बांधने लगे थे, इनके मर्दों औरतों ने इस्लामी लिबास छोड़कर ईसाइयों और अंग्रेजों का लिबास पहनना शुरू कर दिया था, शराब आम हो गई थी, नमाज़ रोज़ा बराए नाम रह गया था। आज लोग चीख रहे हैं कि इराक से इस्लामी हुकूमत चली गई लेकिन भाईयों चीखने से क्या फ़ायदा सही बात यह है कि पहले इस्लाम गया है, हुकूमत बाद में। अमरीकी फ़ौजें बहुत बाद में आई हैं, अमरीकी तहज़ीब पहले आ गई है।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 151)

मख़लूके खुदा को सताना और दुआ तावीज़ कराना

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आज कितने ही लोग हैं जो लोगों पर ज़ुल्म व ज़्यादती करते हैं और फिर पीरों, फकीरों के यहाँ दुआ तावीज़ात कराते हैं और मज़ारों पर मुरादें मांगते घूमते हैं और मस्जिदों में जाकर लम्बी लम्बी दुआयें मांगते हैं।

कितने शौहर हैं जो बीवियों पर जुल्म ढाते और उनका ख्याल नहीं रखते उन्हें बान्दियों और नौकरानियों से बदतर
ज़िन्दगी गुजारने पर मजबूर कर देते हैं न उन्हें तलाक देते हैं और न उनका हक़ अदा करते हैं।

कितनी बीवियां हैं जो अपने शौहरों का खून पीती उनके लिए घरों को जहन्नम का नमूना बना देती हैं। सासों और नन्दों के साए से जलती हैं, कितनी सास और नन्दें हैं जो अपने घरों में आने वाली दुल्हनों के लिए जीना मुश्किल कर देती हैं शौहर बीवी के दरमियान महब्बत उन्हें कांटों की तरह खटकती और कलेजे में चुभती है।

कितने अमीर कबीर रईस ज़मीदार व मालदार लोग हैं जो मज़दूरों का गला घोंटते, नौकरों को मारते पीटते, झिड़कते उनकी मज़दूरियां और तनख्वाहें रोकते और खुद ऐश करते और उनके घर वाले बीवी बच्चों की बददुआयें लेते हैं। कितने ही लोग वह हैं जो जानवरों को पालते हैं लेकिन उनकी भूक, प्यास, जाड़े, गर्मी की परवाह नहीं करते उन्हें बेरहमी से मारते पीटते हैं उनकी ताकत से ज़्यादा उनसे काम लेते और बोझ लादते हैं। खास कर जिबह का पेशा करने वाले जिबह करने से पहले उन्हें भूका प्यासा रखते हैं और उन पर ऐसे ऐसे ज़ुल्म करते हैं कि जिन्हें देखा नहीं
जा सकता।

खुलासा यह कि कोई भी ज़ालिम अत्याचारी वे रहम हो जो अपने ऐश व आराम और मालदारी की खातिर दूसरों को सताता और उनका खून पीता है उसकी न खुद अपनी दुआ कबूल होती है न उसके हक में दूसरों की। यह मर्द हों या औरतें, यह शौहर हों या बीवियां, यह सासें और नन्दें हों या बहुएं और भावजें, यह मालदार और ज़मीदार हों या हुक्काम व अधिकारी। अगर यह ज़ालिम व बेरहम और अत्याचारी हैं तो उन्हें चाहिए कि यह लम्बी लम्बी दुआयें मांगने, पीरों फकीरों और मज़ारात पर चक्कर लगाने और दुआ तावीज़ कराने से पहले जिसको सताया है उससे माफ़ी मांग लें जिसका हक दबाया है। वह उसे लौटा दें और ज़ुल्म व ज़्यादती व बेरहमी की आदत छोड़ दें फिर आयें ये मस्जिदों में दुआओं के लिए और खानकाहों में मुरादें मांगने और मियां और मौलवियों के पास गन्डे तावीज़ कराने के लिए। जिसने किसी गरीब, कमज़ोर को सताया है और जिसके पीछे किसी मज़लूम की बददुआ लगी है उसके लिए न कोई दुआ है न तावीज़ ।
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हदीस में है कि फ़रमाया  रसुलुल्लाह (सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम) ने "अल्लाह तआला" उस पर रहम नहीं फरमाता जो लोगों पर रहम नहीं करता ।''
और फरमाते हैं।
मज़लूम की बददुआ से बचों वह अल्लाह तआला से अपना हक़ मांगता है और खुदाए तआला हक़ वाले को उसका हक़ अता फरमाता है। (मिश्कात सफहा 435)

गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 149)

Monday

कुछ गलत नामों की निशानदेही ⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬

कुछ लोग अपने बच्चों के नाम, अहमद नबी, मुहम्मद नबी, रसूल अहमद,नबी अहमद रख देते हैं, यह ग़लत है इसके बजाय गुलाम मुहम्मद या गुलाम रसूल या गुलाम नबी कर लें या मुहम्मद नबी और अहमद नबी में नबी के आगे ‘ह’ बढ़ा कर मुहम्मद नबीह या अहमद नबीह कर लें।

गफूरुद्दीन नाम रखना भी गलत है क्यूंकि गफूर के  मअना मिटा देने वाले के हैं लिहाज़ा गफूरुद्दीन के माअना हुए ‘दीन को मिटाने वाला’। लाहौला वला .कुव्वता इल्ला बिल्लाह। अल्लाह जल्ला शानुहू का नाम गफूर इसलिए है कि वह गुनाहों को मिटाता है, नाम रखने से मुताल्लिक क्या जाइज़ है और क्या नाजाइज़ इसको तफसील से जानने के लिए आलाहजरत मौलाना शाह इमाम अहमद रज़ा खां अलैहिर्रहमतो वर्रिदवान की तसनीफ मुबारक अहकामे शरीअत में सफा 72 से सफा 98 तक का मुतालआ करना चाहिए।

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  नोट◆- कुछ लोगों के नाम इस किस्म के होते हैं जिनमें अल्लाह तआला के मखसूस नामों के साथ ‘अब्द' लगा होता है जैसे अब्दुल्लाह, अब्दुर्रहमान,अब्दुर्रज्जाक, अब्दुल खालिक वगैरहा तो इन नाम वालों को बगैर ‘अब्द’ लगाये खाली रहमान, रज्जाक या ख़ालिक हरगिज़ नहीं कहना चाहिए और यह इस्लाम में बहुत बुरी बात है जिसका ध्यान करना निहायत ज़रूरी है। वलइयाज़ुबिल्लाहि तआला।

  

  गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 148)







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क्या दरख्तों और ताकों में शहीद मर्द रहते हैं।

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कुछ लोग कहते हैं कि फलां दरख्त पर शहीद मर्द रहते हैं। या फलां ताक में शहीद मर्द रहते हैं और उस दरख्त और उस ताक के पास जाकर फातिहा दिलाते हैं हार फूल खुशबू वगैरा डालते हैं लोबान अगरबत्ती सुलगाते हैं और वहाँ मुरादें मांगते हैं। यह सब खिलाफ शरअ और गलत बातें है। जो बर बिनाए जहालत अवाम मे राइज हो गई हैं इनको दूर करना निहायत ज़रूरी है। हक यह है कि ताकों, महराबों, दरख्तों वगैरा पर महबूबाने खुदा का क्रियाम करार देकर वहाँ हाज़िरी नियाज़, फातिहा, अगरबत्ती, मोमबत्ती जलाना, हार फूल डालना खुशबूयें मलना, घूमना, चाटना हरगिज़ जाइज़ नहीं।
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 आलाहज़रत रदियल्लाहु  तआला अन्हु इन बातों के मुतअल्लिक फरमाते हैं
‘यह सब वाहियात व खुराफात और जाहिलाना हिमाक़ात व
व बतलात हैं इनका इज़ाला लाज़िम है।"
(अहकामे शरीअत, हिस्सा अव्वल, सफहा 32)
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आजकल कुछ लोग इन हरकतों से रोकने वालों को वहाबी कह देते हैं हालांकि किसी मुसलमान को वहाबी कहने में जल्दी नहीं करना चाहिए जब तक कि उसके अकाइद की खूब तहकीक न हो जाए और ख़िलाफ़ शरअ हरकतों और बिदअतों से रोकना तो अहले सुन्नत का ही काम है वहाबी तो उसको कहते हैं जो अल्लाह तआला और उसके महबूब हज़रत मुहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु तआला अलैही वसल्लम के और बुज़ुर्गाने दीन की शान में गुस्ताख़ी व बेअदबी करता हो या जानकर गुस्ताख़ों की तहरीक में शामिल हो उनको अच्छा जानता हो। वहाबी किसे कहते हैं इसको तफ़सील के साथ मैंने अपनी किताब"दरमियानी उम्मत’ में लिख दिया है यह किताब उर्दू और हिन्दी में अलग अलग छप चुकी है हासिल करके मुतालआ कर लिया जाए।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 147)

क्या दरख्तों और ताकों में शहीद मर्द रहते हैं।

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कुछ लोग कहते हैं कि फलां दरख्त पर शहीद मर्द रहते हैं। या फलां ताक में शहीद मर्द रहते हैं और उस दरख्त और उस ताक के पास जाकर फातिहा दिलाते हैं हार फूल खुशबू वगैरा डालते हैं लोबान अगरबत्ती सुलगाते हैं और वहाँ मुरादें मांगते हैं। यह सब खिलाफ शरअ और गलत बातें है। जो बर बिनाए जहालत अवाम मे राइज हो गई हैं इनको दूर करना निहायत ज़रूरी है। हक यह है कि ताकों, महराबों, दरख्तों वगैरा पर महबूबाने खुदा का क्रियाम करार देकर वहाँ हाज़िरी नियाज़, फातिहा, अगरबत्ती, मोमबत्ती जलाना, हार फूल डालना खुशबूयें मलना, घूमना, चाटना हरगिज़ जाइज़ नहीं।
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 आलाहज़रत रदियल्लाहु  तआला अन्हु इन बातों के मुतअल्लिक फरमाते हैं
‘यह सब वाहियात व खुराफात और जाहिलाना हिमाक़ात व
व बतलात हैं इनका इज़ाला लाज़िम है।"
(अहकामे शरीअत, हिस्सा अव्वल, सफहा 32)
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आजकल कुछ लोग इन हरकतों से रोकने वालों को वहाबी कह देते हैं हालांकि किसी मुसलमान को वहाबी कहने में जल्दी नहीं करना चाहिए जब तक कि उसके अकाइद की खूब तहकीक न हो जाए और ख़िलाफ़ शरअ हरकतों और बिदअतों से रोकना तो अहले सुन्नत का ही काम है वहाबी तो उसको कहते हैं जो अल्लाह तआला और उसके महबूब हज़रत मुहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु तआला अलैही वसल्लम के और बुज़ुर्गाने दीन की शान में गुस्ताख़ी व बेअदबी करता हो या जानकर गुस्ताख़ों की तहरीक में शामिल हो उनको अच्छा जानता हो। वहाबी किसे कहते हैं इसको तफ़सील के साथ मैंने अपनी किताब"दरमियानी उम्मत’ में लिख दिया है यह किताब उर्दू और हिन्दी में अलग अलग छप चुकी है हासिल करके मुतालआ कर लिया जाए।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 147)

क्या क़व्वाली सुनना जाइज़ है?

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इस्लामी भाईयो ! आज कल बुज़ुर्गाने दीन के मज़ारात पर उनके उर्सों का नाम लेकर खूब मौज मस्तियां हो रही हैं और अपनी रंग रंगेलियों, बाजों, तमाशों, औरतों की छेड़छाड़ के मजे उठाने के लिए अल्लाह वालों के मज़ारों को इस्तेमाल किया जा रहा है और ऐसे लोगों को न खुदा का ख़ौफ़ है, न मौत की फिक्र और न जहन्नम का डर।

आज कुफ्फार व मुशरिकीन यह कहने लगे हैं कि इस्लाम भी दूसरे मजहबों की तरह नाच, गानों, तमाशों, बाजों और बेपर्दा औरतों को स्टेजों पर लाकर बे हाई का मुज़ाहिरा करने वाला मज़हब है लिहाज़ा अहले कुफ़्र के इस्लाम कबूल करने की जो रफ्तार थी उसमें बहुत बड़ी कमी आ गई है।

मज़हबे इस्लाम में बतौर लहव व लइब ढोल, बाजे और मज़ामीर हमेशा से हराम रहे हैं। बुखारी शरीफ की हदीस है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहुतआलाअलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया :
"जरूर मेरी उम्मत में ऐसे लोग होने वाले हैं जो ज़िना रेशमी कपड़ों, शराब और बाजों ताशों को हलाल ठहरायेंगे।"
(सही बुख़ारी, जिल्द 2, किताबुल अशरिबह, सफहा 837)

दूसरी हदीस में हुज़ूर नबीए करीम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने कियामत की निशानियां बयान करते हुए फ़रमाया :
"कियामत के करीब नाचने गाने वालियों और बाजे ताशों
की कसरत हो जाएगी।"
(तिर्मिजी, मिश्कातबाबे अशरातुस्साअह सफ़हा 470)

फतावा आलमगीरी जो अब से साढ़े तीन सौ साल पहले बादशाहे हिन्दुस्तान मुहीयुद्दीन औरंगज़ेब आलमगीर रहमतुल्लाह तआला अलैह के हुक्म से उस दौर के तकरीबन सभी मुसतनद व मोतबर उलमाए किराम ने जमा होकर मुरतब फरमाई जो अरबी जबान (भाषा) में तकरीबन तीन हज़ार सफ़हात और छह जिल्दों पर फैला हुआ एक अज़ीम इस्लामी इन्साइक्लोपीडिया है।
उस में लिखा है।
"सिमा, कव्वाली और रक्स (नाच कूद)जो आज कल के नाम निहाद सूफियों में राइज है यह हराम है इस में शिरकत जाइज़ नही।"
( फतावा आलमगीरी ,जिल्द 5, किताबुल कराहियह ,बाब 17 ,सफहा 352)

आलाहज़रत मौलाना शाह अहमद रज़ा खां साहब अलैहिर्रहमा का फतवा अरब व अजम में माना जा रहा है उन्होंने मज़ामीर के साथ कव्वालियों को अपनी किताबों में कई जगह हराम लिखा है। कुछ लोग कहते हैं मज़ामीर के साथ कव्वाली चिश्तिया सिलसिले में राइज और जाइज़ है। यह बुज़ुर्गाने चिश्तिया पर उनका खुला बोहतान है बल्कि उन बुजुर्गों ने भी मज़ामीर के साथ कव्वाली सुनने को हराम फरमाया है। सय्यिदना महबूबे इलाही निज़ामुद्दीन देहलवी रहमतुल्लाहि तआला अलैह ने अपने ख़ास ख़लीफ़ा सय्यिदना फ़ख़रुद्दीन ज़रदारी से मसअलए कव्वाली के मुतअल्लिक एक रिसाला लिखवाया जिसका नाम ‘कश्फुल किनान अन उसूलिस्सिमा’ है। इसमें साफ लिखा है : हमारे बुज़ुर्गों का सिमा इस मज़ामीर के बोहतान से बरी है (उनका सिमा तो है) सिर्फ कव्वाल की आवाज़ अशआर के साथ हो जो कमाल सनअते इलाही की ख़बर देते हैं।

कुतबुल अकताब सय्यिदना फरीदुद्दीन गंज शकर रहमतुल्लाह तआला अलैह के मुरीद और सय्यिदना महबूब इलाही निज़ामुद्दीन देहलवी रहमतुल्लाह तआला अलैह के ख़लीफ़ा सय्यिदना मुहम्मद बिन मुबारक अलवी किरमानी रहमतुल्लाहि तआला अलैह अपनी मशहूर किरताब ‘सैरुल औलिया’ में तहरीर फरमाते हैं:
“महबूब इलाही ख्वाजा निज़ामुद्दीन देहलवी अलैहिर्रहमतु वर्रिदवान ने फरमाया कि चन्द शराइत के साथ सिमा हलाल है
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(1) सुनाने वाला मर्द कामिल हो छोटा लड़का और औरत न हो।
 (2)सुनने वाला यादे खुदा से ग़ाफ़िल न हो।

 (3) जो कलाम पढ़ा जाएफ़हश, बेहयाई और मसखरगी न हो।

(4) आलए सिमाअ यानी सारंगी मज़ामीर व रुबाब से पाक हो।
(सैरुल औलियाबाब 6, दर सिमा, वज्द व रक्स, सफ़हा 501)

इसके अलावा ‘सैरुल औलियाशरीफ़' में एक और मकाम पर है कि एक शख्स ने हजरते महबूब इलाही ख्वाजा निज़ामुद्दीन रहमतुल्लाहि तआला अलैह से अर्ज किया कि इन अय्याम में बाज़ आस्तानादार दुरवेशों ने ऐसे मजमे में जहाँ चंग व रुबाब व मज़ामीर था, रक्स किया तो हज़रत ने फरमाया कि उन्होंने अच्छा काम नहीं किया जो चीज़ शरअ में नाजाइज़ है वह नापसन्दीदा है। उसके बाद किसी ने बताया कि जब यह जमाअत बाहर आई तो लोगों ने उन से पूछा कि तुम ने यह क्या किया वहीं तो मज़ामीर थे तुम ने सिमा किस तरह सुना और रक्स किया? उन्होंने कहा हम इस तरह सिमा में डूबे हुए थे कि हमें यह मालूम ही नहीं हुआ कि यहाँ मज़ामी हैं या नहीं। हज़रत सुल्तानुल मशाइख ने फरमाया यह कोई जवाब नहीं इस तरह तो हर गुनाहगार हरामकार कह सकता है।
(सैरुल औलिया, बाब 9 , सफ़हा 530)
यानी कि आदमी ज़िना करेगा और कह देगा कि मैं बेहोश था मुझको पता नहीं कि मेरी बीवी है या गैर औरत, शराबी कहेगा कि मुझे होश नहीं कि शराब पी या शरबत।

इसके अलावा उन्हीं हज़रते सय्यिदना महबूब इलाही निज़ामुद्दीन हक़ वालिदैन अलैहिर्रहमतु वर्रिदवान के मलफूज़ात पर मुशतमिल उन्हीं के मुरीद व खलीफा हज़रत ख्वाजा अमीर हसन अलाई सन्जरी की तसनीफ़ ‘वाइदुल फवाद शरीफ़' में है।

हज़रते महबूब इलाही की खिदमत में एक शख्स आया और बताया कि फलां जगह आपके मुरीदों ने महफ़िल की है और वहाँ मज़ामीर भी थे हज़रत महबूब इलाही ने इस बात को पसन्द नहीं फ़रमाया। और फ़रमाया कि मैंने मना किया है मज़ामीर (बाजे) हराम चीज़े वहाँ नहीं होना चाहिए इन लोगों ने जो कुछ किया अच्छा नहीं किया इस बारे में काफ़ी ज़िक्र फरमाते रहे। इसके बाद हज़रत ने फरमाया कि अगर कोई किसी मकाम से गिरे तो शरअ में गिरेगा और अगर कोई शरअ से गिरा तो कहाँ गिरेगा।
(फवाइदुल फवाद,जिल्द 3, मजलिस पन्जुम,सफ़हा 512, मतबूआ उर्दू अकादमी ,देहली,तर्जमा ख्वाजा हसन निज़ामी)

मुसलमानो! जरा सोचो यह हजरत ख्वाजा निज़ामुद्दीन देहलवी रदियल्लाहु तआला अन्हु का फतावा है जो तुमने ऊपर पढ़ा। इन अक़वाल के होते हुए क्या कोई कह सकता है कि खानदाने चिश्तिया में मज़ामीर के साथ कव्वाली जाइज़ है? हाँ यह बात वही लोग कहेंगे जो चिश्ती हैं, न कादरी उन्हें तो मज़ेदारियां और लुत्फ़ अन्दोज़ियां चाहिए।

और अब जबकि सारे के सारे कव्वाल बे नमाज़ी और फ़ासिक व फाजिर हैं। यहाँ तक कि बाज़ शराबी तक सुनने में आए हैं। यहाँ तक कि औरतों और अमरद लड़के भी चल पड़े हैं। ऐसे माहौल में इन कव्वालियों को सिर्फ वही जाइज़ कहेगा जिसको इस्लाम व कुरआन ,दीन व ईमान से कोई महब्बत न हो और हरामकारी, बहायाई, बदकारी उसके रग व पय में सराहत कर गई हो। और कुरआन व हदीस के फ़रामीन की उसे कोई परवाह न हो। क्या इसी का नाम इस्लाम है कि मुसलमान औरतों को लाखों के मजमे में लाकर उनके गाने बजाने कराए जायें फिर उन तमाशों का नाम बुज़ुर्गों का उर्स रखा जाए। काफ़िरों के सामने मुसलमानों और मजहबे इस्लाम को जलील व बदनाम किया जाए?

कुछ लोग कहते हैं कि कव्वाली अहल के लिए जाइज़ और नाअहल के लिए नाजाइज़ है। ऐसा कहने वालों से हम पूछते हैं। कि आजकल जो कव्वालियों की मजलिसों में जो लाखों लाख के मजमे होते हैं क्या यह सब अल्लाह वाले और असहाबे इसतगराक हैं? जिन्हें दुनिया व मताए दुनिया का कतअन होश नहीं? जिन्हें यादे खुदा और ज़िक्र इलाही से एक आन की फुरसत नहीं?

ख़र्राटे की नीदों और गप्पों, शप्पों में नमाज़ों को गंवा देने वाले, रात दिन नंगी फ़िल्मोंगन्दे गानों में मस्त रहने वाले, मां बाप की नाफरमानी करने और उनको सताने वाले, चोर लकोर, झूटे फ़रेबी, गिरेहकाट वगैरा क्या सब के सब थोड़ी देर के लिए कव्वालियों की मजलिस में शरीक हो कर अल्लाह वाले हो जाते और उसकी याद में महव हो जाते हैं? या पीर साहब ने अहल का बहाना तलाश करके अपनी मौज मस्तियों का सामान कर रखा है? कि पीरी भी हाथ से न जाए और दुनिया की मौज मस्तियों में भी कोई कमी न आए। याद रखो कब्र की अँधरी कोठरी में कोई हीला व बहाना न चलेगा।

कुछ लोगों को यह कहते सुना गया है मज़ामीर के साथ कव्वाली नाजाइज़ होती तो दरगाहों और ख़ानकाहों में क्यूं होती?

काश यह लोग जानते कि रसूले पाक सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की हदीसों बुज़ुगाने दीन के मुकाबले में  आजकल के फ़ासिक दाढ़ी मुन्डाने वाले नमाज़ों को कसदन छोड़ने वाले बाज़ ख़ानकाहियों का अमल पेश करना दीन से दूरी और सख्त नादानी है जो हदीसें हमने ऊपर लिखीं और बुज़ुर्गाने दीन के अक़वाल नक़ल किये गए उनके मुकाबिल न किसी का कौल मोतबर होगा न अमल। आजकल खानकाहों में किसी काम का होना उसके जाइज़ होने की शरई दलील नहीं है।

बाज़ खानकाहों की जबानी यह भी सुना कि हम कव्वालियां इसलिए कराते हैं कि ज़्यादा लोग जमा हो जायें और उर्स भारी हो जाए। यह भी सख्त नादानी है गोया आपको अपनी नामवरी की फिक्र है आख़िरत की फिक्र नहीं। आपको कोई जानता न हो,आपके पास कोई बैठता न हो, आप गुमनाम हों और हरामकारियों से बचते हो। नमाजों के पाबन्द हों, बीवी बच्चों के लिए हलाल रोज़ी कमाने में लगे हों और आपका परवरदिगार आप से राज़ी हो यह हज़ार दर्जे बेहतर है इससे कि आप मशहूरे जमाना शख्सियत हों। आपके हज़ारों मुरीद हों, हर वक़्त हज़ारों मोअतकिदीन का झमगटटा लगा रहता हो या लाखों मजमे में बोलने वाले ख़तीब और मुकर्रिर हों। बड़े अल्लामा व मौलाना शुमार किये जाते हों लेकिन हरामकारियों में इनहिमाक, नमाज़ों से गफलत ,शोहरत व जाह तलबी,दौलत की नाजाइज़ हवस की वजह से।।मैदाने महशर में खुदाए तआला के सामने शर्मिन्दगी हो। कियामत के दिन ख़िफ़्फत उठानी पड़े। वलइयाजु बिल्लाहि तआला कहीं जहन्नम का रास्ता न देखना पड़े।

मेरे भाईयो! दिल में यह तमन्ना रखे यही खुदाए कदीर से दुआ किया करो कि ख्वाह हम मशहूरे ज़माना पीर और दिलों में जगह बनाने वाले ख़तीब हों या न हों लेकिन हमारा रब हम से राज़ी हो जाए ईमान पे मौत हो जाए और जन्नत नसीब हो जाए। और खुदाए तआला हमें चाहे थोड़ों में रखे लेकिन अच्छों और सच्चों में रखे। फ़कीरी और दुरवेशी भीड़ और मजमा जुटाने का नाम नहीं है। फ़कीर तो तन्हाई पसन्द होते हैं और भीड़ से भागते हैं अकेले में यादे खुदा करते हैं।

      उनकी याद उनका तसव्वुर है उन्हीं की बातें
           कितना आबाद मेरा गोशए तन्हाई है।
         
आख़ीर में एक बात यह भी बता देना ज़रूरी है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया कि ‘‘जो कोई ख़िलाफ़ शरअ काम की बुनियाद डालते है तो उस पर अपना और सारे करने वालों को गुनाह होता है।’’ लिहाजा जो मज़ामीर के कव्वालियां कराते हैं और दूसरों को भी इसका मौका देते हैं उन पर अपना,कव्वालों और लाखों तमाशाइयों का गुनाह है मरते ही उन्हें अपनी करतूतों का अन्जाम देखने को मिल जाएगा।

हमारी इस तहरीर को पढ़ कर हमारे इस्लामी भाई बुरा न मानें बल्कि ठन्डे दिल से सोचें अपनी और अपने भाईयों में
इस्लाह की कोशिश करें।

अल्लाह तआला प्यारे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के सदके व तुफ़ैल तौफीक बख्शे।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 140)

अपनी तरफ से न करके औरों के नाम से कुर्बानी करना

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कुछ लोग जिन पर मालदार साहिबे निसाब होने की बिना पर कुर्बानी वाजिब होती है वह कुर्बानी में ब-वक़्ते ज़िबह अपने नाम के बजाए अपने माँ, बाप या बुज़ुर्गाने दीन का नाम लेकर उनकी तरफ़ से कुर्बानी करते हैं हालांकि यह गलत है। जिस पर कुर्बानी वाजिब है वह पहले अपने नाम से करे। उसके बाद अगर मौक़ा है तो बड़े जानवर में और हिस्से लेकर या दूसरे जानवर बुज़ुर्गाने दीन या अपने ज़िन्दा या मुर्दा माँ बाप की तरफ से ज़िबह करे और हुज़ूर सय्यिदे आलम अहमद मुजतबा मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के नाम से कुर्बानी करना बड़ी फज़ीलत है लेकिन जब उस पर खुद कुर्बानी वाजिब है तो यह फज़ीलतें उसी के लिए हैं जो खुद अपनी तरफ़ से पहले करे वरना कुर्बानी न करने का गुनाह होगा।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 140)

ग़ैर ज़रूरी जाहिलाना सवालात

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आजकल अवाम में सवालात मालूम करने का रिवाज़ भी आम हो गया है वह भी अमल व इस्लाह की गरज़ से नहीं बल्कि उलमा को आज़िज़ करने या किसी फ़ासिद मक़सद से।

एक साहब को मैंने देखा कि वह मालदार हो कर कभी कुर्बानी नहीं करते थे और मौलवी साहब से मालूम कर रहे थे हज़रते इस्माईल अलैहिस्सलाम की जगह जिबह करने के लिए जो दुम्बा लाया गया था वह नर था या मादा और उसका गोश्त किसने खाया था वहीं उन्हीं के जैसे दूसरे साहब बोले कि वह दुम्बा अन्डुआ था या खस्सी?

एक साहब को नमाज़ याद नहीं थी और कुछ भी ठीक से करना नहीं जानते थे और उन्हें जो मौलाना साहब मिलते उनसे यह ज़रूर पूछते थे कि मूसा अलैहिस्सलाम की मां का क्या नाम था? और हज़रते खदीजा रदियल्लाह तआला अन्हा का निकाह किस ने पढ़ाया था?

ग़रज़ कि इस किस्म के ग़ैर ज़रूरी सवालात करने का माहौल बन गया है। अवाम को चाहिए कि तारीख़ी बातों में न पड़ कर नमाज़, रोज़ा वगैरा अहकामे शरअ सीखें और इस्लामी अक़ीदे मालूम करें यही चीज़ें अस्ल इल्म हैं।

और जो बात क़ुरआन व हदीस फ़िक़्ह से मालूम हो जाए तो ज़्यादा कुरेद और बारीकी में न पड़ें न बहस करें अगर अक्ल में न आए तो अक्ल का कुसूर जाने न कि मआज़ल्लाह क़ुरआन व हदीस का या फुक़हाए मुजतहिदीन का।

और ख़्वाहम ख़्वाह ज़्यादा सवालात करने की आदत अच्छी नहीं है। फ़ी ज़माना अमल करने का रिवाज़ बहुत कम है पूछने का ज़्यादा और अन्धा होकर बारीक राहों पर चलने में सख्त ख़तरा है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 138)

नए साल की मुबारकबादियां

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मुसलमानों में अंग्रेजी साल के पहले दिन पहली जनवरी को खुशी मनाने मिठाईयां बांटने मुबारकबादियां देने और भेजने का रिवाज आम हो गया है और तरह तरह की फुज़ूल खर्चियां की जाती हैं।

हालांकि पहली जनवरी हो या पहली अप्रेल (अप्रैल ) 25 दिसम्बर बड़ा दिन हो या गुड फ्राइडे ,इन सब का इस्लाम और मुसलमानों से कोई तअल्लुक नहीं बल्कि इनको अहमियत देना या त्योहार समझना ‘ईसाईयत' है और काफिरों और गैर मुस्लिमों का तरीक़ए कार। मुसलमानों को चाहिए इस्लामी त्योहार मनायें और इस्लामी दिनों को अहमियत दें ईसाईयत न अपनायें कहीं ऐसा न हो कि आपका हश्र ईसाईयों के साथ हो।

हदीस शरीफ़ में है अल्लाह तआला के रसूल सय्यिदे आलम
हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम फरमाते हैं ‘‘जो जिस कौम का तरीक़ए कार अपनाए वह उन्हीं में से है।’’

आजकल मुसलमानों में बच्चों की सालगिरह मनाने रिवाज भी बहुत ज़ोर पकड़ गया है और इसमें गैर जरूरी अख़राजात किये जाते हैं और केक काटे जाते हैं। यह सब भी इस्लामी नुकतए नज़र से कुछ अच्छा नहीं मालूम होता इसमें अंग्रेज़ी तहज़ीब और ईसाईयत की बू आती है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 137)

हमल रोकने न वाली दवाओं और लूप , कन्डोम वगैरा  का इस्तेमाल

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इस्लाम में नसबन्दी हराम है। नसबन्दी का मतलब यह है कि किसी अमल यानी आपरेशन वगैरा के जरिए मर्द या औरत में कुव्वत तौलीद यानी बच्चा पैदा करने की सलाहियत हमेशा के लिए ख़त्म कर देना जैसा कि हदीस शरीफ में है कि जब हज़रते अबूहुरैरा रदियल्लाहु तआला अन्हु ने हुज़ूरे अकरम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम से बर ज़िना से बचने के लिए ख़स्सी होने की इजाज़त चाही तो हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने इस सवाल पर पर उन से रू-गिरदानी फरमाई और नाराज़गी का इज़हार किया।

लेकिन हमल रोकने के ख्याल से आरिज़ी ज़राए व वसाइल इख्तियार करना मसलन , लूप,निरोध वगैरा का किसी ज़रूरत से इस्तेमाल करना हराम नहीं है। दरअस्ल मज़हबे इस्लाम बड़ी हिकमतों वाला मज़हब और क़ानूने फ़ितरत है जो नसबन्दी को हराम फरमाता है क्यूंकि उसमें इन्सान के बच्चा पैदा करने की कुदरती सलाहियत व कुव्वत को ख़त्म कर दिया जाता है। कभी यह भी हो सकता है कि माँ,बाप नसबन्दी करा बैठते हैं। और जो बच्चे थे वह मर गए ऐसा हो भी जाता है तो सब दिन के लिए औलाद से महरूमी हाथ आती है। कभी ऐसा भी होता है कि औरत ने नसबन्दी कराई और उसके शौहर का इन्तिकाल हो गया या तलाक हो गई अब उस औरत ने दूसरी शादी की और दूसरा शौहर अपनी औलाद का ख्वाहिशमन्द हो। यह भी हो सकता है मर्द ने नसबन्दी कराई अब उसकी औरत फ़ौत हो गई या तलाक हो गई वह दूसरी शादी करता है अब नई बीवी औलाद की ख्वाहिशमन्द हो।

खुलासा यह कि बच्चा पैदा करने की सिरे से सलाहियत खत्म कर देना किसी तरह समझ नहीं आता और इस्लाम का क़ानून बेशुमार हिक़मतों का खज़ाना है। अलबत्ता आरिज़ी तौर से बच्चों की विलादत रोकने के ज़राए व वसाइल को इस्लाम मुतलक़न हराम फ़रमाता । इस में भी बड़ी हिक़मत है क्योंकि कभी ऐसा हो जाता है कि औरत की सेहत इतनी खराब है कि बच्चा पैदा करना उसके बस की नहीं बल्कि कभी कुछ औरतों के बच्चे सिर्फ ऑपरेशन से ही हो पाते हैं और दो या तीन बच्चों की विलायत के बाद डॉक्टरों ने कह दिया कि आइन्दा ऑपरेशन में सख्त खतरा है तो आरिज़ी तौर पर हमल को रोकने के ज़राए का इस्तेमाल गुनाह नहीं है। हदीस शरीफ में है:-

 हज़रत जाबिर रदियल्लाहु तआला अन्हु फरमाते हैं कि हम लोग नुज़ूले कुरआन के ज़माने में "अज़्ल"करते थे यानी इन्जाल के वक़्त औरत से अलाहिदा हो जाते थे। यह हदीस बुख़ारी शरीफ व मुस्लिम शरीफ दोनों में है। मुस्लिम शरीफ में इतना और है:-
यह बात हुजूर नबीए करीम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम तक पहुँची तो आपने मना नहीं फरमाया।

अज़्ल से मुतअल्लिक और भी हदीसे हैं जिन से इसकी इज़ाजत का पता चलता है जिनकी तौज़ीह व तशरीह में उलमा का फ़तवा है कि बीवी से इसकी इज़ाजत के बगैर उसकी मर्ज़ी के खिलाफ ऐसा न करे क्यूंकि इसमें उसकी हकतल्फी है।

हज़रत मौलाना मुफ्ती जलालुद्दीन अहमद अमजदी फरमाते है: "किसी जाइज़ मकसद के पेशे नज़र वक़्ती तौर पर ज़्बते तौलीद के लिए कोई दवा या रबड़ की थैली का इस्तेमाल करना जाइज़ है लेकिन किसी अमल से हमेशा के लिए बच्चा पैदा करने की सलाहियत को ख़त्म कर देना किसी तरह जाइज नहीं।"
(फतावा फैज़ुर्रसूल, जिल्द दोम, सफ़हा 580)
इस से यह भी ज़ाहिर है कि वे मकसद ख्वाहम ख़्वाह ऐसा करना भी जाइज़ नहीं।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 136)

साली और भावज से मज़ाक़ करना

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बाज़ लोग साली और भावज से मजाक करते बल्कि उसे अपना हक़ ख्याल करते हैं और उन्हें इस किस्म की बातों से रोका टोका जाए तो कहते हैं कि हमारा रिश्ता ही ऐसा है हालांकि इस्लाम में यह मज़ाक हराम बल्कि सख्त हराम जहन्नम का सामान है। औरतों और मर्दों के दरमियान मखसूस मामलात से मुतअल्लिक गन्दी और बेहूदा बातें ख़्वाह खुले अल्फ़ाज़ में कही जायें या इशारों किनायों में सब मज़ाक हैं और हराम है। हदीस शरीफ़ में जेठ देवर और बहनोई से पर्दा करने की सख्त ताकीद आई है। और जिस तरह मर्दों के लिए साली और भावज से मज़ाक हराम है ऐसे ही औरतों को भी देवर और बहनोई से मज़ाक़ हराम है।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 135)

औलाद को आक़ करने का मसअला

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बाज़ लोग अपनी औलाद के बारे में यह कह देते हैं कि मैंने इसको आक़ कर दिया और उसका मतलब यह ख्याल किया जाता है कि अब वह आक़ की हुई औलाद बाप के मरने के बाद इसकी मीरास से हिस्सा नहीं पाएगी हालांकि यह एक बेकार बात है और आक़ कर देना शरअन कोई चीज़ नहीं है और न बाप के यह लफ्ज़ बोलने से उसकी औलाद जाएदाद में हिस्से से महरूम होगी बल्कि वह बदस्तूर बाप की मौत के बाद उसके तरके में शरई हिस्से की हक़दार है।

हाँ माँ बाप की नाफरमानी और उनको ईज़ा देना बड़ा गुनाह है और जिसके वालिदैन उससे नाखुश हों वह दोनों जहाँ में इताब व अज़ाबे इलाही का हक़दार है और सख़्त महरूम है।

सय्यिदी आलाहजरत रदियल्लाहु तआला अन्हु इरशाद फरमाते हैं : "आक कर देना शरअन कोई चीज़ नहीं न उससे विलायत ज़ाइल हो।"
(फतावा रज़विया,जिल्द 5,सफहा 412)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 135)

सफ़र के महीने का आखिर बुध

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कुछ जगह लोग सफ़र के महीने के आख़िरी बुध के बारे में यह ख्याल करते है कि इस रोज हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के ने मर्ज़ से शिफ़ा पाई थी। लिहाज़ा इस दिन खुशी मनाते हैं। खाने, शीरीनी वगैरा खाते खिलाते हैं, जंगल की सैर को जाते हैं और कहीं पर लोग इसको मनहूस ख्याल करते हैं और बरतन तोड़ डालते हैं हालांकि सफ़र
के आखिरी बुध की कोई अस्ल नहीं। न उस दिन हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के लिए मर्ज़ से सेहतयाबी का कोई सबूत। बाज़ जगह कुछ लोग इस
दिन को मनहूस ख्याल करके बरतनों वगैरा को तोड़ते हैं यह भी फुज़ूलखर्ची और गुनाह है। खुलासा यह कि सफ़र के महीने के आख़िरी बुध की इस्लाम में कोई खुसूसियत नहीं।

(फतावा रज़विया, जिल्द 10, निस्फ़े अव्वल, सफ़हा 117)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 134)
 ओझड़ी खाना
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ओझड़ी और आतें खाना जाइज़ नहीं।
 कुरआन करीम में है।
  तर्जमा : और वह नबी गन्दी चीजें हराम फरमायेंगे।
(कंजूल ईमान ,पारा 9, सुरह अराफ,आयत 157)

और "खबाइस" से मुराद वह चीजें हैं जिनसे सलीमुत्तबअ लोग घिन करें और ओझड़ी और आंतें खाने से भी सलीमुत्तबअ लोग घिन करते है और यह गन्दी चीजें हैं लिहाजा इनका खाना जाइज़ नहीं है।

आलाहज़रत अलैहिर्रहमा ने अपने रिसाले "अलमहुल मलीहा" में इस सब को तसरीह व तफ़सील से बयान फरमाया है।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 134)
हाथ उठा कर या सिर्फ़ इशारे से सलाम का जवाब देना
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सलाम करने या सलाम का जवाब देने में आजकल सिर्फ इशारा कर देना या हाथ उठा देना या थोड़ा सा सर हिला देना काफी राइज हो गया है। हालांकि इस तरह सलाम की सुन्नत अदा नहीं होती और अगर किसी ने सलाम किया और उसके जवाब में सिर्फ यही किया मुँह से वअलैकुमुस्सलाम न कहा तो गुनाहगार भी हुआ।

 आलाहज़रत अलैहिर्रहमा फरमाते हैं।
 "बन्दगी आदाब, तसलीमात वगैरा अल्फाज सलाम से नहीं और सिर्फ हाथ उठा देना काफी नहीं जब तक उसके साथ कोई लफ्ज़ सलाम का न हो।"
(फ़तावा रज़विया, जिल्द 10,निस्फ अव्वल, सफहा 168)

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 133)



दवा खाने पीने से पहले बिस्मिल्लाह न पढ़ना

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यह भी ग़लत और एक जाहिलाना ख्याल है बल्कि दवा खाने पीने से पहले बिस्मिल्लाह ख़ास तौर से ध्यान करके ज़रूर पढ़ना चाहिए ताकि नामे खुदा से जल्द शिफ़ायाब हो क्यूंकि बीमारियां और उनकी शिफ़ा अल्लाह की तरफ से है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 133)

अमरीकन गाय का शरई हुक्म

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अमरीकन गाय के बारे में काफ़ी लोग शुकूक व शुबहात में मुबतला हैं जबकि इस में कोई शक नहीं कि अमरीकन गाय भी बिला शुबहा गाय है उसका खाना हलाल और उसका दूध ,घी,खाना पीना जाइज़ है।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 133)

मर्दों का एक से ज़्यादा अंगूठी पहनना

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इस्लामी नुकतए नज़र से मर्द को चांदी की सिर्फ एक अंगूठी एक नग की पहनना जाइज़ है जिसका वजन साढ़े चार माशे (4.357 ग्राम) से कम हो। इसके अलावा मर्द के लिए कोई ज़ेवर हलाल नहीं। एक से ज़्यादा अंगूठी या कोई ज़ेवर किसी भी धात का हो सब गुनाह व नाजाइज़ है ।

मगर आजकल अवाम तो अवाम बाज़ जाहिल नाम निहाद सूफ़ियों और मुख़ालिफ़के इस्लाम पीरों ने ज़्यादा  से ज़्यादा अंगूठी पहनने को अपने ख्याल में फ़कीरी व तसव्वुफ समझ रखा है यह एक चांदी की शरई अंगूठी से ज़्यादा अंगूठिया पहनने वाले ख्वाह वह सोने की हों या चांदी की या और किसी धात की सब के सब गुनाहगार हैं और इस लाइक नहीं कि उन्हें पीर बनाया जाए। हमारे कुछ भाई तांबे, पीतल और लोहे के छल्ले पहनते हैं और उन्हें दर्द और बीमारी की शिफा ख्याल करते हैं यह भी गलत है।और इलाज के तौर पर भी नाजाइज़ जेवरात छल्ले वगैरा पहनना जाइज़ नहीं है।
(फ़तावा रज़विया, जिल्द 10 , निस्फे अव्वल,सफ़हा 14)

कुछ लोग यह कहते हैं कि यह छल्ला या अंगूठी हम मक्का शरीफ,मदीना शरीफ या अजमेर शरीफ से लाए हैं। अगर वह खिलाफ शरअ है तो मक्के शरीफ, मदीने शरीफ, अजमेर शरीफ के बाज़ार में बिकने से हलाल नहीं हो जाएगी।

भाईयो! आप तो आज वहाँ के बाज़ारों से लाए हैं और यह नाजाइज़ होने का हुक्म चौदा सौ साल कल्ब वहीं से आ चुका है।
      खुलासा यह कि मुक़द्दस शहरों में बिकने से हराम चीज़ हलाल नहीं हो जाती ।
     
         भाईयों! अल्लाह तआला से डरो और नाजाइज़ अँगूठीयां, ज़ेवरात, कड़े, छल्ले पहन कर अल्लाह तआला की नाफरमानी न करो ।
       
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 132)

मुहर्रम व सफ़र में ब्याह शादी न करना और सोग मनाना 

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माहे मुहर्रम में कितनी रसमें, बिदअतें और खुराफ़ातें आजकल मुसलमानों में राइज हो गई हैं उनका शुमार करना भी मुश्किल है। उन्हीं में से एक यह भी कि यह महीना सोग और गमी का महीना है। इस माह में ब्याह शादी न की जायें। हालांकि इस्लाम में किसी भी मय्यत का तीन दिन से ज्यादा गम मनाना नाजाइज़ है और इन अय्याम में ब्याह शादी को बुरा समझना गुनाह है। निकाह साल के किसी दिन में मना नहीं चाहे मुहर्रम हो या सफर या और कोई महीना या दिन।

️आलाहज़रत अलैहिर्रहमतु वर्रिदवान से पूछा गया
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(1) बाज़ अहलेसुन्नत व जमाअत अशरए मुहर्रम में न तो दिन भर रोटी पकाते हैं और न झाडू देते हैं कहते हैं बाद दफ़न ताज़िया रोटी पकाई जाएगी।
(2) दस दिन में कपड़े नहीं उतारते।
(3) माहे मुहर्रम में ब्याह शादी नहीं करते।
(4) इन अय्याम में सिवाए इमाम हसन और इमाम हुसैन रदियल्लाह तआला अन्हुमा के किसी और की नियाज़ व फातिहा नहीं दिलाते यह जाइज़ है या नाजाइज़? तो आप ने जवाब में फ़रमाया पहली तीनों बातें सोग हैं और सोग हराम और चौथी बात जहालत। हर महीने में हर तारीख़ में हर वली की नियाज हर मुसलमान की फातिहा हो सकती है।

(अहकामे शरीअत हिस्सा अव्वल सफ़हा 127)

दर अस्ल मुहर्रम में गम मनाना सोग करना फ़िरक़ए मलऊना शीओं और राफ़िज़ियों का काम है और खुशी मनाना मरदूद ख़ारिजियों का का शेवा और नियाज़ व फातिहा दिलाना, नफ़्ल पढ़ना,रोज़े रखना मुसलमानों का काम है।

यूंही मुहर्रम में ताजियादारी करना, मसनूई करबलायें बनाना , उसमें मेले लगाना भी नाजाइज़ व गुनाह है ।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 131)

ग़ैर मुस्लिमों से गोश्त मँगाने का मसअला

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ग़ैर मुस्लिम की दुकान से गोश्त ख़रीद कर खाना या किसी ग़ैर मुस्लिम से हदिया और तोहफे में कच्चा या पका हुआ गोश्त लेकर खाना हराम है ख़्वाह वह यह कहे कि मैंने जानवर मुसलमान से जुबह कराया था। यअनी मुसलमान का ज़बीहा बताये तब भी उससे गोश्त लेना, ख़रीदना और खाना सब हराम है। हाँ अगर जुबह होने से लेकर जब तक मुसलमान के पास आया हर वक़्त मुसलमान की नज़र में रहा तो यह जाइज़ है।
(फतावा रजविया ज़िल्द 10 निस्फ अव्वल सफ़हा 94)
हाँ अगर गोश्त किसी मुसलमान की दुकान से लाया गया लेकिन खरीद कर लाने वाला नौकर, मजदूर वगैरह कोई ग़ैर मुस्लिम हो और वह कहे कि मैंने यह गोश्त मुसलमान की दुकान से खरीदा है और आप भी जानते हैं कि यह मुसलमान की दुकान से ख़रीदकर लाया है तो उस गोश्त को खाना जाइज़ है।
जामे सगीर में है :
(हिदाया जिल्द 4 सफ़ा 437) बहारे शरीअत हिस्सा 16 सफ़ा 36 पर भी इसकी वजाहत
मौजूद है।
खुलासा यह कि मुसलमान की दुकान का गोश्त जाइज़ है ख्वाह खरीद कर लाने वाला नौकर या मज़दूर ग़ैर मुस्लिम हो और ग़ैर मुस्लिम की दुकान का  गोश्त हराम है ख्वाह ख़रीद कर लाने वाला मुसलमान ही क्यूं न हो और अगर जुबह शरई से लेकर किसी वक़्त मुसलमान की नज़र से गाइब न हुआ तो यह भी जाइज़ है ।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 130)

Sunday


बे औलाद मर्दों और औरतों के लिए ज़रूरी हिदायात

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औलाद दुनिया में अल्लाह तआला की बहुत बड़ी नेमत है। लिहाज़ा जिसको अल्लाह तआला यह नेमत अता फरमाये, उसको चाहिए कि वह खुदाए तआला का शुक्र अदा करे और अगर न दे तो सब्र करे। मगर आजकल कुछ मर्द और औरतें औलाद न होने की वजह से परेशान रहते हैं और इस कमी को ज़्यादा महसूस करते हैं। हालाँकि यह अहले ईमान की शान नहीं। मोमिन को दुनिया और उसकी नेमतों के हासिल होने की ज़्यादा फिक्र नहीं करना चाहिए, ज़्यादा फिक्र व ग़म आख़िरत का होना चाहिए। अगर आपने अपनी आख़िरत सुधार ली तो दुनिया की किसी नेमत के न पाने का ज़्यादा गम नहीं करना चाहिए। औलाद अल्लाह तआला की नेमत ज़रूर है लेकिन समझ वालों के लिए यह बात भी काबिले गौर है कि माल और औलाद को अल्लाह जल्ला शानुहु ने अपने क़ुरआनमें दुनिया की रौनक फ़रमाया, आख़िरत की नहीं।

अल्लाह तआला क़ुरआन करीम में इरशाद  फ़रमाता है
तर्जमा -माल और बेटे दुनियवी ज़िन्दगी का सिंगार हैं और बाकी रहने वाली अच्छी बातें हैं, उनका सवाब तुम्हारे रब के यहां बेहतर और वो उम्मीद में सबसे भली।
(सूरह कहफ़ पारा 16 रुकूअ 18)

कुरआने करीम में माल और औलाद को फितना यअनी आज़माइश भी कहा गया है, जिसका मतलब यह है कि इन चीजों को हासिल करके अगर खुदा व रसूल का हक भी अदा करता रहा तब तो ठीक, और माल व औलाद की महब्बत में अल्लाह तआला व रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम को भूल गया ,हराम व हलाल का फर्क खो बैठा तो यह निहायत बुरी चीजें हैं। अलबत्ता नेक औलाद आख़िरत का भी सरमाया है लेकिन आने वाले जमाने में औलाद के नेक होने की उम्मीदें काफी कम हो गई हैं।

खुदाए तआला के महबूब बन्दों यअनी अल्लाह वालों में भी ऐसे बहुत से लोग हुए हैं जिनके औलाद न थी। सरकारे दो आलम हज़रत रसूले पाक मुहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की सबसे प्यारी बीवी सय्यिदा आइशा सिद्दीका रदियल्लाहु तआला अन्हा के भी कोई औलाद न थी। बल्कि हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की ग्यारह बीवियाँ थीं, जिनमें से आपकी औलाद सिर्फ दो से हुई। सहाबा किराम में हज़रते सय्यिदेना बिलाल हबशी रदियल्लाहु अन्हु भी बेऔलाद थे।

हमारे कुछ भाई और बहनें बेऔलाद होने की वजह से हर वक़्त कुढ़ते रहते हैं और ज़िन्दगी भर दवा दारू और दुआ तावीज़ कराते रहते हैं और लूट खसोट मचाने वाले कुछ डाक्टर व हकीम और करने धरने वाले कठमुल्ले और मियाँ फ़कीर ,उनकी कमज़ोरी से खूब फाइदे उठाते,चक्कर लगवाते यहाँ तक की उन्हें बरबाद कर देते हैं ।

और डाक्टर व हकीमों और करने धरने वालों में आजकल मक्कारों, फरेबकारों की तादाद बहुत बढ़ गई है। कुछ टोका टाकी करने वाली और मशविरे देने वाली बूढ़ी औरतें, उन बेचारों को चैन से नहीं बैठने देतीं। और नये नये हकीमों, डाक्टरों और करने धरने वालों के पते बताती रहती हैं। यहाँ से छूटे तो वहाँ पहुँचे और यहाँ से निकले तो वहाँ फंसे। बेचारों की इसी में कट जाती है।

भाईयो! सब्र से बड़ी कोई दवा नहीं और शुक्र से बड़ा कोई तावीज़ नहीं। इससे हमारा मतलब यह नहीं है कि बेऔलाद दुआ और तावीज़ न करें। बल्कि हमारा मकसद यह बताना है कि थोड़ा बहुत इलाज भी करा लें। और अच्छे भले मौलवी, आलिमोंपीरों फकीरों से दुआ तावीज़ भी करा लें, अगर कामयाबी हो जाये तो ठीक, सुब्हानल्लाह! खुदाए तआला मुबारक फ़रमाये। और न हो तो सब्र से काम लें, खुदाए तआला की इबादत, उसका ज़िक्र और कुरआन की तिलावत में ध्यान लगायें। ज़्यादा हकीमों डाक्टरों और करने वालों के दरवाजों के चक्कर न लगायें और इसमें ज़िन्दगी की कीमती घड़ियों को न गंवायें, आखिर होना वही है, जो खुदाए तआला की मर्ज़ी है।

और एक जरूरी बात यह भी है कि अब करीबे कियामत जो ज़माना आ रहा है, उसमें ज़्यादातर औलाद नअहल निकल रही है और तजुर्बा शाहिद है कि अब औलाद से लोगों को सुकून कम ही हासिल होगा ।और अब बुढ़ापे में माँ बाप को कमा कर खिलाने वाले बहुत कम ,न होने के बराबर और नोच नोच कर खाने वाले ज़्यादा पैदा होंगे। आज लाखों की तादाद में साहिबे औलाद बूढ़े और बुढ़ियें सिर्फ इसलिए भीक मांगते घूम रहे हैं कि उनकी औलाद ने जो कुछ उनके पास था, वह या तो ख़त्म कर दिया या अपने कब्ज़े में कर लिया और मां बाप को भीक मांगने के लिए छोड़ दिया। बल्कि बाज़ तो माँ बाप से भीक मंगवा कर खुद खा रहे हैं और अपने बच्चों को खिला रहे हैं। गोया कि अब माँ बाप इसलिए नहीं हैं कि बुढ़ापे में औलाद की कमाई खायें बल्कि इसलिए हैं कि मरते दम तक उन्हें कमा कर खिलायें ख्वाह इसके लिए उन्हें भीक ही क्यूं न मांगना पड़े।

आज कितने लोग हैं कि उनकी ज़िन्दगी चैन व सुकून और शान के साथ कटी। लेकिन औलाद की वजह से बुरे दिन देखने को मिले। किसी को लड़के की वजह से जेल और थाने जाना पड़ा और पुलिस की खरी खोटी सुनना पड़ीं और किसी की जवान लड़की ने नाक कटवा दी और पूरे घर की इज़्ज़त खाक में मिला दी, चार आदमियों में बैठने के लाइक नहीं छोड़ा।

इस सबसे हमारा मकसद यह नहीं है कि औलाद मुतलकन कोई बुरी चीज़ है या बेऔलाद औलाद हासिल करने के लिए बिल्कुल कोशिश न करें। बल्कि बात वही है जो हम लिख चुके कि खुदाए तआला नेक औलाद दे तो, मुबारक! उसका शुक्र अदा करें और न दे तब भी परेशान न हों। मामूली दवा व तदबीर के साथ साथ सब्र व शुक्र ही से काम लें ।

और यह बता देना भी जरूरी है कि बदमज़हब व बददीन या अल्लाह तआला व रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम और माँ बाप की नाफरमान, बिगड़ी हुई, चोर,डकैत, शराबी, ज़िनाकार, हरामकार,अय्याश व बदमआश औलाद वाला होने से वो लोग बहुत अच्छे हैं, जिनके औलाद नहीं।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 126)

Saturday


 

फ़िल्मी गानों की तर्ज़ पर नातें और मनक़बतें पढ़ना

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आजकल जलसों और मुशाइरों में शाइर व नातख्वाँ लोग फ़िल्मी गानों की तर्ज़ पर उनकी लय और सुर में हम्द, नात व मनकबत पढ़ने लगे हैं हालाँकि यह मना है। उन्हें इन हरकात से बाज़ रहना चाहिए और मुसलमानों को चाहिए कि ऐसे लोगों से हरगिज़ नज़्में न सुनें।

आलाहज़रत इमामे अहले सुन्नत फरमाते हैं
अगर गाने की तर्ज़ पर रागिनी की रिआयत हो तो नापसन्द है कि यह अम्र ज़िक्र शरीफ़ के मुनासिब नहीं।
(फतावा रजविया जिल्द 10  किस्त 2 सफ़ा 185)

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 126)

अज़ीम शख्सियतों को मनवाने का तरीका 

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कुछ लोग जो शख्सियत परस्ती में हद से आगे बढ़े हुए हैं,वो अपनी महबूब और पसन्दीदा शख्सियतों को दूसरों से मनवाने के लिए लड़ाई झगड़ा करते हैं। और जो महब्बत उन्हें है, वो अगर दूसरा न करे तो बुरा मानते और उसे गुमराह और बद्दीन तक ख्याल कर बैठते हैं, और जबरदस्ती उससे मनवाना चाहते हैं। हालांकि महब्बत कभी भी ज़बरदस्ती नहीं पैदा की जा सकती और न सिर्फ़ फ़तवे लगाकर और न उन महबूब बन्दों और बुजुर्गों के नाम के नारे लगा कर और न जोशीली और जज्बाती तकरीरें करके।

बल्कि तरीका यह है कि जो वाकई बुज़ुर्ग साहिबे किरदार अल्लाह वाले लोग हैं यअनी हकीकत में वह इस्लामी नुक़्तए नज़र से अज़ीम शख्सियत के मालिक हैं तो उनका वह किरदार और तरीकए जिन्दगी, कारनामे और दीनी ख़िदमात, खुदातरसी और नफ़्सकुशी संजीदा अन्दाज़ में समझाने के तौर पर तकरीर या तहरीर के ज़रीए लोगों के सामने लाइये और जिन बातों की बुनियाद पर आपको उस साहिबे इल्म व फ़ज़ल से महब्बत है, वो बातें दूसरों को बताइये। अगर वह भी उनका आशिक़ व दीवाना हो जाये तो ठीक और न हो तो कोशिश आपका काम, अब आप जबरदस्ती मनवाने की कोशिश न कीजिए। हाँ जो लोग आमतौर पर बुज़ुर्गों की शान में गुस्ताख़ी करते हैं या ऐसे आलिम व बुज़ुर्ग कि जिनकी बुज़ुर्ग व बरतरी पर पूरी उम्मते मुस्लिमा इत्तिफाक कर चुकी हो उनकी शान में बकवास करते हैं, वो यक़ीनन गुमराह व बददीन हैं। वो अगर समझाने से न समझे तो उनसे दूरी और बेज़ारी ज़रूरी है। और जो गुस्ताखी व बेअदबी न करता हो। लेकिन आपकी तरह अक़ीदत व महब्बत भी न रखता हो तो उसके मुआमले में खामोशी बेहतर है। और उसके ख्यालात बेहतर हैं, इस्लामी हैं तो उसको मुसलमान ही ख्याल किया जाये,और अपना इस्लामी भाई समझा जाये।

इस्लामी शख्सियतों और अपने बुज़ुर्गोंपीरों या मशाइख को दूसरों से मनवाने के लिए सबसे ज़्यादा उम्दा तरीका और बेहतर ढंग आपका किरदार है। आज ऐसे लोग बहुत हैं जो हराम व हलाल में तमीज़ नहीं रखते, नमाजें छोड़ते, गाने , बजाने और तमाशों में लगे रहते हैं, उनकी नियतें ख़राब हो चुकी हैं, उनमें इस्लामी अख़लाक़ नाम की कोई चीज़ नहीं है और फिर ये बुज़ुर्गो के नाम के ठेकेदार बनते हैं, उर्स कराते, मज़ार बनवाते और उनके नाम की लम्बी लम्बी नियाज़े दिलवाते है, उनके नाम पर जलसे, जुलूस और महफ़िलों का इनइकाद करते हैं तो ये लोग कौम को बुज़ुर्गों से करीब करने के बजाय दूर कर रहे हैं और उनके ये ढंग लोगों के दिलों में अल्लाह वालों की महब्बत कभी भी पैदा न कर सकेंगे।

भाईयो! अल्लाह वालों से महब्बत करने वाले और उनकी महब्बत का बीज दूसरों के दिलों में बोने वाले वो हैं जिन्हें देखकर अल्लाह वालों की याद आ जाये। और अल्लाह वाले वो हैं जिन्हें देखकर अल्लाह की याद आ जाये। वरना ये पराये माल पर नज़र रखने वाले हरामखोर बेईमान, नियतख़राब लोग खुदाए तआला के उन बन्दों की अज़मत व इज़्ज़त लोगों के दिलों में नहीं बिठा सकेंगे कि जिन्होंने सब कुछ राहे खुदा में लुटा दिया। और अपना लालच के पिटारे, करोड़पति बनने की तमन्ना रखने वाले मुकर्रेरीन ,शाइरों कव्वालों, नामनिहाद पीरों फकीरों के ज़रीए से अल्लाह वालों की अज़मत व इज़्ज़त के झन्डे नहीं गाड़े जा सकते।

ज़रूरी है कि मुरीद अपने पीर का, शागिर्द अपने उस्ताद का और हर मुअतकिद अपने महबूब का नमूना हो तो तभी उससे अपने शेख और उस्ताद के कारनामे उजागर होंगे और उससे उनकी अज़मत लोगों के दिलों में बैठेगी। और जो लोग किसी बुज़ुर्ग के कारनामे और उसकी इस्लामी खिदमात अपने चाल व चलन किरदार व गुफ्तार के ज़रीए बताये बगैर ज़बरदस्ती उस बुज़ुर्ग शख्सियत को लोगों से मनवाने में लगे हैं, वो कौम में गिरोहबन्दी, तिफ़रक़ाबाजी कर रहे हैं और कौमे मुस्लिम को बिखेर रहे हैं, मुसलमानों को बांट रहे हैं।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 123)

हलाल कमाने और दीनदार बनकर रहने की तरकीब

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जो शख्स हलाल कमा कर और दीनदार बन कर अल्लाह तआला व रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम को राज़ी करना चाहे उसको चाहिए कि फुज़ूलखर्ची से बचे आजकल लोगों ने अपने इखराजात (ख़र्चे) बढ़ा लिये हैं और बेजा शौक और अरमान पूरे करने में लग गये हैं, ये कभी दीनदार नहीं बन सकते।
अगर आप सच्चे पक्के मुसलमान बनना चाहें तो आमदनी बढ़ाने से ज़्यादा फिक्र इख़राजात घटाने की रखिये क्यूंकि इखराजात की ज़्यादाती से आमदनी करने की हवस पैदा होती है और आमदनी करने की हवस इन्सान को बेरहम ज़ालिम और हरामखोर बनाती है - और जिनकी आदत आमदनी से ज्यादा खर्च करने की पड़ गई है, वो कभी चैन व सुकून से नहीं रह पाते, ज़िन्दगी भर परेशान रहते हैं और आमदनी से कम खर्च करने वालों की ज़िन्दगी बड़ी पुरसुकून और बाइज़्ज़त रहती है। और यही लोग वक़्त वे वक़्त दूसरों के भी काम आ जाते हैं।

इन्हीं वुजूहात की बिना पर कुरआने करीम में खुदाए तआला ने फुजूलख़र्च करने वालों को शैतान का भाई फ़रमाया और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया कि सादगी आधा ईमान है। आज साइंस की जदीद ईजादात ने भी इन्सान के इखराजात और उसकी ज़रूरतों को बढ़ा दिया है। इस पर कन्ट्रोल करने की ज़रूरत है। घर गृहस्थी की ज़रूरतों में एक दरमियानी रवय्या अपनाया जाये।

अफसोस कि आज हम दो चार जोड़ी कपड़ों में जिन्दगी
नहीं गुज़ार सकते बल्कि जोडों पर जोड़ें बनाये चले जा रहे हैं। अफसोस कि  आज मजबूत और पक्का मकान बनाकर भी चैन से  नहीं रहते बल्कि उनको सजाने और सँवारने में लाखों लाख रूपया उड़ाये चले जा रहे हैं ।

कुछ लोग शेख़ीख़ोरी की वजह से परेशान रहते हैं, उनकी यह आदत उन्हें ज़हनी सुकून हासिल नहीं होने देती। उन्हें हर वक़्त यह फिक्र रहती है कि अगर हम ऐसा कपड़ा पहन कर जायेंगे या ऐसा मकान नहीं बनायेंगे या ऐसा खाना नहीं खायेंगे और खिलायेंगे तो लोग क्या कहेंगे?

भाईयो! लोगों के कहने को मत देखो बल्कि अपने हाल और आमदनी को देखो। अगर आप पर अभी कोई वक़्त पड़ जाये तो यही मुंह बजाने वाले पास तक नहीं आयेंगे ,क़र्ज़ तक देने को तय्यार नहीं होंगे। हदीस पाक में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया :

"दुनिया में ज़िन्दगी मुसाफिर परदेसी की तरह गुज़ारो और
खुद को कब्र वालों में समझो।’’ (मिश्कात सफ़ा 450)

यअनी मुसाफिर और परदेसी जिस तरह कम से कम सामाने ज़िन्दगी के साथ सफर करता है यूं ही तुम भी दुनिया में एक मुसाफिर की तरह हो।

इस बयान से हमारा मतलब यह नहीं है कि खुदाए तआला हलाल कमाई से दे तो अच्छा खाना और पहनना नाजाइज़ है। बल्कि हमारा मकसद गैर ज़रूरी और फ़ालतू इखराजात से बाज़ रखना है ताकि कहीं आप कमाने की ज़्यादा फिक्र में बेईमान, ख़ाइन और हरामखोर न बन जायें और दीनदारी की ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए इखराजात पर काबू रखना और फुज़ूलखर्चियों से बचना ज़रूरी है।

और इस बारे में जाइज़  व नाजाइज़ की हुदूद जानने के लिए फिक्ह व तसव्वुफ की किताबों का मुतालआ करना चाहिए।खासकर सदरुश्शरीआ हज़रत मौलाना अमजद अली साहब अलैहिर्रहमतु वर्रिदवान की किताब ‘बहारे शरीअत का सोलहवाँ हिस्सा पढ़ लेना एक मुसलमान के लिए फ़ी ज़माना निहायत ज़रूरी है।

हिन्दी पढ़ने वालों की आसानी के लिए बहारे शरीअत का सोलहवाँ हिस्सा ‘इस्लामी अख़लाक व आदाब’ के नाम से हिन्दी मे भी आ चुका है।

आजकल जो बेईमानों, बेरहमी और ज़ुल्म करके कमाने वालों और पराये माल को अपना समझने वाले रिश्वतखोरों की तादाद ज़्यादा बढ़ गई है, यहाँ तक कि वो लोग जो मुआमलात के साफ सुथरे हों, उनकी गिनती अब न होने के बराबर है, इस सबकी ख़ास वजह आजकल बेजा इखराजात और फुज़ूलखर्चियाँ हैं।

खुलासा यह कि हरामखोरी से बचने और दीनदार बनकर जो शख्स ज़िन्दगी गुज़ारना चाहे, उसके लिए फुज़ूलख़र्च से बचना और सादा ज़िन्दगी गुजारना आजकल ज़रूरी है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 121)

हराम तरीके से कमाकर राहे खुदा में ख़र्च करना

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यह बीमारी भी काफी आम हो गई है। लोग कमाते वक़्त यह नहीं सोचते कि यह हराम है या हलाल।झूठ ,फरेब,मक्कारी,
धोकेबाजी, बेईमानी, रिश्वटखोरी सूद व व्याज और मजदूरों की मजदूरी रोक रोक कर कमाते हैं और माल जमा कर लेते हैं और फिर राहे खुदा में खर्च करने वाले सखी बनते हैं, खूब मजे से खाते हैं और यारों दोस्तों को खिलाते हैं, मस्जिद मदरसों और खानकाहों को भी देते हैं, माँगने वालों को भी दे देते हैं। यह हराम कमा कर राहे खुदा में खर्च करने वाले न हरगिज़ सखी है, न दीनदार। बल्कि बड़े बेवकूफ और निरे अहमक हैं। हदीस पाक में है, '‘हराम कमाई से सदका और खैरात कबूल नहीं।"
(मिश्कात बाबुलकस्ब सफ़ा 242)
यह ऐसा ही है जैसे कोई बेवजह जान बूझ कर  किसी की
आंख फोड़ दे और फिर पट्टी बांध कर उसे खुश करना चाहे।
भाईयो! खूब याद रखो अस्ल नेकी और पहली दीनदारी नेक कामों में खर्च करना नहीं है बल्कि ईमानदारी के साथ
कमाना है। जो हलाल तरीके और दयानतदारी से कमाता है और ज़्यादा राहे खुदा में खर्च नहीं कर पाता है वह उससे लाखों दर्जा बेहतर है जो बेरहमी के साथ हराम कमा कर इधर उधर बॉटता फिरता है।

इन हराम कमाने वालों, रिश्वतखोरों, बेईमानों, अमानत में
ख्यानत करने वालों में यह भी देखा गया है कि कोई मदीना
शरीफ जा रहा है और कोई अजमेर शरीफ और कलियर शरीफ़ के चक्कर लगा रहा है, हालाँकि हदीस शरीफ में है।
हजरत सय्यिदेना मआज़ इब्ने जबल रदियल्लाहु तआला
अन्हु को जब रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने यमन का हाकिम व गवर्नर बना कर भेजा तो आप उनको रुखसत करने के लिए नसीहत फरमाते हुए उनकी सवारी के साथ साथ मदीना तय्यिबा से बाहर तक तशरीफ लाये। जब हुजूर वापस होने लगे तो फ़रमाया कि ऐ मआज़! रदियल्लाहु तआला अन्हु इस साल के बाद जब तुम वापस आओगे तो मुझको नहीं पाओगे बल्कि मेरी क़ब्र और मस्जिद को देखोगे। हज़रत मआज़ रदियल्लाहु तआला अन्हु यह सुनकर शिद्दते फिराक की वजह से रोने लगे तो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम  ने फरमाया : ‘‘लोगों में मेरे सबसे ज़्यादा क़रीब परहेज़गार लोग हैं, चाहें वो कोई हों और कही भी हों।" (मिश्कात सफ़ा 445)

यअनी हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने साफ
तौर पर फरमा दिया कि अस्ल नेकी और दीनदारी और महब्बत,नज़दीकी और पास रहना और हाज़िरी नहीं है बल्कि परहेजगारी यअनी बुरे कामों से बचना, अच्छे काम करना है ख्वाह वो कहीं रह कर हों ।

हज़रते उवैस करनी रदियल्लाहु तआला अन्हु हुज़ूर के
ज़माने में थे लेकिन कभी मुलाकात के लिए हाज़िर न हुए मगर हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम को इतने पसन्द थे कि उनसे मिलने और दुआए मगफिरत कराने की वसीयत सहाबए किराम को फ़रमाई थी।
(सहीह मुस्लिम जिल्द 2 सफा 311)

एक हदीस शरीफ में तो हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने उनके बारे में तो यहाँ तक फ़रमा दिया कि मेरी उम्मत के एक शख्स की शफाअत से इतने लोग जन्नत में जायेंगे कि जितनी तादाद कबीलए बनू तमीम के
अफ़राद से भी ज्यादा होगी।
(मिश्कात बाबुलहौज़ वश्शफाअह सफ़ा 494)

इस हदीस की शरह में उलेमा ने फरमाया कि ’'उस शख्स"
से मुराद हजरत सय्यिदेना उवैस करनी रदियल्लाहु तआला अन्हु है।
(मिरकात जिल्द 5 सफ़ा 27)

इन अहादीस से खूब वाज़ेह हो गया कि अस्ल महब्बत पास
रहना नहीं, हाज़िरी व चक्कर लगाना नहीं, बल्कि वह काम करना है, जिससे महबूब राज़ी हो।

खुलासा यह कि जो लोग नमाज़ और रोज़े व दीगर अहकामे शरअ के पाबन्द हैं, हरामकारियों और हराम कामों से बचते हैं, वो ख़्वाह बुजुर्गों के मज़ारात पर बार बार हाजिरी न देते
हों, वो उनसे बदरजहा बेहतर और महब्बत करने वाले हैं जो
खुदाए तआला  व रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की नाफरमानी करते, हराम खाते और हराम
खिलाते रात दिन गानों, तमाशों, जुए ,शराब और लाटरी
सिनेमों में लगे रहते हैं ख़्वाह हर वक़्त  मज़ार पर ही पड़े रहते हों। अलबत्ता वो लोग जो हज़राते अम्बियाएकिराम और औलियाए इज़ाम की शान में गुस्ताखियाँ करते हैं, बेअदबी से बोलते हैं और उनकी बारगाहों में हाज़िरी को शिर्क व बिदअत करार देते हैं उनके अक़ीदे इस्लामी नहीं, उनकी नमाज़ नमाज़ नहीं ,रोज़े रोज़े नहीं ,उनकी तिलावत  कुआन नहीं, उनकी दीनदारी इत्तिबाए रसूले अनाम नहीं,क्यूंकि अदब ईमान की जान है और बेअदब नाम का मुसलमान है।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 118)


चन्दों की ज़्यादती

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आजकल चन्दे बहुत बढ़ते जा रहे हैं। इन पर रोक लगाना
बहुत जरूरी हो गया है जहाँ तक मदरसों और मस्जिदों का
मुआमला है तो ये कौम की ऐसी जरूरतों में से है कि जिनके
बगैर दीन बाकी नहीं रह सकता। लिहाजा उनके लिए अगर चन्दा लिया जाये तो कुछ हर्ज नहीं।

अलबत्ता गाँव गाँव मौलवियत की पढ़ाई के मदारिस खोलना मुनासिब नहीं है एक जिला में आलिम व फाज़िल बनाने वाले दो चार मदारिस काफी हैं। हाँ । बासलाहियत इमाम मसाजिद में रखे जायें और वह बगैर लम्बी पूरी चन्दे की तहरीक चलाये, इमामत के साथ साथ दो तीन जमाअत तक बच्चों को मौलवियत की इब्तिदाई तालीम दें और फिर बड़े मदरसों में दाख़िल करा दें तो यह निहायत मुनासिब बात है और खाली हाफ़िज़ बनाना और उन्हें इल्मे दीन और लिखने पढ़ने से महरूम रखना और इसी में उनकी उम्र गुजार देना उनके और कौम के हक में अच्छा नहीं है।

हाँ गाँव गाँव इस्लामी मकतब यअनी इस्लामी अन्दाज के
प्राइमरी स्कूल काइम करना बहुत ज़रूरी है जिसमें दीन की
जरूरी तालीम के साथ साथ दुनिया की भी तालीम हो।

मस्जिद की जहाँ जरूरत हो वहाँ अगर कोई सेठ साहब यूँ
ही बगैर दूसरों की मदद के बनवा दें तो वह यकीनन बहुत बड़े सवाब के मुस्तहिक होंगे और ऐसा न हो सके तो मस्जिद के लिए चन्दा करना और मस्जिद बनवाना निहायत बेहतर और उम्दा काम है । लेकिन मस्जिद की तज़ईन और उसकी सजावट और खूबसूरती के लिए गरीब, मजदूर और नादार मुसलमानों पर चन्दे डालना और उन पर गॉव बसती का दबाव बना कर वसूलयाबी करना हरगिज़ मुनासिब नहीं है। दुनिया भर में रसीद बुके लेकर घूमने और गरीब मजदूरों पर दबाव बना कर चन्दा वसूल करने से सादा सी मरिजद में नमाज पढ़ना बेहतर है। इस्लाम में मस्जिद का खूबसूरत होना कुछ भी जरूरी नहीं है। बल्कि पहले के उलेमा ने तो मस्जिदों को सजाने और संवारने से मना फरमाया है, बाद के उलेमा ने भी सिर्फ इजाजत दी है, लाजिम व जरूरी करार नहीं दिया है कि जिसके लिए गाँव गाँव फिरा जाये और दूर दूर के सफर किये जायें या ग़रीबों और मजदूरों को सताया जाये।

यह तो रहा मस्जिदों और मदरसों का मुआमला इसके
अलावा भारी भारी उर्स करने और खानकाहें और मजारात तामीर कराने के लिए चन्दे की कोई जरूरत नहीं है। आपसे जो हो सके अकीदत व महब्बत में हलाल कमाई से कीजिए। दूसरों के ज़िम्मेदार आप नहीं हैं अगर दो चार आदमी भी यौमे विसाल किसी बुजुर्ग की खानकाह में जाकर कुरआने करीम की तिलावत कर दें और थोड़ा बहुत जो मयस्सर हो वह उनके नाम पर उनकी रूह के ईसाले सवाब के खिलायें, पिलायें तो यह मुकम्मल उर्स है, जिसमें कोई कमी नहीं है।
और बखुशी बुज़ुर्गाने दीन के नाम पर जो कोई कुछ करे वह यकीनन इन्हदल्लाह माज़ूर है और सवाब का मुस्तहिक़ है।
 जलसे और जुलूस और कान्फ्रेन्सों के नाम पर भी चन्दों को एक मखसूस व महदूद तरीका होना चाहिए क्यूंकि आज हिन्दुस्तान में कौमे मुस्लिम बदहाली और बेरोजगारी का शिकार है। गरीबों,मजदूरों और छोटे छोटे किसानों से चन्दे के नाम पर जबरन रकम वसूल करके 10,-10, 20-20 और 50-50 लाख की हती रखने वाले पेशावर मुकर्रिरों और शाइरों को नज़राने के नाम पर लम्बी लम्बी रकमें भेंट चढ़ाना कौम के हक में कुछ बेहतर नहीं है।

 टैन्ट और डेकोरेशन वालों को भरने के लिए घर घर चन्दा
करते घूमना अक्लमन्दी नहीं है। हॉ कीजिए और मखसूस व
महदूद तरीके से एक दाइरे में रह कर कीजिए और जब जरूरत हो तब कीजिए।

और आजकल तो जलसे मुशाइरे बन कर रह गये और जो मुक़र्रेरीन हैं उनमें भी अकसर वाज़ व नसीहत वाले नहीं रंग व रोगन भरने वाले ज़्यादा हैं। और यह लम्बे लम्बे नज़राने पहले से तय करने वाले मुक़र्रेरीन व शाइरों को दूर दूर से बुलाना और उनके नखरे और ठस्से उठाना, बड़े पैमाने पर लाइट व डेकोरेशन सजाना ज्यादातर नाम व नमूद के लिए हो रहा है जो रियाकारी और दिखावा मालूम होता है और रियाकारी का कोई सवाब नहीं मिलता बल्कि अज़ाब होता है।

खुब पब्लिक जुटाने और मजमा बढ़ाने, मुकर्रीरो शाइरों से
तारीफ़ व तौसीफ सुनने के लिए हो रहा है। और जहाँ नाम व नमूद हो, रियाकारी और दिखावा हो, वहाँ चन्दे देने और दिलाने कुछ भी सवाब नहीं है। कमेटी वालों का मकसद सिर्फ यही है कि पब्लिक खूब आ जाये ख़्वाह उन्हें कुछ हासिल हो न हो । बल्कि बाज़ बाज़ जगह तो ये जलसे कराने वाले कमेटियों सदर, सेक्रटरी खजांची ऐसे तक हैं कि कौम से चन्द करके जलसे कराते हुए उन्हें मुद्दत हो गई मगर खुद भी नमाज़ी और दीनदार नहीं बन सके हैं।

शराब, जुआ, लाटरी और सिनेमा के शौक तक उनसे नहीं
छूट सके बल्कि अब तो बाज जगह जलसों के नाम पर चन्दा करके और थोड़ा खर्च करके लम्बी लम्बी रकम बचाने की रिपोर्ट भी मिल रही हैं।

इस सबको लिखने से हमारा मतलब यह नहीं है कि जलसे
बन्द कर दिये जाये। बल्कि जलसे किये जायें मुख्लिस वाएज़ीन व मुक़र्रेरीन  से तकरीरें कराई जायें। नातख्वानी के लिए कुर्ब व जवार के किसी खुशगुलू से एक दो नाते पटवाई जायें। पेशावर शाइरों और मुकर्रिरों को चन्दे करके  लम्बी लम्बी रकमें न दी जायें और ये सब न हो सके तो जलसे करना कोई फर्ज वाजिब नहीं हैं। मस्जिदों में बासलाहियत इमाम रखे जायें और वह नामाज़े  जुमा वगैरह में वअज़ व तकरीर करें और लोगों को उलेमाए अहले सुन्नत की किताबें पढ़ने की तरगीब दिलायें।

लड़कियों की शादी के लिए भी चन्द करने की बीमारी आम
हो गई है। हालांकि यह चन्दा गैर जरूरी इखराजात (ख़र्च) और शादी में नामवरी कमाने के लिए होता है।

इस्लाम में न जहेज़ (दहेज़) वाजिब है, न बारात को खाना खिलाना। इसमें दखल लड़के वालों की ज़्यादती का भी है।

खुलासा यह है कि बिल्कुल सादा निकाह भी कर दिया जाये
तो यह बिला शुबह जाइज़ बल्कि आज के हालात के मुनासिब है।

लड़कियों की शादी के लिए भीक मांगने वाले अगर भीक
माँगने के बजाय किसी ऐसे के साथ बेटी का निकाह कर दें, जो दूसरी शादी का ख्वाहिशमन्द हो और दो औरतों का कफ़ील हो सके या तलाक दे चुका हो या उसकी बीवी मर गई हो या वह गरीब हो या उम्रसीदा हो। और अपनी इन कमज़ोरियों की वजह से शादी में इखराजात का तालिब न हो, जैसा कि आजकल माहौल है तो यह उनके लिए भीक माँगने से हजारों दर्जे बेहतर है क्यूंकि लड़की की शादी के लिए भीक माँगना गुनाह व नाजाइज़ है और जिन लोगों का अभी हमने जिक्र किया है, उनके साथ निकाह बिला शुबह जाइज़ है। हॉ बगैर सुवाल करे कोई खुद ही से किसी की मदद करे तो इसमें कोई रोक टोक नहीं। लेकिन सुवाल करना और भीक मॉगना, इस्लाम में सिवाय चन्द मखसूस सूरतों के जो अहादीस व फ़िक़्ह की किताबों में मजकूर हैं, हराम है। और जो सूरतें मजकूर हुई, उनमें शादी ब्याह के गैर ज़रूरी मरासिम अदा करना हरगिज शामिल नहीं।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 114)

Tuesday

चापलूसी पसन्द मुतवल्ली और मुहतमिम

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बाज़ जगह कुछ मस्जिदों के मुतावल्ली और और मदरसों के मुहतमिम का यह मिजाज़ बन गया है  की उन्हें अच्छे भले पढ़े लिखे बासलाहियत और दीनदार इमाम और मुदर्रिस अच्छे नहीं लगते,उनसे उनकी नहीं पटती।वह अच्छे लगते हैं, जो उनकी चापलूसी करते हैं, उनकी हाँ में हाँ मिलाते हैं, जब वह तशरीफ़ लाये तो उन्हें अपनी मसनद पर बिठायें, खुद एक तरफ को खिसक जाये और कभी कभी बे ज़रूरत उनकी डाँट और फटकार भी सुन लें। ऐसे मुदर्रिस और इमाम आज के बाज़ मुतावल्लियों और मुहतमिमों को बहुत अच्छे लगते हैं ख्वाह वह कुछ जानते हों या न बच्चों को पढ़ाते हों, उन्हें इससे कोई मतलब नहीं, बस उनकी खुशआमद करते रहें।

दरअसल ऐसे मुतावल्ली और मुहतमिम इस्लाम की बरबादी का सबब हैं और उन्होंने मस्जिदों को वीरान कर रखा है और मदरसों का तालीमी मेयार बिल्कुल खत्म कर दिया है और इस बरबादी की पूछ गछ उनसे क़ियामत के रोज़ बड़ी सख्ती के साथ होगी।

दुआ है कि खुदाए तआला उन्हें होश अता फरमाये और ज़ात और नफ़्स से ज़्यादा उन्हें दीन और उसकी तरक्की से प्यार हो जाये, ख़्याल रहे कि इमामों, आलिमों, मौलवियों को परेशान करने वाले दुनिया व आख़िरत में ज़लीलव रूसवा होंगे।

यह भी बैठकर रोने की बात है कि आज बाज़ मदरसों में चन्दा कर लेना मकबूलियत का मेयार बन गया है । जो घूम फिर कर ज्यादा से ज्यादा चन्दा  लाकर जमा कर दें वह महबूब व मक़बूल हैं और भले सच्चे, पढ़े लिखे, काबिल, बासलाहियत आलिम साहब बेचारे गिरी नज़रों से देखे जा रहे हैं।

हदीसें पाक में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने क़ियामत की निशानियों में से एक बात यह भी फरमाई थी कि "जब मुआमलात नाअहलों के सुपुर्द किये जाने लगें। "

    यह आज खूब हो रहा है।अहले इल्म व फ़ज़्ल को कोई पूछने वाला नहीं और नाअहल बेइल्म चापलूस खुशामदी बातें बनाने वाले मसाजिद व मदारिस, मराकिज़ व दफातिर पर कब्ज़ा जमाये बैठे हैं।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 113)

क्या नक़द और उधार की अलग अलग कीमत रखना मना है?

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अगर कोई शख्स अपना माल किसी के हाथ बेचे और यह कहे कि अगर अभी कीमत अदा कर दोगे तो इतने में और उधार खरीदोगे तो इतने पैसे होंगे। मसलन अभी 300 रुपया है और उधर खरीदोगे पैसे बाद में अदा करोगे तो 350 रुपये देना होंगे, तो यह जायज है इसको कुछ लोग नाजायज ख्याल करते हैं और सूद समझते हैं यह उनकी गलतफहमी है यह सूद नहीं है ।

 
हाँ अगर खरीदारी के वक्त इस बात को खोला नहीं और माल 300 रुपये में  फरोख्त कर दिया और रकम अदा करने में उसने देर की तो उससे पैसे बड़ा कर वसूल किये मसलन 350 रुपये लिये तो यह सूद हो जायेगा। मतलब यह है कि उधार और नकद का भाव अगर अलग अलग हो तो खरीदारी के वक़्त  ही इसकी वजाहत कर दे बाद में उधार की वजह से रकम बड़ा कर लेना  सूद और हराम है। ,
(फतावा रज़विया ,जिल्द 17, सफ़हा 97,मतबूआ रज़ा फाउन्डेशन, लाहौर ,   फतावा फैज़ुर्रसूल, जिल्द 2 सफ़हा 380  )
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 112)


रात को देर तक जागना और सुबह को देर से उठना

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आजकल रातों को जागने और दिन को सोने का माहौल बनता जा रहा है ।हालांकि क़ुरआने करीम की बाज़ आयात का मफ़हूम यह है कि हमने रात आराम के लिए बनाई और दिन काम करने के लिए। इस्लामी मिजाज़ यह है कि रात को ईशा की नमाज पढ़कर जल्दी सो जाओ और सुबह को जल्द उठ जाओ । ईशा की नमाज के बाद गैर ज़रूरी फालतू दुनियवी बातें करना मकरूह व ममनूअ है।
हदीस शरीफ में है
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ईशा की नमाज से पहले सोने और ईशा की नमाज के बाद बातचीत करने को नापसंद फरमाते थे यह हदीस बुखारी में भी है और मुस्लिम में भी।
(मिश्क़ात बावे तअजीलूस्सलात, फ़स्ले अव्वल, सफहा 60)
बाज़ मुदर्रिसीन और तलबा को देखा गया है कि वह रात को किताबें देखते हैं और काफी काफी रात तक किताबों और उनके हाशिये में लगे रहते हैं और सुबह की फजर की नमाज कजा कर देते हैं या नमाज पढ़ते भी हैं तो इस तरह की घड़ी देखते रहते हैं जब देखा कि दो-चार मिनट रह गए हैं और पानी सर से ऊंचा हो गया तो उठे हैं और जल्दी-जल्दी वुज़ू करके नमाज़ में  परिंदों की तरह चार चोंचें मारकर मुसल्ले से अलग हो जाते हैं
ऐसी नमाज़ को हदीसे पाक में हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने मुनाफ़िक़ की नमाज फरमाया और उनमें के वह लोग जो नमाज़े छोड़ने या बेजमाअत के तंग वक़्त में मुनाफ़िक़ की सी नमाज़ पढ़ने के आदी हो गए हैं, उनके रात रात भर के मुतालेअ और किताबें देखना ,उन्हें नमाज़ की काहिली  और सुस्ती के अज़ाब से बचा न सकेंगे।

दरअसल ये वह लोग हैं जो किताबें पढ़ते हैं मगर नहीं जानते कि इल्म क्या है। ये तलबीसे इब्लीस के शिकार है और शैतान ने इन्हें धोके में ले रखा है कुछ का कुछ सुझा रखा है । ऐसे ही वो वाएज़ीन व मुकररेरीन,जलसे  करवाने वाले और जलसे करने वाले, तकरीरें करने वाले और सुनने और सुनाने वाले ,इस ख़याल में ना रहे हैं कि उनके जलसे उन्हें नमाज़े छोड़ने के अज़ाब से निजात दिलायेंगे । होश उड़ जायेंगे बरोज़े क़ियामत नमाजों में लापरवाही करने वालों के, और जल्दी-जल्दी मुनाफ़िक़ों  की सी नमाज़ पढ़ने वालों के चाहे यह अवाम हो या खवास , मुकर्रीर हो या शाइर, मुदर्रिस हो या मुफ्ती, सज्जादा नशीन हो या किसी बड़े बाप के बेटे या बड़ी से बड़ी  खानकाह के मुजाविर ।  और बरोज़े क़ियामत जब नमाज़ों  का हिसाब लिया जाएगा तो पता चलेगा कि कौन कौन कितना बड़ा खादिमे दीन और इस्लाम  का ठेकेदार था?
खुलासा यह कि रात को देर तक जागने और सुबह को देर से उठने की आदत अच्छी नहीं । हाँ अगर कोई शख्स इल्मे दीन के सीखने या सिखाने या इबादत व रियाज़त में  रात को जागे और फज्र की नमाज़ भी एहतिमाम के साथ अदा कर ले तो वह मर्दे मुजाहिद है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 110)

अमानत में तसर्रूफ़
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आजकल अमानत में तसर्रूफ़ आम हो गया है। उमूमन ऐसा होता है कि एक शख्स ने दूसरे के पास कोई रकम ,रुपया, पैसा बतौरे अमानत रख दिया और वह उसकी इज़ाज़त के वगैर उसमें से यह सोचकर ख़र्च कर देता है या तिजारत में लगा देता है कि देने वाले को मैं अपने पास से दे दूँगा  या अभी निकाल लूँ फिर बाद में पूरे कर दूँगा, यह सब गुनाह है और ऐसा करने वाले सब गुनाहगार हैं ख्वाह वह बाद में वह रकम उसे पूरी वापस कर दें क्योंकि अमानत में तसर्रुफ़ की इजाज़त नही ।

मस्जिदों के मुतवल्लियों और मदरसों के मुहतमिमों में देखा गया है कि वह चंदे के पैसों को इधर से उधर करते रहते हैं । कभी खुद अपनी ज़रूरतों में खर्च कर डालते हैं और ख्याल करते हैं हैं कि बाद में पूरा कर देंगे , यह सब खुदा के यहां पकड़े जायेंगे।

कुछ मुत्तक़ी , परहेज़गार व दीनदार बनने वाले तक इन बातों का ख्याल नहीं रखते और हराम को हलाल की तरह खाते हैं और अमानत में तसर्रूफ़ ही आदमी को एक दिन नियत ख़राब और खयानत करने वाला बना देता है । यह सोचकर खर्च कर लेता है कि बाद में अपने पास से पूरा कर दूंगा और फिर नियत खराब हो जाती है और फिर बड़े-बड़े परहेज़गार हरामखोर हो जाते हैं और खुदा के अज़ाब की फिक्र किये बगैर पराए माल को अपने की तरह खाने लगते हैं।

फ़तावा आलमगीरी में है
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एक शख्स ने मस्जिद बनवाने के लिए चंदा किया उसमें से कुछ रकम अपने लिए खर्च कर ली फिर इतनी ही रकम अपने पास से मस्जिद में खर्च कर दी तो ऐसा करना उसके लिए जाइज़ नहीं।
(फतावा रज़विया, जिल्द 8,सफहा 29, फतावा आलमगीरी, जिल्द 2, किताबुल वक़्फ़, बाब 13, सफहा 480)
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आला हज़रत इमामे अहले सुन्नत फरमाते हैं
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ज़रे अमानत में तसर्रुफ़ हराम है,यह उन मवाज़ेअ में है जिनमे दराहिम व दनानीर मुतअय्यिन होते हैं।उसको जाइज़ नहीं कि उस रुपये के बदले दूसरे रुपये रख दे अगरचे बेऐनेही वैसा ही हो । अगर करेगा, अमीन न रहेगा ।
फिर आगे खास मदरसों के मुहतमिम हज़रात के बारे में फरमाते है
मोहतमिमाने अंजुमन ने अगर सराहतन भी इजाज़त दे दी हो कि तुम जब चाहना ख़र्च कर लेना फिर उसका इवज़ दे देना, जब भी न उसको तसर्रुफ़ जाइज़ न मुहतमिमों को इजाज़त देने की इजाज़त कि मुहतमिम मालिक नहीं और क़र्ज़ तबर्रुअ है और gaire मालिक को तबर्रुअ का इख्तियार नहीं। हाँ चंदा देने वाले इजाज़त दे जायें तो हर्ज नहीं ।
(फतावा रज़विया, जिल्द 8, सफहा 31)
पहले अमानत रखने वाले मुसलमानों का तरीका था कि वह थैलियां रखते और हर अमानत अलग-अलग एक थैली में महफूज रखते और फिर जो लिया था, खास उसी को लौटा देते।
भाइयों! ऐसे ही तरीके अपनाओ अगर कुछ आख़िरत की भी फिक्र है , वरना आज तसर्रूफ़ करने वाले होंगे और कल खाइन व  नियत खराब क्योंकि हर नफ़्स के साथ शैतान लगा हुआ है
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 108)


महफिले मीलाद में ज़िक्रे शहादत 

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कुछ लोग महफिलें मीलाद मेंहज़रत सय्यिदिना इमामे हुसैन  रदियल्लाहु तआला अन्हु और आप के भाइयों , भतीजो और भांजे की शहादत के वाकिआत बयान कर देते हैं हालांकि यह मुनासिब नहीं है।
       महफ़िले मीलाद , रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम कि विलादत की खुशी की महफिल है इसमें ऐसे वाकिआत बयान नहीं करना चाहिए जिनको सुनकर रंज व मलाल, गम और दुख हो ।
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आला हज़रत इमामे अहले सुन्नत फ़रमाते है:
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उलेमाए किराम ने मजलिसे मीलाद शरीफ में ज़िक्रे शहादत से फरमाया है कि वह मजलिसे सुरूर है जिक्रे हुज़्न मुनासिब नहीं।
(अहकामे शरीअत, हिस्सा 2,सफ़हा 145)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 108)