Monday

दो बे सनद हदीसे

⏬⏬⏬⏬⏬
वतन की मोहब्बत ईमान से है।
जाबेह बकर और कातेअ शजर वाली हदीस यानी जिस हदीस में गाये ज़िबह करने वाले या पेड़ काटने वाले की बख्शिश नहीं बयान किया जाता है।
आला हजरत फरमाते है:
⤵️⤵️⤵️⤵️⤵️⤵️⤵️
वतन की मोहब्बत ईमान का हिस्सा है न हदीस से साबित है न हर गिज़ उस के यह मअना
(फतावा रज़विया जदीद जि.15 स292)
और फरमाते हैं:
⤵️⤵️⤵️⤵️
जिबह का पेशा शरअन मम्नूअ नहीं न उस पर कुछ मुवाखिज़ा है वह जो हदीस लोगों ने दरबार-ए-जाबेह बकर व कातिअए  शजर बना रखी है महज़ बातिल व मोज़ूअ है।
(फतावा रज़विया जदीद जि.20स.250)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 199)

Tuesday

रिशवत लेने और देने का मसअला

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
हदीस पाक में है:-}रसलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने रिशवत देने और लेने वाले पर लअनत फ़रमाई। (मिश्कात,बाब रिज़्क़ुलवला,सफहा 326)

लेकिन यह रिशवत लेने देने की चार सूरतें हैं।
(1) कोई मनसब या ओहदा कबूल करने के लिए रिशवत
देना और लेना दोनों हराम हैं।
(2) अपने हक में फैसला कराने के लिए हाकिम को रिशवत दे यह भी दोनों के लिए हराम है ख्याह वह फैसला हक़ पर हो या न हो क्योंकि फैसला करना हाकिम की ज़िम्मेदारी है इसके लिए इसको कुछ लेना या किसी का उस को कुछ देना हराम है। अफसरों को कोई काम करने के लिए कुछ माल देना और उनका लेना दोनों हराम हैं।
(3) अपने जान व माल इज़्ज़त व आबरू की हिफाज़त के लिए किसी ज़ालिम को कुछ देना पड़ जाये तो यह देना जाइज़ है लेकिन लेने वाले के लिए यह भी हराम है। मैं समझता हूँ कि इस का मतलब यह है कि अगर कोई शख्स आप को गाली गलोज करता हो,लूटने मारने की धम्की देता हो,उस वक़्त उसको कुछ देकर आप अपने जान व माल की हिफाज़त कर लें तो यह जाइज़ है हाकिमों अफसरों को जो कुछ दिया जाता है यह तो बहरहाल सब रिशवत है और हराम है ख्वाह अपना हक़ हासिल करने या अपने हक़ में सही फैसला कराने के लिए दे क्योकि हक़ फैसला करना इस की डियूटी है।
(4) किसी शख्स को इसलिए रिशयत दी कि वह उसको बादशाह या हाकिम तक पहुँचा दे तो यह देना जाइज़ है
लेकिन लेने वाले के लिए हराम है।(फतावा रज़विया जदीद
जि.18 स.496,शरह सही मुस्लिम मौलाना गुलाम रसूल
सईदी. जि5. स.70)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 197)

Thursday



  दलाली का पेशा

   ⏬⏬⏬⏬⏬
बेचने और खरीदने वाले के दरमियान सौदा कराने वाले को दलाल कहते हैं इस मुआमले में उस को कुछ मेहनत और दौड़ धूप भी करना पड़ती है वक़्त भी खर्च होता है लिहाज़ा वह उसकी उजरत ले सकता है बेचने वाले से या खरीद ने वाले से या दोनों से जैसा भी वहाँ रिवाज़ हो हर तरह जाइज़ है लेकिन यह पेशा कोई अच्छा काम नहीं अगचे हराम व नाजाइज़  भी नहीं ।
(शामी जि.7स.93बहारे शरीअत ,जि.11स639 मकतबतुल मदीना)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 197)

Monday

बुज़ुर्गों के नाम के चिराग जलाना

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
आज कल इस का काफी रिवाज़ हो गया,किसी बुज़ुर्ग के नाम का चिराग जला कर उस के सामने बैठते हैं। यह गलत है हाँ अगर इस चिराग जलाने का कोई मकसद हो इस से किसी राह गीर वगैरा को फाइदा पहुँचे या दीनी तालीम हासिल करने पढ़ने पढ़ाने वालो को राहत मिले या किसी जगह ज़िक्र व शुक्र इबादत व तिलावत करने वालों को इस से नफ़अ पहुँचे तो ऐसी रोशनियाँ करना बिलाशुबह जाइज़ बल्कि कारे सवाब है और जब इस में सवाब है तो उस से किसी बुज़ुर्ग की रूहे पाक को सवाब पहुँचाने की नियत भी की जा सकती है आमाल और वजाइफ की किताबों में जो आसेब वगैरा के इलाज़ के लिए छोटा चिराग और बड़ा चिराग रोशन करने के लिए लिखा है वह अलग चीज़ है वह किसी बुज़ुर्ग के नाम से नहीं रोशन किया जाता।
खुलासा यह है कि यह जो हुज़ूर गौसे पाक रदियल्लाहु तआला अन्हु वगैरा किसी बुज़ुर्ग के नाम के चिराग जला कर उस के सामने बैठने का मामूल है यह बे सनद बे सुबूत बे मकसद है और बे असल है।
हदीस पाक में है हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि
वसल्लम ने फरमायाः
जो हमारे दीन में कोई ऐसी बात निकाले जिस की उस
में असल न हो तो वह कबूल नहीं है।
(इब्ने माजा 3 हदीस 17)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 196)

Thursday

माथे या मांग में सिन्दूर

⏬⏬⏬⏬⏬⏬
मुसलमान औरतों को माथे पर सिन्दूर लगाना और सर की मांग में सिन्दूर भरना जाइज़ नहीं क्योंकि यह गैर मुस्लिमों की औरतों में राइज है लिहाज़ा ऐसा करने में उनकी मुशाबहत है और हदीस पाक में है जो जिस कौम की मुशाबहत करे वह उन्हीं में है।
(फतावा अजमलिया,जि.4 स.101)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 196)

Monday

क्या हज़रत फातमा रदियल्लाहु तआला अन्हा की रूह मलकुलमौत ने नहीं क़ब्ज़ की ?

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
कुछ लोग कहते हैं कि ख़ातूने जन्नत हज़रत सय्यदा फ़ातमा ज़हरा रदियल्लाहु तआला अन्हुमा की रूहे मुबारक अल्लाह तआला ने बज़ाते खुद कब्ज़ फ़रमाई मलकुलमौत ने आप की रूह कब्ज़ नहीं की यह बात शायद इसलिए कही जाती है कि हज़रत सय्यदा फातमा रदियल्लाहु तआला अन्हा बहुत बा हया और पर्दे वाली थीं तो मालूम होना चाहिए कि फिरिशते बे नफ्स बे गुनाह और मासूम हैं उन से पर्दा नहीं फिरिश्ते तो उनके घर में उनकी खिदमत के लिए आते रहते थे हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के काशाना-ए-नबूवत में बे शुमार फिरिश्ते ख़ास कर हज़रत जिब्राईल अलैहिस्सलाम अकसर आते जाते रहते थे कभी हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने किसी अपनी ज़ोजए मोहतरमा से नहीं फरमाया कि यह फलाँ फिरिश्ता इस वक़्त मेरे पास है तुम उस से पर्दा करो एक मर्तबा हुज़ूर पाक सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की पहली रफ़ीकाए मोहतरमा सय्यदा ख़दीजातुल कुबरा रदियल्लाहु तआला अन्हा सय्यदा फातमा की वालिदा मोहतरमा भी हैं वह हाज़िरे ख़िदमत थीं हजरत जिब्राईल अमीन हाज़िर हुये तो हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने सय्यदा ख़दीजातुल कुबरा से यह तो फ़रमाया यह जिब्राईल (अलैहिस्सलाम) मेरे पास हैं यह तुम्हें अल्लाह तआला का सलाम पहुँचाने आये हैं, लेकिन यह न फ़रमाया कि तुम उन से पर्दा करो। यह सब बातें अहादीस की किताबों में आसानी से देखी जा सकती हैं और इल्म वालों से छुपी हुई नहीं हैं।
खुलासा यह है कि यह बात बे सनद और रिवयतन सही नहीं कि हज़रत फातमा रदियल्लाहु तआला अन्हा की रूह अल्लाह तबारक व तआला ने बगैर मलकुल मौत खुद कब्ज़ फ़रमाई । मलकुलमौत फिरिश्ते के ज़रीये नहीं
हज़रत बहरुल उलूम से एक मर्तबा यह सवाल किया गया तो उन्होंने जवाब में फ़रमाया तमाम इंसानों की रुह कब्ज़ करने वाले मलकुलमौत हैं कुरआन शरीफ में है।

قل يتوفاكم مالك الموت الذى و كل بكم ثم إلى ربكم ترجعون (السجده-١١)

तर्जमा- तुम सब लोगों की रूह कब्ज करने के लिए मलकुलमौत मुकर्रर हैं। (फतावा बहरुल उलूम 2/76)

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 193)

Friday

खाने के शुरू में नमक या नमकीन 

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
बाज़ रिवायात में है कि जब खाना खाओ तो नमक से शुरू करो और नमक पर ख़त्म करो यह सत्तर बीमारियों का एलाज है।
 कुछ हज़रात इस सुन्न्त की अदायेगी के लिए खाने से पहले और बाद में नमक चाटना ज़रूरी ख्याल करते हैं। हांलाकि इस सुन्नत की अदायेगी के लिए नमक चाटना जरूरी नहीं बल्कि नमकीन खाना पहले और बाद में खाया


जाये तब भी यह सुन्नत अदा हो जायेगी क्योंकि खाने में भी नमक ज़रूर होता है और नमक जिसे अरबी में (मिल्ह) ملح कहते हैं इसके मअना नमकीन और खारी चीज़ के भी आते हैं कुरआन करीम में समन्दर के पानी के लिए फ़रमाया गया।
{هذا ملح اجاج} [ الفرقان 53]

यह खारी है निहायत तल्ख
 (कन्ज़ूल ईमान,सूरह फुरकान,आयत 53)

मौलवी मुहम्मद हुसैन साहब मेरेठी रहमतुल्लाहि तआला अलैहि फ़रमाते हैं कि आला हज़रत के लिए सेहरी में फिरीनी और चटनी लाई गई, मैंने पूछा हुज़ूर चटनी फिरीनी का किया जोड़ | फरमाया नमक से खाना शुरू करना और नमक पर ही ख़त्म करना सुन्नत है इसलिए यह चटनी आई है। (हयाते आला हज़रत, जि.1, स.151 ,मतबूआ बरकात रज़ा पूरबन्दर)

तो आला हज़रत के नज़दीक भी इस सुन्नत की अदायेगी के लिए नमकीन खाना पहले और बाद में खाना काफी है नमक चाटना ज़रूरी नहीं वरना वह चटनी के बजाये नमक मंगवाते।
 अल्लामा आलम फकरी लिखते हैं,हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहु तआला अन्हुमा से मरवी है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि तीन लुकमे नमकीन खाने से पहले और तीन लुक्मे खाने के बाद बनी आदम को बहत्तर बलाओ से महफूज रखते हैं।
(आदाब सुन्नत 94)
 खुलासा यह कि जब दसतर ख्वान पर नमकीन मीठा सब तरह का खाना मौजूद हो तो सुन्नत है नम्कीन खाये फिर मीठा और बाद में फिर नम्कीन और इस सुन्नत की अदायेगी के लिए यही काफी है दसतर ख्वान पर नमक रखने या उसको मंगा कर चाटने की ज़रूरत नही।
 (गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 193)

होली,दीवाली की फातिहा

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
होली,दीवाली यह खालिस गैर मुस्लिमों के त्यौहार है ।इस्लाम और मुसलमानों का उन से कोई तअल्लुक नहीं। मुसलमानों को उन दिनों में ऐसे रहना चाहिए जैसे आज कुछ है ही नहीं और इन दिनों को किसी किस्म की कोई खुसूसियत नहीं देना चाहिए।
कही कही कुछ लोग होली के मौका पर होलिका नाम की औरत की फातिहा दिलाते हैं कुछ लोगों ने होलीका का नाम मुराद बीवी रख लिया है और उस नाम से फ़ातिहा दिलाते हैं और कहते हैं कि होलीका हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम पर आशिक हो गई थी और उन पर ईमान लाई थी तो यह सब गढ़ी हुई हिकायते और झूटी कहानियाँ हैं जिनका हकीकत से किसी किस्म को कोई तअल्लुक नहीं और हरगिज़ होली को कोई हैसियत देते हुये इससे मुतअल्लिक किसी किस्म की कोई फातिहा नहीं करना चाहिए (फतावा बहरुलउलूम जि•1,स•162)
दीवाली के मौके पर कुछ लोग मछली पका कर फातिहा पढ़वाते हैं यह भी गलत हैं कहते हैं कि दीवाली के मौके पर करने धरने और टूटके बहुत होते हैं और मछली पर फातिहा पढ़ने से वह बे असर हो जाते हैं तो यह सब जाहिलाना ख्यालात और वहम परस्ती की बातें और एक मुसलमान को उन सब से बचना ज़रूरी है अगर दीवाली के मौका पर मछली पर फातिहा का रिवाज़ पड़ गया तो कभी यह भी हो सकता है कि घरों को सजाना और रोशनिया करना हिन्दूओं की दीवाली होगी और मछली पर फातिहा मुसलमानों की दीवाली लिहाज़ा इन दिनों में किसी किस्म का कोई नया काम नहीं करना चाहिए और आम हालात में जैसे रहते हैं वैसे ही रहना चाहिए।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 192)

Tuesday

नमाज़ में अत्तहियात वगैरा से पहले बिस्मिल्लाह पढ़ना

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
नमाज में अलहम्दु शरीफ से पहले बिस्मिल्लाह पढना सुन्नत है और उस के बाद जब कोई सूरत शुरू करे तब भी बिस्मिल्लाह पढ़ना मुस्तहब है। उस के अलावा रुक सजदे,कादा वगैरा में बिस्मिल्लाह पढ़ने की इजाजत नहीं। अत्तहियात से पहले या दुआये कुनूत या दुरूद शरीफ और
उस के बाद की दुआ से पहले बिस्मिल्लाह पढ़ना मना है। क्योंकि बिस्मिल्लाह कुरआन की आयत है और नमाज में कियाम की हालत में अलहम्दु शरीफ और उसके बाद किरअत कुरआन मशरुअ है उसके अलावा किरअत मम्नूअ
है। (फतावा रजविया जदीद जि.6,स.350)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 191)

छोटी तकतीअ में कुरआन 

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
कुछ लोग बहुत ज़्यादा बारीक ख़त में लिखे हुये और बहुत छोटे साइज़ में कुरआन छापते हैं जिन्हें हमाइल शरीफ कहा जाता है बच्चों के गले में डालने के लिए तावीज़ की तरह पूरे कुरआन को बहुत बारीक और छोटा कर देते हैं यह नाजाइज़ है।
दुर्रे मुख्तार में हैः                                                                        يكره تصغير مصحف

यानी कुरआने करीम को छोटा बनाना  मकरूह है।
(दुर्रे मुख्तार ,किताब हजर वल इबाहत फस्ल फिलबैअ,जि.2 ,स.245) ।
आला हज़रत फरमाते हैं:
हजरत उमर फारूके आज़म रदियल्लाहु तआला अन्हु ने एक शख्स के पास कुरआन मजीद लिखा हुआ देखा है। इसको मकरूह रखा और उस शख्स को मारा।(फतावा रज़विया,जि.4,स.610)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 191)

गुर्दे खाने का मसअला

⏬⏬⏬⏬⏬⏬
गुर्दे खाना जाइज़ है लेकिन हुज़ूर अकदस सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने पसन्द न फरमाया इस वजह से कि पेशाब इसमें हो कर मसाने में जाता है ।
(अलमलफूज़ स.341 रज़वी किताब घर देहली)
इस का खुलासा यह है कि हलाल जानवर के गुर्दे खाये जा सकते हैं उन्हें खाना हराम नहीं लेकिन हजुर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम को ना पसन्द थे इसलिए न खाना बेहतर है ।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 191)

Sunday

तीजे के चनों का मसअला

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
न्याज व फातिहा तीजे दसवीं,चालीसवीं,और तबारक वगैरा यह सब सिर्फ जाइज़ अच्छे और मुस्तहब काम हैं न शरअन फ़र्ज़ हैं न वाजिब न सुन्नत कोई न करे तब भी कोई हर्ज व गुनाह नहीं लेकिन आज कल उन कामों को इतना ज़रूरी समझ लिया गया है कि गरीब से गरीब आदमी के लिए भी उन का करना इतना ज़रूरी हो गया है कि ख्वाह कही से करे कैसे ही करे उधार कर्ज़ लेकर मगर करे ज़रूर यह सुन्नियत के नाम पर ज़्यादती हो रही है।

हक यह है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम और आप के सहाबा व ताबेईन के ज़माने में मय्यत को सवाब पहुँचाते और उसकी मगफिरत की दुआ के लिए सिर्फ जनाज़े की नमाज़ होती थी और किसी चीज़ का रिवाज़ न था यह सब काम बहुत बाद में राइज हुये कुछ मौलवियों ने उन्हें एक दम नाजाइज़ व हराम कह दिया सिर्फ इसलिए कि यह सब नये काम है। लेकिन उलमा-ए-अहले हक अहले सुन्नत वलजमाअत ने फरमाया कि यह सब काम अगचें नये हैं मगर अच्छे हैं बुरे नहीं लिहाज़ा जाइज़ हैं मुस्तहब हैं लेकिन उन्होने भी फर्ज़  या वाजिब या शरअन लाज़िम व ज़रूरी नहीं कहा मैंने इस बयान को तफ़सील व तहकीक के साथ अपनी किताब “बारहवीं शरीफ़ जलसे जुलूस"और दरमियान उम्मत में भी
लिख दिया है।
 आज कल बाज़ जगह तो गरीब से गरीब आदमी के लिए भी इस न्याज़ व फातिहा के रिवाज़ो को जो ज़रूरी खियाल किया जा रहा है यह बड़ी ज़्यादती है ।

तीजे के मौके पर जो चनों पर कलमा पढने का मुआमला है इसकी हकीकत सिर्फ इतनी है कि एक हदीस में यह आया है कि जो सत्तर हजार 70000/मर्तबा कलमा पढ़े या किसी दूसरे को पढ़ कर बख्शे तो इस की मगफिरत
हो जाती है।

आला हज़रत फरमाते हैं:
कलमा तय्यबा सत्तर हज़ार(70000) मर्तबा मअ दुरूद शरीफ पढ़ कर बख्श दिया जाये इन्शाअल्लाह पढ़ने वाले और जिस को बख्शा है दोनों के लिए ज़रीआ निजात
होगा। (अलमलफूज, जि.1 ,स.103/मतबूआ रज़वी किताब घर देहली)

 हजरत मौलाना अली कारी मक्की रहमतुल्लाहि तआला अलैहि ने भी मिरकात शरह मिश्कात किताबुस्सलात
बाब मा अललमामूमे मिनलमुताबअत फस्ले सानी, स.102 में इस हदीस को नकल किया है।
 अन्वारे सातिआ स.232/पर भी मिरकात शरह मिश्कात के हवाले से यह सत्तर हजार की हदीस मन्कूल है।
बुज़ुर्गों ने इस गिन्ती को पूरा करने के लिए साढ़े बारा सेर दरमियानी किस्म के चनों का अन्दाजा लगाया था।

आज कल की नई तोल के मुताबिक चुंकि “किलो इस सेर से कुछ छोटा होता है लिहाजा साढ़े चौदह किलो या फिर ज्यादा से ज्यादा पन्द्रह किलो चनों में पूरा सोयम् यानी सत्तर हजार बार कलमा मुकम्मल हो जायेगा।
 बरेली शरीफ से शाइअ फतावा मरकज़ी दारूलइफता में है।
चने की मिक़दार शरअन मुतअय्यन नहीं हाँ हदीस पाक में यह आया है कि "जिस ने या जिस के लिए सत्तर हज़ार कलमा शरीफ पढ़ा गया अल्लाह तआला अपने फज़ल व करम से उसे बख्श देता है। लोगों ने अपनी आसानी के लिए चने इख्तियार कर लिए कि उस में शुमारे कलमा  है और बाद में सदका भी और मशहूर है कि साढ़े बारह सेर चने में यह तादाद पूरी हो जाती है।
(फ़तावा मरकज़ी, दारूलइफता स.302)
कुछ मुल्लाजी लोग 32 बत्तीस किलो चने ख़रीदवाते है यह उन की ज़्यादती है खास कर गरीबों मजदूरों पर तो एक तरह का ज़ुल्म है और वह सोयम के चने पढ़ने की मज्लिस हो या कोई और आम लोगों को जमा कर के बहुत देर तक बैठाना भी इस्लामी मिजाज़ के खिलाफ है।
आला हज़रत फरमाते हैं:
शरीअत मुत्तहरा रिफक व तन्सीर (नर्मी और आसानी)को पसन्द फ़रमाती है न कि मआज़ल्लाह तदीक व तशदीद (तंगी और सख्ती) (फतावा रजविया जदीद11/151)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 188)

Saturday

नूर नामा और शहादत नामे

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
"नूर नामा'नाम से एक किताब उर्दू नज़्म में खूब पढ़ी जाती है उस में हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की पैदाइश का वाकिआ और आप के नूर का किस्सा जिस तरह बयान किया गया है वह बे असल और गलत है किसी मुस्तनद व मोअतबर हदीस व तारीख की किताब में उस का ज़िक्र नहीं ।
ऐसे ही शहादत नामा नाम से जो किताबें हज़रत सय्यदिना इमाम हसन और सय्यदिना इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हुमा के वाकिआत व हालात से मुतअल्लिक राइज हैं वह भी अकसर गलत बे सरोपा वाकिआत व हिकायत पर मुश्तमिल हैं।

आला हज़रत फरमाते हैं:
नूर नामे के नाम से जो रिसाला मशहूर है उस की रिवायत बे असल है उसको पढ़ना जाइज़ नहीं।
(फतावा रज़विया जदीद, जि.26,स.610)

और फ़रमाते हैं:
शहादत नामे नज़्म या नसर जो आजकल अवाम में राइज हैं अकसर रिवायते बातिला व बे सरोपा से ममल और अकाज़ीब मोज़ूआ (गढ़ी हुई झूटी हिकायतें) पर मुश्तमिल हैं ऐसे बयान का पढ़ना सुनना मुतलकन हराम व नाजाइज़ है। (फतावा रज़विया, जदीद जि.24 ,स.513)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 188)

Thursday

क्या कब्र पर तख्ते रखने में मर्द व औरत में फर्क है?

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
कुछ लोग पूछते हैं कि मय्यत को कब्र में रखने के बाद अगर मर्द हो तो तख़्ते लगाना किधर से शुरू करना चाहिए सिरहाने या पाइंती से और औरत के लिए किधर से मसअला यह है कि मर्द हो या औरत तख़्ते सिरहाने से लगाना शुरू करें और दोनों में फर्क समझना गलती है।
(फतावा मुस्तफविया स.271 मतबूआ रज़ा एकेडमी मम्बई)
यानी दोनों के तख्ते सिरहाने से शुरू किये जायें।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 187)

क्या औरत पीर हो सकती है?

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
औरत का पीर बनना मुरीद करना जाइज़ नहीं न मर्दों को न औरतों को। आज कल तो यह तक सुनने में आया है कि औरतें पीर बन कर मुरीदों में दौरे तक करने लगी हैं।

यह सब गलत बातें और औरतों का पीरी मुरीदी करना सही नहीं।
इमाम अब्दुलवहाब शोअरानी अपनी मशहूर किताब मीज़ानुश्शरीअतुल कुबरा में तहरीर फरमाते हैं:
قد اجمع اهل الكشف على اشتراط الذكورة فى كل داع الى    الله
बुज़ुर्गों का इस बाबत पर इत्तिफ़ाक है कि दाई इलल्लाह होने के लिए मर्द होना शर्त है ।
(मीज़ानुश्शरीअतुल कुबरा बाबुल अक़्ज़िया जि.2,स.189)

आज कल औरतों के जलसे हो रहे हैं और औरतों को मुबल्लेगा और मुकर्रिरा बना कर जगह जगह घुमाया जा रहा है यह भी सब मेरी समझ में नहीं आता।
और इमाम अब्दुलवहाब शोअरानी का जो कौल हमने नकल किया उससे भी हमारे ख्याल की ताईद होती है।
वल्लाहु तआला अअलमु 

आला हज़रत फरमाते हैं:
सलफ़ सालेहीन से ले कर आज तक कोई औरत न पीर बनी न बैअत किया 
(फतावा रज़विया जदीद,जि.21,स.494)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 187)

हज़रत बिलाल के अज़ान न देने का वाकिआ

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
हजरत बिलाल रदियल्लाहु तआला अन्हु के मुतअल्लिक एक वाकिआ बयान किया जाता है कि एक मर्तबा कुछ हज़रात ने उन की अज़ान पर एतराज़ किया वह शीन को सीन कहते हैं हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने उन को माजूल कर दिया और किसी दूसरे साहब ने अज़ान दी तो सुबह न हुई जब अज़ान हज़रत बिलाल ने दी तब सुबह हुई।
यह वाकिआ बे असल है मुस्तनद व मोअतबर हदीस व तारीख की किताबों में कही नहीं जो साहब बयान करें। उन से मालूम करना चाहिए कि उन्होंने यह वाकिआ कहाँ देखा। और यह हदीस कि हज़रत रसूल पाक सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमायाः
                                  سين بلال عند الله شين
  बिलाल की सीन भी अल्लाह के नज़दीक शीन है।
     इस हदीस को हज़रत मौलाना अली कारी मक़्क़ी रहमतुल्लाहि तआला अलैहि ने गढ़ी हुई फ़रमाया है।
(मौज़ूआत कबीर स 43,फतावा बहरूल उलूम जि.5,स.380)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज  186)

क्या इमाम के लिए मुकतदियों की नियत करना ज़रूरी है?

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
बाज़ जगह कुछ ना ख्वान्दे जाहिल लोग इमामों को परेशान करते हैं और उन से इमामत की नियत पूछते हैं। हालांकि इमाम के लिए अलग से मुक्तदियों की इमामत की नियत करने की कोई ज़रूरत नहीं।
फतावा आलम गिरी में है:
والا ما ينوى ماينوى المنفرد ولا يحتاج الى نيت الا ماماة
और इमाम भी वही नियत करेगा जो अकेला आदमी नियत करता है और इमाम को इमामत की नियत की कोई ज़रूरत नहीं ।
(फतावा आलम गिरी जि.1,बाब 3,फ़स्ल4,स.66)
और ज़बान से नियत के अल्फाज़ अदा करना तो किसी के लिए भी किसी नमाज़ में ज़रूरी नहीं क्योंकि नियत दिल के इरादा का नाम है। उस की तफ़सील हम ने अपनी किताब
इमाम और मुकतदी में लिखी है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 185)

औरत का कफ़न मैके वालों के ज़िम्मे लाज़िम समझना

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
यह एक गलत रिवाज़ है l यहॉ तक कि कुछ जगह मैके वाले अगर नादार व गरीब हों तब भी औरत का कफन उनको देना जरूरी ख्याल किया जाता है और उनसे जबरदस्ती लिया जाता हैं और उन्हें ख्वाह सताया जाता है  हालाकि इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है ।
मसअला यह है कि मय्यत का कफन अगर मय्यत ने माल न छोडा हो तो जिन्दगी में जिसके ज़िम्मे उसका नान व नफका  था वह कफ़न दे और औरत के बारे में  खास तौर से यह है कि उसने अगरचे माल छोडा भी हो तो तब भी उसका कफन शौहर के जिम्मे है I (बहारें शरीअत हिस्सा 4 सफहा 139)
खुलासा यह है कि औरत का कफन या दूसरे खर्चे मैके वालों के ज़िम्मे ही लाज़िम ख्याल करना और बहरहाल उनसे दिलवाना, एक गलत रिवाज़ है, जिसको मिटाना ज़रूरी है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 59)

मय्यत के बाद और बच्चे की पैदाइश के बाद पूरे घर की पुताई सफाई को ज़रूरी समझना

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
कुछ लोग घर में मय्यत हो जाने या बच्चा पैदा होने के बाद घर की पुताई कराते हैं और समझते है कि घर नापाक हो गया उसकी धुलाई सफाई और पुताई कराना ज़रूरी है I हालाकि यह उनकी गलतफ़हमी है और इस्लाम में ज्यादती हैI यूँ पुताई सफाई अच्छी चीज है ,जब ज़रूरत समझे करायें लेकिन क्या पैदा होने या मय्यत हो जाने की क्या वजह से उसको कराना और लाजिम जानना जाहिलों वाली बातें हैं, जिन्हें समाज से दूर करना जरूरी है ।
 (गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 60)

मय्यत के सर में कंघी करना

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬

कुछ जगह मय्यत को ग़ुस्ल देने के बाद तजहीज़ व तकफीन के वक़्त उसके बालों में कंघी करने लगता हैं, यह मना हैं कि हज़रते सय्यदिना आइशा सिद्दिक़ा रदियल्लाहु अन्हा से मय्यत के सर में कंघी करने के बारे में सवाल किया गया तो आपने मना फ़रमाया कि क्यूँ अपनी मय्यत को तकलीफ पहुँचाते हो।
(फतावा रज़विया ,जिल्द 4,सफहा 33,बहवाला किताब उल आसार इमाम मुहम्मद)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 60)

Wednesday

नमाज़े जनाज़ा में तकबीर के वक़्त आसमान की तरफ मुँह उठाना

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
आजकल काफी लोग ऐसा करते हुए देखे गए हैं कि जब नमाज़े जनाज़ा में तकबीर कही जाती है तो हर तकबीर के वक़्त ऊपर की जानिब मुँह उठाते हैं हालाकिं इसकी कोई अस्ल नही बल्कि नमाज में आसमानकी तरफ़ मुह उठाना मकरूहे तहरीमी है l (बहारे शरीअत) और हदीस शरीफ में है रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया* क्या हाल है उन लोगों का जो नमाज़ में आसमान की तरफ आँखे उठाते हैं इससे बाज़ रहें या उनकी आँखें उचक ली जायेगी* ।
(मिश्कात ब हवाला सहीह मुस्लिम सफ़हा 90)
खुलासा यह कि नमाज़े जनाज़ा हो या कोई और नमाज़ कसदन आसमान की तरफ नज़र उठाना मकरुह है और नमाज़े जनाज़ा मे तकबीर वक़्त ऊपर को नज़र उठाने का जो रिवाज़ पड़ गया है यह गलत है, बे अस्ल है ।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 

मय्यत का खाना

⏬⏬⏬⏬⏬⏬
मय्यत के तीजे, दसवें या चालीसवें वगैरहा के मौके पर दावत करके  खाना खिलाने का जो रिवाज है यह भी महज़ गलत है और खिलाफे शरअ है I हाँ गरीबों और  फकीरों को बुलाकर खिलाने में हरज नही । *आला हज़रत फरमाते हैं मुर्दे का खाना सिर्फ फकीरो के लिए है आम दावत के तौर पर जो करते है यह मना है गनी न खाए*।
(अहकामे शरीअत , हिस्सा दोम, सफ'हा 16 )

*और फरमाते हैं मौत में दावत बे मअना है फ़तहुल कदीर में इसे बिदअते मुसतकबहा फरमाया* I

(फतावा रजविया, जिल्द 4 ,सफहा 221)

शौहर का बीवी के जनाज़े को उठाना

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
अवाम में यह ग़लत मशहूर है कि शौहर बीवी के मरने के बाद न देख सकता है न उसके जनाज़े को हाथ लगा सकता है और न कान्धा दे सकता है I

सही बात यह है कि शौहर के लिए अपनी बीवी को मरने वो बाद देखना भी जाइज़ है और उसके जनाज़े को उठाना और कान्धा देना, कब्र में उतारना भी जाइज है । (फतावा रज़विया, जिल्द 4, सफहा, 91)

मय्यत को ग़ुस्ल देने के बाद ग़ुस्ल करना

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
मय्यत को गुस्ल देने के बाद गुस्ल करना अच्छा है लेकिन जरूरी नहीं कि जिस ने मय्यत को गुस्ल दिया हो वह बाद में खुद गुस्ल करे इसको जरूरी ख्याल करना गलत है ।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 19)

नमाज़े जनाज़ा के बाद उसी वुज़ू से दूसरी नमाज़ पढ़ना कैसा है? 

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
कुछ जगहों पर लोग समझते हैं कि जिस वुज़ू नमाज़ जनाज़ा पढ़ी हो उससे दूसरी नमाज़ नही पढ़ी जा सकती हालांकि यह गलत और बे-अस्ल बात है। बल्कि इसी वुज़ू से फ़र्ज़ हो या सुन्नत व नफ्ल हर नमाज़ पढ़ना ठीक है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 19)

Tuesday

हिजड़े की नमाज़े जनाज़ा

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
कुछ लोग हिजड़े की नमाज़े जनाज़ा पढ़ने न पढ़ने के बारे शक करते हैं कि पढ़ना जाइज़ है या नहीं तो मसअला यह है कि हिजड़ा अगर मुसलमान है तो उस की नमाज़े जनाज़ा पढी जायेगी और उस को मुसलमानों के कब्ररिस्तान में दफन किया जायेगा।
कुछ लोग पूछते हैं कि हिजड़े की नमाज़ की नियत और उस में जो दुआ पढ़ी जायेगी वह मरदों वाली हो या औरतों वाली शायद उन लोगों को यह मालूम नहीं कि मरदों और औरतों की नमाज़े जनाज़ा और उस की नियत में कोई फर्क नहीं दोनों का तरीका एक ही है और वहीं तरीका हिजड़े के लिए भी रहेगा। हाँ नाबालिग बच्चे और बच्ची की दुआ में फर्क है और वह बहुत मामूली ज़मीरों का फर्क है तो अगर हिजड़ा नाबालिग बच्चा हो तो उस के लिए लड़के वाली दुआ पढ़ दें या लड़की वाली हर तरह नमाज दुरूस्त हो जायेगी ।
(फतावा रज़विया जदीद ज•9 ,स•74 ,फतावा बहरुल उलूम जि•5 ,स•174)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 185)

जूते चप्पल पर खड़े हो कर जनाज़े की नमाज़ पढ़ने का मअसला

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
जनाज़े की नमाज़ आम तौर पर खाली पडे रास्तों और खेतों मैदानों वगैरा में पढ़ी जातीहै। कुछ लोग इन ज़मीनों को नापाक ख्याल करते हुये जूते चप्पल उतार उन पर खड़े हो कर नमाज़ अदा कर लेते हैं तो ऐसा करना जाइज़ बल्कि बेहतर है और नमाज़ दुरूस्त हो जायेगी किसी चीज़ मिटटी,कपड़े,बदन ज़मीन वगैरा के पाक और नापाक होने की तीन सूरतें हैं।
1- यकीन से पता है कि वह पाक है।
2- यकीन से पता है कि वह नापाक है।
3- इस के पाक और नापाक होने में शक है। पता नहीं
कि पाक है या नापाक है।
 पहली सूरत में तो वह पाक है ही लेकिन तीसरी सूरत में भी जब कि उसके पाक और नापाक होने में शक हो तब भी इस को पाक माना जायेगा नापाक नहीं,नापाक तभी कहेंगे जब नापाकी का यकीन हो या गालिबे गुमान।
कोई भी ज़मीन जब तक इस के नापाक होने का पता न हो वह पाक कहलायेगी आप इस पर खड़े हो कर बगैर कुछ बिछाये भी नमाज़ पढ़ सकते हैं।
जूते का तला भी जब खूब पता हो कि इस पर कोई नापाक चीज़ लगी है तभी उस को नापाक कहा जायेगा। सिर्फ शक व शुब्ह की बिना पर नापाक नहीं कहा जा।सकता जूते के तला पाक हो सकता है उलमा-ए-किराम ने फरमाया कि जूते की तले पर अगर कोई नापाक चीज़ लगी भी हो, उस को पहन कर चला। घास या मिटटी पर कुछ देर चलने से जो रगढ़ पैदा हुई उस से भी जूते का तला पाक हो सकता है।
अब इस सिलसिले में मसाइल की तफ़सील हस्बे
ज़ैल है।
ज़मीन अगर नापाक है यानी उस के नापाक होने का यकीन है उस के ऊपर नंगे पैर खड़े हो कर बगैर कुछ बिछाये नमाज़ पढ़ी नमाज़ नहीं होगी।
ज़मीन अगर पाक है या उसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता कि पाक है या नापाक तो उस पर बगैर कुछ बिछाये नंगे पैर खड़े हो कर नमाज़ पढ़ी जा सकती है।
ज़मीन नापाक है लेकिन जूते पहन कर नमाज़ पढी और जूते का तला पाक है नमाज़ सही हो जायेगी।
 ज़मीन भी नापाक है जूते का तला भी नापाक है। लेकिन जूते उतार कर उन पर खड़े हो कर नमाज़ पढ़ी नमाज़ हो जायेगी क्योंकि अब उस नापाकी का बदन जिस्म से कोई तअल्लुक नहीं और अगर पहने हो तो वह नापाकी जिस्म का हिस्सा मानी जायेगी।
खुलासा यह है कि ज्यादा एहतियात उसी में है कि जूते उतार कर उन पर खड़े हो कर नमाज अदा करे यह सब से बेहतर और मुहतात तरीका है।
आला हज़रत फरमाते हैं: ।
अगर वह जगह पेशाब वगैरा से नापाक थी या जिस
के जूतों के तले नापाक थे और उस हालत में जूता पहने हुये नमाज़ पढ़ी उन की नमाज़ न हई। एहतियात यही है।
कि जूता उतार कर उस पर पाव रख कर नमाज़ पढ़ी जाये। कि ज़मीन या तला अगर नापाक हो तो नमाज़ में खलल न
आये ।(फतावा रज़विया जदीद 9/188)
और एक मकाम पर लिखते हैं।
अगर कोई शख्स बहालते नमाज निजासत पर खड़ा हुआ और उसके दोनों पैरों में जूते या जुराबे हैं तो उसकी नमाज़ सही न होगी और अगर यह चीज़ें जुदा है तो हो जाएगी । (फ़तावा रज़विया जदीद 962)
  एक जगह लिखते हैं :- शुबह से कोई चीज़ नापाक नहीं होती कि असल तहारत है।
   ( फतावा रज़विया जदीद जि•4,स•394)
   (गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 183)

Sunday

गमी का चाँद गमी की ईद

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
इस्लाम में तीन(3) दिन से ज़्यादा किसी मैयत का गम मनाना यानी जान बूझ कर ऐसे काम करना जिस से गम ज़ाहिर हो नाजाइज़ है ऐसे ही किसी के गम में चाँद को
गम का चाँद या किसी महीने का गम को महीना कहना मना है।
जिस घर में किसी का इन्तिकाल हो गया हो उस के बाद जब पहली ईद आती है तो इस ईद को इस घर वालों के लिए कुछ औरतें गमी की ईद कहती हैं ईद के दिन मैयत के घर की औरतों से मिल जुल कर खूब रोती हैं यह सब गैर इस्लामी बातें हैं।
ईद का दिन इस्लामी त्यौहार और खशी का दिन है। न कि रोने और पीटने का दिन। उस दिन कोई गम हो भी तो इस को ज़ाहिर न करे दिल में रहने दे चेहरे पर गम व रंज के आसार ज़ाहिर न होने दे चेहरे से खुशी और हंस मुख रहे।
हदीस पाक में है हुज़ूर पाक सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम जब मदीने तशरीफ लाये तो मदीने के लोग साल में दो मर्तबा खुशी मनाते थे। (महरगान और नीरोज़) हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने पूछा यह कौन से दिन हैं? लोगों ने कहाःज़माना-ए-जाहिलियत में हम इन दिनों में खुशी मनाते थे हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया अल्लाह तआला ने उनसे बेहतर दो (2) दिन अता फरमाये है ईदुल फित्र और ईदुज़्ज़हा। (अबूदाऊद बाब सलातुल ईदैन हदीस 1134 स,161)

 इस हदीस से खूब ज़ाहिर हो गया कि ईद का दिन खुशी मनाने का दिन है गम मनाने रोने पीटने का दिन नहीं। सदरुश्शरीआ मौलाना अमजद अली साहब आज़मी रहमतुल्लाहि तआला अलैहि फ़रमाते हैं:
ईद के दिन खुशी जाहिर करना मुस्तहब है।
(बहारे शरीअत,4/781 मतबूआ मकतबतुलमदीना देहली)
कुछ जगहों पर शबे बरात और मुहर्रम के चाँद को औरतें गमी का चाँद कहती हैं और नई दुल्हन के लिए ज़रूरी ख्याल किया जाता है कि वह यह चाँद सुसराल में न देखे बल्कि मैके में आकर देखे तो यह सब जाहिल औरतों की मन गढंत वहम परस्ती की बातें हैं उन से बचना ज़रूरी है।कोई भी औरत कोई सा चाँद कही भी देख सकती है हाँ जवान लड़कियों और औरतों को खुली छतों पर चाँद देखने के लिए चढना मना है ताकि बे पर्दा न हो।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 181)

इस्लाम में सब से अच्छा काम

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
इस्लाम में सब से अच्छा काम पाँचों वक़्त की नमाज़ की पाबन्दी है और मस्जिदों को बनाना और उन्हें नमाज़ व अज़ान से आबाद करना और आबाद रखने के लिए कोशिश करना है मस्जिद के साज व सामान लौटे चटाई वज़ू का इन्तिज़ाम इस की देख भाल सफाई करने वाले अज़ान देने वाले मुअज़्ज़िनों और नमाज़ पढ़ाने वाले इमामों का ख्याल करना और उन्हें हर तरह खुश रखना,बेहतरीन काम है और इस सिलसिले में जो खर्चा हो वह बेहतरीन खर्चा है।
आला हज़रत मौलाना अहमद रज़ा खाँ बरेलवी रहमतुल्लाहि तआला अलैहि फ़रमाते हैं।
"ईमान के बाद पहली शरीअत नमाज़ है।"
 (फतावा रज़विया जदीद जि.5 स 83)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 181)

Friday

सब से बेहतर मुसलमान 

⏬⏬⏬⏬⏬⏬
आजकल कुछ लोग तो वह हैं कि दुनिया के काम धंधों में लग कर दीन को बिलकुल भुला बैठे हैं। जैसे कि उन्हें सब दिन दुनिया में रहना है। और कुछ वह हैं कि दीनदार बने तो काम धंदा छोड़ बैठे काहिल,सुस्त और आराम तल्ब हो गये या इस चक्कर में हैं कि इसी दीनदारी की नाम पर लोग हमें कुछ दे जायें। इन दोनों किस्म के लोग से इस्लाम की सही तरजुमानी नहीं होती। सब से बेहतर मुसलमान वह है जो अपना कुछ काम धंधा करता हो । साथ ही साथ नमाज़ रोज़े का पाबन्द, दीनदार मुसलमान हो,हलाल व हराम में फ़र्क रखता हो।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 180)

Sunday

इस ज़माने की एक बड़ी नेकी 

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
अगर आप अपनी,अपने बेटे या भाई की शादी करना हैं। और आप के अजीजों,करीबों,रिशते दारों या अहले
ना में कोई गरीब लड़की है। जिस से आपका रिशता शअन दुरूस्त है,तो उस से बगैर खर्चा कराये बगैर बारात वगैरा चढ़ाये हुये और बगैर जहेज लिए हुये और दम सादा निकाह कीजिए जैसे कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने किए थे। और उस को साथ इज़्ज़त के अपने घर में बीवी बना कर रखिये। यह ज़माने की बहुत बड़ी हमदर्दी और नेकी है। और ऐसा करने वालों को जिहाद का सवाब मिलेगा। आज लोग ख्वाम ख्वाह की हमदर्दियाँ तो दिखाते हैं। अज़ीज़ों, रिशते दारों और खान्दान वालों की तरफ से लड़ने मरने को तैयार जाते हैं। लेकिन जवान लड़कियां घरों में पल रही हैं। उनकी वजह से लोग परेशान हैं और यह उनके रिशते मन्ज़ूर नहीं करते। हमदर्दी इस का नाम है कि आप के अज़ीज़ को जो परेशानी हो वह दूर की जाये। जब्कि वह आप के बस की बात है। यह कहाँ की हमदर्दी,रिशतेदारी और कराबत है कि आप दौलत और मालदारी की वजह से इधर उधर रिशते तलाश कर रहे हैं। और आप के अज़ीज़ अपनी लड़की के लिए परेशान और दुखी हैं।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 179)

Saturday

बेवुज़ू अजान पढ़ने का मसअला

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
बेवुज़ू अज़ान नहीं पढ़ना चाहिए। लेकिन अगर कोई पढ़ दे तो अज़ान दुरूस्त हो जाती है और उस अज़ान के बाद जो नमाज़ पढ़ी जायेगी वह भी दुरूस्त है। लेकिन बेवुज़ू अज़ान पढ़ने की आदत डाल लेना मुनासिब नहीं है।

आला हज़रत फरमाते हैं।
 “बेवज़ू अज़ान पढ़ना जाइज़ है,बई माना कि अज़ान हो जायेगी लेकिन चाहिए नहीं ।
 (फतावा रज़विया,जि.5,स.373 )

खुलासा यह कि कभी बे वुज़ू भी अज़ान पढ़ी जा सकती है। लेकिन बेहतर और अच्छा तरीका यही है कि अज़ान बावुज़ू पढ़ी जाये।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 179)

क्या इस्लाम में ताजियादारी जाइज़ है?

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
कुछ लोग मुहर्रम और सफ़र के महीने में ताजिये बनाते उन्हें ढोल बाजों के साथ घुमाते और उनके साथ सीना पीटते,मातम करते हुये उन्हें नक्ली और फर्ज़ी कर्बला में ले जा कर दफन करते हैं। यह सब बातें इस्लाम में मना हैं, नाजाइज़ व गुनाह हैं।
 प्यारे इस्लामी भाइयो! हमारा आपका प्यारा मज़हब जो "इसलाम" है,वह एक साफ सुथरा, संजीदा और शरीफ
अच्छा भला,सीधा सच्चा मज़हब है। वह खेल तमाशों, गाने
बाजों,ढोल ढमाकों, नाच,कूद फांद,मातम और सीना कूबी
वाला मजहब नहीं है। आजकल की ताजियेदार और उसको
जाइज़ बताने वाले,दुनिया को यह ज़हिन दे रहे हैं कि इस्लाम भी दूसरे धर्मों की तरह मेलों ठेलों और खेल तमाशों
वाला मज़हब हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि ताजिये बनाना जाइज़ है,उसको घुमाना वगैरा नाजाइज़ है। यह बात भी एक दम दुरूस्त नहीं बल्कि आजकल जो ताजिया बनाया जाता है,उस को बनाना भी मना है क्योंकि यह हज़रत इमाम हुसैन के रौज़े और मज़ार का सही नुक्शा नहीं। बल्कि इजाज़त सिर्फ इतनी है कि हजरत इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु के मज़ार पुर अन्वार का सही नक्शा किसी कागज़ वगैरा पर बना हुआ अपने पास या घर में रखे जैसे खाना-ए-काबा,गुंबदे खजरा,बगदाद शरीफ अजमेर शरीफ वगैरा के बने हुये नक्शे कलन्डरों वगैरा में और अलग से भी आते हैं और लोग बरकत हासिल करने के लिए उन्हे घरों में टांगते हैं।(हवाले और तफसील से जानने के लिए देखिये फतावा रज़विया जि.10 किस्त अव्वल स.36)

मुहर्रम के महीने की 7,12,13 तारीख को जो मेहंदी बनाई या निकाली जाती है,यह भी एक बेकार और गढ़ी हुई रस्म है ,राफ़ज़ी और शीआ मज़हब की पैदावार है, इस्लाम का इस से कोई तअल्लुक नहीं,जिहालात का नतीजा है।
अहले सुन्नत वलजमाअत का मज़हब यह है कि हज़रत इमाम हुसैन और दूसरे शहीदाने करबला और  बुज़ुर्गाने दीन से सच्ची मोहब्बत यह है कि उनके नक्शे क़दम पर चला जाये और उनके रास्ते तरीके,ढंग और चाल चलन को अपनाया जाये। और उसके साथ साथ उनकी रूह को सवाब पहुँचाने के लिए नफ़िल पढ़े जायें,रोज़े रखे जायें,कुरआने करीम की तिलावत की जाये या सदका खैरात कर के अहबाब दोस्तों, रिशतेदारों या गरीबों मिस्कीनों को खाना,खिचड़ा,हलवा,मलीदा जो मयस्सर हो वह खिला कर उस का सवाब उनकी पाक रूहों को पहुँचाया जाये,जिस को फ़ातिहा कहते हैं, तो यह बे शक जाइज़ उम्दा और अच्छा काम है और उस से अल्लाह तआला राज़ी होता है। और अपने रब की रज़ा हासिल करना हर मुसलमान के लिए हर ज़रूरत से ज़्यादा ज़रूरी है। और न्याज़,फातिजा,सदका,खैरात में भी यह ज़रूरी है कि अपने नाम शोहरत और दिखावे के लिए न हो। बल्कि।जो भी और जितना भी हो खालिस अल्लाह तआला की रज़ा हासिल करने और बुज़ुर्गों को सवाब पहुँचाने के लिए हो। आजकल कुछ लोग लम्बी लम्बी न्याज़े दिलाते,खूब देगें पका पका कर खिलाते है और उनका मकसद अपनी नामवरी और शौहरत होता है और वह दिखावे के लिए ऐसा करते हैं। उनकी यह नियाज़ै कबूल नहीं होंगी।

यह भी सुन्ने में आया है कि कोई शख्स ताजियेदारी और उसके साथ की जाने वाली खुराफात से मना करे । कुछ लोग उसे वहाबी कह देते हैं और समझते हैं। ताजियेदारी सुन्नियों का काम है और उस से मना करना वहाबियों का तरीका है। हांलाकि ऐसा नहीं बल्कि कभी किसी सही सुन्नी आलिम ने ताजियेदारी को जाइज़ नहीं कहा है बल्कि सब ने हमेशा नाजाइज़ व गुनाह लिखा और आला हज़रत मौलाना अहमद रजा खाँ फाज़िले बरेलवी रहमतुल्लाहि तआला अलैहि की किताबों में तो जगह जगह उसको हराम बताया गया है और उस बारे में उनके फतावा का मजमूआ एक किताब की शक्ल में छप भी चुका है जिस का नाम रिसाला-ए-ताजिये दारी है। लिहाजा जो हमारे भाई तफ़सील से इस मसअले को पढ़ना चाहें वह सुन्नी कुतुब ख़ानों से इस रिसाले को हासिल कर के पढ़ें।

और जो मौलवी ताजियेदारी को जाइज़ कहते हैं, वह ऐसा पब्लिक को खुश करने और उन से प्रोग्रामो के ज़रिए नज़राने वगैरा हासिल करने के लिए करते हैं। उन्हें चाहिए कि पब्लिक को खुश रखने के बजाये अल्लाह तआला और उस के रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम  को राज़ी रखने की फिक्र करे क्योंकि हराम को हलाल बताने वालों की जब क़ब्र व हश्र में पिटाई होगी तो यह पब्लिक बचाने नहीं जायेगी और उन जलसों प्रोग्रामों और नज़रानों की रकमों के ज़रीए वहाँ जान नहीं छूटेगी। बल्कि यही ताजियेदार जिन को खुश रखने के लिए यह मौलवी गलत मसअले बताते हैं,कयामत के दिन उनका दामन पकड़ेंगे।

यह भी मुम्किन है कि ताजियेदारी और उस के साथ की जाने वाली खुराफातों को जाइज़ कहने वाले मौलवी वहाबियों के एजेन्ट हों और उनसे खुफिया समझौता किये हुये हों क्योंकि वहाबियत को उस ज़रिये से फायदा  पहुँचता


और काफी लोग अपनी जिहालत की वहज से हमारे माहौल में खिलाफे शरअ हरकात देख कर वहाबियों की तारीफ करने लगते हैं हांलाकि यह उन की भूल है और सुन्नी उलमा की किताबें न पढ़ने का नतीजा है।

हाँ इतना जानना ज़रूरी है कि वहाबी ताजियेदारी को शिर्क और ताजियेदारों को मुशिरक व काफ़िर तक कह देते हैं। लेकिन सुन्नी उलमा उन्हें मुसलमान और अपना भाई ही ख्याल करते हैं। बस बात इतनी है कि वह एक गुनाह कर रहे हैं। खुदाए तआला उन्हें इस से बचने की तौफिक अता फरमाये । ताजियेदारी से मुतअल्लिक तफसीली मालमात हासिलकरने के लिए मेरी किताब मुहर्रम में क्या जाइज़ क्या नाजाइज़ का मुताला करें |
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 176)

Tuesday

बोहनी के मुतअल्लिक गलत ख्यालात

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
खरीद व फरोख्त के मुआमले में सवेरे को जो सबसे पहली रकम हासिल होती है, उसको ‘बोहनी' कहते हैं। आमतौर से लोग पहली सौदा न पटे और पहला ग्राहक वापस चला जाये तो इस बात को बुरा मानते हैं और कहते हैं कि बोहनी खराब हो गई और इससे सारे दिन की दुकानदारी के लिए बदशगुन लेते हैं। ये सब काफिरों और गैर मुस्लिमों की बातें और वहमपरस्तियाँ हैं, जो मुसलमानों में भी पैदा हो गई हैं। एक मुसलमान के लिए ज़रूरी है कि वह इन ख्यालात को दिल में जगह न दे और यह अकीदा रखे कि नफा नुकसान का मालिक अल्लाह तआला है जब जिसको जो चाहे अता फरमाये और बोहनी खराब होने से कुछ नहीं होता।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 175)


Friday

 

छींक आ जाये तो बदशगुन मानना 

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
कुछ जगहों पर बाज़ हमारे अनपढ़ मुसलमान भाई छींक आने को बुरा जानते हैं और उससे बदशगुनी लेते हैं हालांकि छींक आना इस्लाम में अच्छी बात है और छींक अल्लाह तअाला को पसन्द है। लिहाज़ा जिसको छींक आये, वह अल्लाह तआला का शुक्र करे। हदीस शरीफ में है, हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम  फरमाते हैं :-
बेशक अल्लाह तआला छींक को पसन्द और जमाही का
नापसन्द फ़रमाता है तो जिसको छींक आये वह "अल्हम्दु लिल्लाह" कहे और जो दूसरा शख्स उसको सुने वह जवाब दे (यानी ‘यरहमुकल्लाह' कहे) और जमाही शैतान की तरफ से है इसका जहाँ तक बस चले न आने दे और जमाही में जो मुंह से आवाज़ निकलती है, उसको सुन कर शैतान हँसता है। (बुखारी जिल्द 1, सफा 919)
 (गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 175)

Wednesday

मुस्तहब्बत को फर्ज़ व वाजिब समझना और फराइज़ को अहमियत न देना

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
आजकल अवाम अहले सुन्नत में एक बड़ी तादाद उन लोगों की है जिन्होंने नमाज़, रोज़ा, ज़कात वगैरह इस्लाम में ज़रूरी बातों को छोड़ कर नियाज़, नज़्र, फातिहा वगैरह बिदआते हसना को लाज़िम व ज़रूरी समझ लिया है, यह एक गलतफहमी है। इसमें कोई शक नहीं कि नियाज़,फ़ातिहा, मीलाद शरीफ़ मुरव्वजा सलात व सलाम यअनी जैसे आजकल पढ़ा जाता है, बारह रबीउलअव्वल को जुलूस निकालना, ग्यारहवीं शरीफ, 22 रजब और 14 शाबान और 10 मुहर्रम वगैरह को खाने, खिचड़े, पूड़ी, हलवे, पुलाव और मालीदे पर फ़ातिहा दिलाना, उर्स करना,
बुज़ुर्गों के मज़ारात पर हाज़िरी देना, कब्र पर अज़ान देना, हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के नाम को सुनकर अँगूठे चूमना, मुर्दो के तीजे, दसवें और चालीसवें करना, ये सब अच्छे काम हैं, इन्हें करने में कोई हर्ज और गुनाह नहीं। जो इन्हें गलत कहते हैं, वो खुद गलत हैं। लेकिन जो इन्हें फर्ज़ और वाजिब (शरअन लाज़िम व ज़रुरी)।ख्याल करते हैं, वो भी भूल में हैं। इस मज़मून से हमारा मकसद सिर्फ उनकी इस्लाह करना है।

सुन्नी भाईयों! नियाज़, फातिहा, उर्स, मीलाद वगैरह ऊपर
ज़िक्र की हुई बातों में मुन्किरीन वहाबियों से इख्तिलाफ सिर्फ यह है कि वो इनको बुरा कहते हैं और उलेमाए अहले सुन्नत इन सब कामों को अच्छा काम बताते हैं। लेकिन फर्ज़ व वाजिब (शरअन लाज़िम व ज़रूरी) ये भी नहीं कहते। फर्ज़ और वाजिब तो इस्लाम में ये काम हैं :-

पाँचों वक़्त नमाज़ बाजमाअत की सख्ती के साथ पाबन्दी करना। रमज़ान के महीने के रोज़े रखना। साहिबे निसाब को साल में एक बार ज़कात निकालना। जिसके बस की बात हो उसके लिए पूरी ज़िन्दगी में एक बार हज करना। ज़िना, शराब, जुए, सूद, झूट, गीबत, ज़ुल्म, पिक्चर, गाने, तमाशे वगैरह से।बचना। माँ बाप की फरमाबरदारी करना। जिसका आप पर जो हक है उसको अदा करना। कर्ज़ लेकर जल्द से जल्द देने की कोशिश करना। मज़दूर की मज़दूरी देने में देर न करना वगैरह। हक यह है अगरचे हक कड़वा होता है कि नियाज़ व नज़्र ,मीलाद व फातिहा, उर्स व मज़ारात की हाज़िरी का फैज़ और फाइदा सही मअनों में उन्हीं को हासिल होता है जो उन कामों पर अमल करते हैं जिनका हमने अभी ऊपर ज़िक्र किया है। जो लोग नमाज़ रोज़े को छोड़ कर हराम कमाते, हराम खाते, हराम करते और फिर बुज़ुर्गों की नियाज़ दिलाते, उनके नाम पर बड़ी बड़ी देगें पकाते, मज़ारात पर हाज़िरी देते हैं उनकी वजह से मजहब ए अहले सुन्नत बदनाम हो रहा है।

 यह जान लेना भी ज़रूरी है कि दूसरे फिरकों में जिन लोगों को इस्लाम से ख़ारिज और काफ़िर कहा गया है वह नियाज़ व फातिहा न दिलाने की वजह से नहीं बल्कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम और दीगर अम्बियाए इज़ाम की शान में गुस्ताखी करने की वजह से उन्हें गुमराह व बदमज़हब या काफिर वगैरहा करार दिया गया है।

अलबत्ता इसमें भी कोई शक नहीं कि नियाज़ व फातिहा, उर्स व मीलाद वगैरा आजकल अहले हक की अलामत निशान और पहचान बन गई हैं लिहाज़ा इन कामों को आम तौर से छोड़ा न जाये और फर्ज़ व वाजिब भी न समझा जाये । बस अच्छे काम समझ कर शरीअते इस्लामिया के दाइरे में रह कर करते रहें। और किसी के ईसाले सवाब के लिए उसकी फातिहा को किसी ख़ास दिन के साथ लाज़िम व ज़रूरी समझना भी गलतफहमी है। बल्कि हर एक की फातिहा हर दिन और हर वक़्त हो सकती है। और किसी।निसबत से किसी दिन को खास कर लेने में भी कोई हर्ज नहीं जबकि उसको लाज़िम और ज़रूरी न समझे।
आलाहज़रत फरमाते हैं :-यह तअय्युनात (दिनों को फ़ातिहा के लिए खास करना) उर्फी है इनमें असलन हर्ज नहीं जबकि इन्हें शरअन लाज़िम न जाने। यह न समझे कि इन्हीं दिनों में सवाब पहुँचेगा,आगे पीछे नहीं।
(फतावा रज़विया, जिल्द 4,सफा 216)

खुलासा यह कि दिनों को तय कर लेना अपनी सुहूलत और रिवाज के तौर पर है और इसमें हर्ज नहीं मगर इसे लाज़िम न जाने कि हम दिन तय कर लेंगे तभी सवाब पहुँचेगा और दिन आगे पीछे हो जाने से सवाब न पहुँचेगा यह गलत है।
और दूसरी जगह फरमाते हैं :
ईसाले सवाब हर दिन मुमकिन है और खुसूसियत के साथ।किसी एक तारीख का इल्तिज़ाम (पाबन्दी) जबकि उसे शरअन लाज़िम न जाने मुज़ाइका (हरज) नहीं।
 (फतावा रज़विया, जिल्द 4,सफा 224)
 (गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 172)

Monday

हाथों के डोरे और कड़े

⏬⏬⏬⏬⏬⏬
बाज़ मजारात के मुजाविर और सज्जादानशीन लोग ज़ाइरीन के हाथों में सुर्ख या पीले रंग के डोरे बाँध देते हैं। ऐसे काम हिन्दुओं के बाबा और साधू लोग करते थे, वह तीरथ यात्रियों के हाथों में लाल पीले डोरे बॉध देते हैं अब मज़ारात के मुजाविर और सज्जादों में भी इसका रिवाज़ हो गया है। यह बात मुनासिब नहीं है और मुसलमानों को गैर मुस्लिमों की नकल और उनकी मुशाबहत से बचना चाहिए और हाथों में डोरे और कड़े न डालना चाहिए और न डलवाना चाहिए।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 172)

Sunday

क्या बुराई और भलाई का तअल्लुक सितारों से भी है?

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
कुछ लोग समझते हैं कि बुराई भलाई और नफा नुकसान का तअल्लुक सितारों से है हालाँकि ऐसा कुछ नहीं है।
आलाहज़रत फ़रमाते हैं :-
मुसलमान मुतीअ पर कोई चीज़ नहस (मनहूस) नहीं और काफिरों के लिए कुछ सअद (भलाई) नहीं। बाकी कवाकिब (सितारों) में कोई सआदत व नहूसत नहीं अगर उनको खुद
मुअस्सिर जाने मुश्रिक (काफिर) है और उनसे मदद माँगे तो हराम है और उनकी रिआयत जरूर ख़िलाफे तवक्कुल है।  (फतावा रज़विया, जिल्द 10, किस्त 2 ,सफा 265)

बाज़ नुकूश व तावीजात के बारे में सितारों का हिसाब लगा कर कुछ औकात को खास किया जाता है तो उसके बारे में मुसलमान को यह अक़ीदा खना चाहिए कि खुदाए तआला ने बाज़ औकात को बाज़ कामों के लिए बाज़ दूसरे औकात के मुकाबले में पसन्द फरमाया है और किसी साअत और घड़ी को किसी दूसरे से किसी खास काम के लिए अफ़ज़ल व बेहतर बनाया है। लेकिन मनहूस किसी वक़्त को नहीं समझना चाहिए और होता वही है जो अल्लाह तआला चाहता है और खुदाए तआला व रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम  पर ईमान और उनकी इताअत से बढ़कर कोई सआदत व बरकत, नफा और भलाई नहीं और उनकी नाफरमानी और कुफ़ से बढकर कोई नहूसत नहीं ---- और ऐसे ही बाज़ कामों के लिए बाज़ दिनों की फजीलत आई है जैसे सफर के लिए जुमेरात या पीर का दिन और नाखुन तरशवाने और बाल कटवाने के लिए जुमे का दिन। इसका मतलब यह नहीं कि और दिन मनहूस हैं या उनमें वह काम नाजाइज़ व गुनाह है बल्कि किसी दिन भी सफ़र करना और किसी दिन नाखून और बाल कटवाना नाजाइज़ व गुनाह नहीं है, हर दिन जाइज़ है। हाँ मखसूस और वो दिन जो ऊपर जिक्र हुए उनमें ये काम दूसरे दिनों से ज्यादा बेहतर व अफज़ल व पसन्दीदा हैं।

बाज़ जगह औरतें बुध के दिन घर से निकलने और सफ़र करने को मना करती हैं। यह उनकी जहालत है। बुध के दिन की तो खास तौर पर हदीस में फजीलत आई है। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम का इरशाद है :-
"जो काम बुध के दिन शुरू किया जाता है, पूरा होता है।"
यह हदीस आलाहज़रत इमामे अहले सुन्नत ने फतावा रज़विया जिल्द 12 सफा 160 पर नकल फ़रमाई है।
सदरुश्शरी हज़रत मौलाना अमजद अली साहब अलैहिर्रहमह फ़रमाते हैं :-
नजूम की इस किस्म की बातें जिनमें सितारों की तासीरात बताई जाती हैं कि फलाँ सितारा तुलू होगा तो फलॉ बात होगी,  यह भी बेशरअ है। इसी तरह नक्षत्रों का हिसाब कि फलाँ नक्षत्र से बारिश होगी, यह भी गलत है। हदीस में इस पर सख्ती से इन्कार फरमाया है।
(बहारे शरीअत ,हिस्सा 16 सफा 257)

बहुत से लोग मंगल के दिन कोई नया काम शुरू करने को बुरा जानते हैं और औरतें इस दिन नहाने को बुरा जानती हैं,ये सब भी उनकी गैर इस्लामी और जाहिलाना बातें हैं।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 170)

धोबी के यहाँ खाना खाना जाइज़ है।

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
कुछ लोग धोबी के यहाँ खाना खाने को बुरा जानते हैं, यह।बहुत बुरी बात है। धोबी हो या कोई मुसलमान उसके यहाँ खाना खाने में कोई हर्ज नहीं और बिला शुबह जाइज़ है। जो लोग धोबियों के यहाँ खाने को बुरा जानते हैं और उनके यहाँ के खाने को नापाक बताते हैं, वो निरे जाहिल हैं।

आलाहज़रत अलैहिर्रहमह फरमाते है:-
⤵️⤵️⤵️⤵️⤵️⤵️⤵️⤵️⤵️⤵️
धोबी के यहाँ खाना खाने में कुछ हर्ज नहीं, यह जो जाहिलों  में मशहूर है कि धोबी के यहाँ का खाना नापाक है, महज़ बातिल (झूठ) है।(अलमलफूज़ ,हिस्सा अव्वल,सफ़हा 13)

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 169)

Saturday

क्या उल्लू कोई मनहूस परिन्दा है?

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
उल्लू एक परिन्दा है जिसको लोग मनहूस ख्याल करते हैं। हालाँकि इस्लामी नुक्तए नज़र से यह एक गलत बात है। उल्लू को मनहूस ख्याल करना एक जाहिलाना अकीदा है।
सहीह बुख़ारी की हदीस में है :
"रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:- छुआछूत कोई चीज नहीं, उल्लू में कोई नहूसत नहीं और सफ़र (चेहलम) का महीना भी मनहूस नहीं।" (मिश्कात बाब उल फाल वत्तैर सफा 391)
सदरुश्शरीआ हज़रत मौलाना अमजद अली साहब फरमाते हैं :-‘हाम्मह' से मुराद उल्लू है। जमानए जाहिलियत में अहले अरब इसके मुतअल्लिक किस्म किस्म के ख्यालात रखते थे और अब भी लोग इसको मनहूस समझते हैं। जो कुछ भी हो हदीस ने इसके मुतअल्लिक हिदायत की कि इसका एतिबार न किया जाये। माहे सफ़र को लोग मनहूस जानते हैं, हदीस में फ़रमाया, यह कोई चीज़ नहीं। (बहारे शरीअत हिस्सा 16 सफा 124)
खुलासा यह है कि उल्लू को मनहूस समझना गलत है। नफा नुकसान का मालिक सिर्फ अल्लाह तबारक व तआला है। जो वह चाहता है, वही होता है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह , पेज 169)

Thursday


जानवरों से उनकी ताक़त से ज़्यादा काम लेना

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
आजकल आमतौर से लोग इस बात का ख्याल नहीं रखते। जानवरों पर उनकी ताकत से ज्यादा बोझ लाद देना और मार मार कर उन्हें चलाना, ज़ुल्म है। यूँ ही उन बेज़ुबानों के चारा पानी और गर्मी व जाड़े की फिक्र न करना भी ज़ुल्म है। दूध देने वाले जानवरों का सारा दूध खींच लेना और फिर उसके बच्चे को दिन दिन भर के लिए भूका प्यासा रखना ज़ुल्म है। ऐसा करने वाले ज़ालिम हैं और ये ज़्यादा कमाई और आमदनी के लिए ये सब करते हैं। लेकिन कमाई के बाद भी ऐसे लोग परेशान रहते हैं और उन्हें ज़िन्दगी में सुकून मयस्सर नहीं आता और हमेशा बेचैन व परेशान रहते हैं।
सदरुश्शरीआ हज़रत मौलाना अमजद अली साहब अलैहिर्रहमह फरमाते हैं:-जानवर से काम लेने में ज़रूरी है कि उसकी ताकत से ज़्यादा काम न लिया जाये। बाज़ यक्का और तांगे वाले इतनी ज़्यादा सवारियाँ बिठाते हैं कि घोड़ा मुसीबत में पड़ जाता है, यह नाजाइज़ है।
जानवर पर जुल्म करना, ज़िम्मी काफ़िर पर जुल्म से ज़्यादा बुरा है और ज़िम्मी काफिर पर ज़ुल्म मुसलमान पर ज़ुल्म करने से भी ज़्यादा बुरा है। क्यूंकि जानवर का कोई मुईन व मददगार अल्लाह तआला के सिवा नहीं। इस गरीब को इस ज़ुल्म से कौन बचाये। (बहारे शरीअत ,हिस्सा 16 सफ़ा 285)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 168)



Wednesday

जानवरों को लड़ाना
⏬⏬⏬⏬⏬⏬
कुछ लोग तफरीह व तमाशे के लिए मुर्ग,बटेर, तीतर,हाथी, मेंढे और रीछों वगैरह को लड़ाते हैं। यह जानवरों को लड़ाना इस्लाम में हराम है। हदीस में है
"रसूलुल्लाह  सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने जानवरों को लड़ाने से मना फ़रमाया।"
(जामेअ तिर्मिज़ी ,जिल्द 1, सफ़ा 204, सुनन अबू दाऊद जिल्द 1,सफा 346)
और यह जानवरों को लड़ाना, उन पर जुल्म है। आपकी तो तफ़रीह हो रही है, और उनका लड़ते लड़ते काम हुआ जा रहा है। मज़हबे इस्लाम इसका रवादार नहीं। बेज़बानों पर ज़ुल्म व ज़्यादती से इस्लाम मना फ़रमाता है। कबूतरबाज़ी भी नाजाइज़ है।
आलाहजरत फरमाते हैं।
"तमाशे के लिए कबूतरों को भूका उड़ाना, जब उतरना चाहें, उतरने न देना और दिन भर उड़ाना, ऐसा कबूतर पालना हराम है। (फतावा रज़विया, जिल्द 10 ,किस्त 1, सफ़ा 165)
 और येतमाशे देखना, इनमें शिरकत करना भी नाजाइज़ है।
(बहारे शरीअत ,हिस्सा 16,सफा 131)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 167)

Tuesday

क़ुरआने करीम गिर जाये तो उसके बराबर तोल कर अनाज ख़ैरात करना

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
क़ुरआने करीम अगर हाथ या अलमारी से गिर जाये तो कुछ लोग उसको तोल कर बराबर वज़न का आटा,चावल वगैरा खैरात करते हैं, और उस खैरात को उसका कफ्फारा ख्याल
करते हैं, यह उनकी गलतफहमी है।
क़ुरआने करीम जानबूझ कर गिरा देना या फेंक देना तो।बहुत ही ज़्यादा बुरा काम है। किसी भी मुसलमान से इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह ऐसा करेगा और जो।तौहीन व तहकीर के लिए ऐसा करेगा वह तो खुला काफ़िर है। तौबा करे फिर से कलिमा पढ़े, निकाह हो गया हो तो फिर से निकाह करे।

लेकिन अगर धोके से भूल में कुरआन शरीफ़ हाथ से छूट गया या अलमारी वगैरह से गिर गया तो उस पर कोई गुनाह नहीं है। भूल चूक माफ है। लेकिन फिर भी अगर बतौरे।खैरात कुछ राहे खुदा में खर्च कर दे तो अच्छी बात है और निहायत मुनासिब व बेहतर है। लेकिन क़ुरआन शरीफ़ को तोलना और उसके वज़न के बराबर कोई चीज़ खैरात करना और उस ख़ैरात को कफ्फारा समझना नासमझी और।बेइल्मी है। कुरआने करीम को तोलने और वज़न के बराबर सदका करने का इस्लाम में कोई हुक्म नहीं है।कुरआन व हदीस और फ़िक़्ह की किताबों में कहीं ऐसा हुक्म नहीं आया है। हाँ सदका व खैरात एक उम्दा काम है। लिहाज़ा जो कुछ आप से हो सके थोड़ा या ज़्यादा राहे खुदा में खर्च कर दें, सवाब मिलेगा और नहीं  किया  तब भी गुनाह व अज़ाब नही।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 166)

Monday

बैआना (एडवान्स) ज़ब्त करना

 ⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
आजकल अक्सर ऐसा होता है कि एक शख्स किसी से कोई माल खरीदता है और बेचने वाले को कुछ रक़म पेशगी देता है। जिसको बैआना कहते हैं। फिर किसी वजह से वह माल लेने से इन्कार कर देता है तो बेचने वाला बैचने की रकम ख़रीदार को वापस नहीं करता बल्कि ज़ब्त कर लेता है और पहले से यह तय किया जाता है कि अगर सौदा न ख़रीदी तो बैआना जब्त कर लेंगे। यह बैआना ज़ब्त करना शरअ के मुताबिक मना है और यह बैआने की रकम इस तरह उसके लिए हलाल नहीं बल्कि हराम है।

आलाहज़रत अलैहिर्रहमा फ़रमाते हैं:- बैआना आजकल तो यूँ होता है कि अगर खरीदार बाद बैआना देने के, न ले तो बैआना ज़ब्त, और यह कतअन हराम है।
(अलमलफूज़ हिस्सा 3, सफ़ा 27)

हाँ अगर बैअ तमाम हो ली थी और बिला किसी शरई वजह के ख़रीदार ख्वामख्वाह ख़रीदने से फिरता है तो बेचने वाले को हक हासिल है कि वह बैअ को लाज़िम जाने और माल उसके हवाले करे और कीमत उससे हासिल करे ख्वाह काज़ी व हाकिम या पंचायत वगैरह की मदद से लेकिन उसको माल न देना फिर उसकी रकम वापस न करना हराम है।


आलाहज़रत अलैहिर्रहमा फरमाते हैं :-बैअ न होने की हालत में बैआना ज़ब्त कर लेना जैसा कि जाहिलों में रिवाज है ज़ुल्मे सरीह है (खुला हुआ ज़ुल्म है)
मजीद फरमाते हैं :- यह कभी न होगा कि बैअ को फस्ख (रद्द) हो जाना मानकर मबीअ (सौदा) ज़ैद को न दे और उसके रुपये इस जुर्म में कि तू क्यूं फिर गया, ज़ब्त कर ले।
(फ़तावा रज़विया, जिल्द 7, सफ़ा 7)

भाईयो! हराम खाने से बचो सुकून व चैन जिसे अल्लाह तआला देता है उसे मिलता है दौलत और पैसे से नहीं। आपने बहुत से मालदारों को बेचैन व परेशान देखा होगा।और बहुत से गरीबों को चैन व सुकून में आराम से सोते देखा होगा और असली चैन की जगह तो जन्नत है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 165)



Saturday


नस्ब और बिरादरी बदलना

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
यह बीमारी भी काफ़ी आम हो गई है कि हैं किसी कौम और बिरादरी के और खुद को दूसरी कौम व बिरादरी का ज़ाहिर कर रहे हैं और चाहते हैं कि इस जरीए से बरतरीफज़ीलत और इज़्ज़त हासिल होगी हालांकि ऐसा करने से न इज़्ज़त मिलती है न फ़ज़ीलत। इज़्ज़त व जिल्लत तो अल्लाह तआला के दस्ते कुदरत में है जिसे जो चाहता है अता फरमाता है। ये अपना नस्ब बदलने वाले बहुत बड़े बेवकूफ, अहमक, जाहिल, बेगैरत व बेशर्म हैं।
हदीस शरीफ में है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया जो जानते हुए अपने बाप के सिवा दूसरे को अपना बाप बताये, उस पर जन्नत हराम है।
(सहीह बुख़ारी जिल्द 2 सफ़ा 1001, सहीह मुस्लिम ,जिल्द
1 सफा 442)
और एक दूसरी हदीस में अपना नस्ब बदलने वाले और अपने बाप के अलावा किसी दूसरे को बाप बताने वालों के बारे में हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि उन पर अल्लाह तआला और फ़िरिश्तों और सारे लोगों की लानत है। (सहीह मुस्लिम, जिल्द 1, सफ़ा 465)
आजकल खुद को सय्यिद कहलाने और आले रसूल बनने का शौक बहुत ज़ोर पकड़ गया है। देखते ही देखते हज़ारों लाखों जो सय्यिद नहीं थे वह सय्यिद बन गये जिसकी वजह से अब सय्यिदों का इहतिराम भी मुश्किल होता जा रहा है क्यूंकि नकली सय्यिदों की भरमार है। खुद मेरी मालूमात में ऐसे काफ़ी लोग हैं। जो अब तक कुछ और थे और अब चालीस और पचास की उम्र में वह सय्यिद और।आले रसूल बन गये। ये सब बहुत बड़े वाले मक्कार और धोकेबाज़, फरेबी और जालसाज हैं जिन पर खुदाए तआला की लानत है।
मुरादाबाद शहर में अभी जल्द ही एक मौलवी ने 55 साल की उम्र में खुद को आले रसूल और सय्यिद कहलवाना शुरू कर दिया है और कहता है कि मेरे पीर ने मुझे सय्यिद बना दिया गोया।कि सियादत के साथ मज़ाक हो रहा है।
और इसमें काफ़ी दख़ल हमारी कौम के बाज़ अफ़राद की इस बेजा अकीदत का भी है कि उनकी नज़र में इल्म व अमल तकवा व तहारत की कोई कद्र नहीं बस जो किसी बड़े का बाप बेटा है वही कुछ है। हालाँकि इस्लामी नुक़्तए नज़र से और तो और खुद सादाते किराम, जिनका इहतिराम व अदब ईमान की पहचान है। आलिमे दीन जो तफसीर व हदीस व फ़िह का इल्म काफ़ी रखता हो वह उन सादात से अफ़ज़ल है जो आलिम न हों।
हदीस में है रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया :-
"जिसका अमल उसे पीछे ढकेल दे, वह नस्ब से आगे नहीं बढ़ सकता।"
(सहीह मुस्लिम ,जिल्द 2, सफ़ा 345)
।"
आलाहज़रत इमाम अहले सुन्नत मौलाना अहमद रज़ा खाँ साहब अलैहिर्रहमह फरमाते हैं, फ़ज़्ले इल्म फज्ले नस्ब से अशरफ व आज़म है। सय्यिद साहब कि आलिम न हों अगरचे सालेह हों आलिम सुन्नी सहीहुल अक़ीदा के मरतबे को नहीं पहुँच सकते।
(फतावा रजविया, जिल्द 6, सफ़ा 56)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 163)

Thursday

अक़ीके का गोश्त दादा दादी और नाना नानी  के लिए नाजाइज़ समझना

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
कुछ लोग अकीके का गोश्त दादा दादी और नाना नानी के लिए खाने को नाजाइज़ ख्याल करते हैं यह बहुत बड़ी जहालत नादानी और गलतफहमी है। अकीके का गोश्त दादा दादी और नाना नानी के लिए खाना बिला शुबा जाइज़ है बल्कि जहाँ इस खाने को बुरा जानते हों वहाँ उनके लिए खाना ज़रूरी है।
और वह खायेंगे तो रिवाज़ मिटाने का सवाब पायेंगे।
आलाहजरत इमामे अहले सुन्नत मौलाना अहमद रजा खाँ साहब अलैहिर्रहमतु वर्रिदवान से इस बारे पूछा गया तो फ़रमाया:-सब खा सकते हैं, उकूदुददरिया में है :
                             احكامها احكام الا ضحية
(अलमलफूज़ हिस्सा अव्वल सफ़ा 46)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 162)

Wednesday

मर्द और औरतों का एक दूसरे की मुशाबहत करना

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
आजकल मर्दों में औरतों की और औरतों में मर्दों  की मुशाबहत इख्तियार करने और उनके अन्दा व लिबास व चाल ढाल अपनाने का मर्ज़ पैदा हो गया है हालाँकि हदीसे पाक में ऐसे लोगों पर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने लानत फ़रमाई है जो मर्द होकर औरतों की और औरत होकर मर्दों की वज़अ क़तअ अपनायें।

एक हदीस में है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि हमारे गिरोह से नहीं वह औरत जो मर्दाना रखरखाव अपनाये और वह मर्द जो जनाना ढंग इख्तियार करे।
अबू दाऊद की हदीस में है कि एक औरत के बारे में सय्यिदा आइशा सिद्दीक़ा रदियल्लाहु तआला अन्हा को बताया गया कि वह मर्दाना जूता पहनती है तो उन्होंने फरमाया कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम  ने मर्दानी औरतों पर लानत फ़रमाई है।
खुलासा यह है कि जो वज़अ क़तअ रखरखाव लिबास वगैरह मर्दों के साथ खास हों उनको औरतें न अपनायें और जो औरतों के साथ ख़ास हो उसको मर्द न अपनायें।

आजकल कुछ औरतें मर्दों की तरह बाल कटवाने लगी हैं यह उनके लिए हराम है और यह मरने के बाद सख़्त अजाब पायेंगी।
ऐसे ही कुछ मर्द औरतों की तरह बाल बढ़ाते हैं सूफी बनने के लिए लम्बी लम्बी लटें रखते हैं, चोटियाँ गूँधते और जूड़े बना लेते हैं, ये सब नाजाइज़ व ख़िलाफ़ शरअ है। तसव्वुफ और फकीरी बाल बढ़ाने और रंगे कपड़े पहनने का नाम नहीं बल्कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की सच्ची पैरवी करना और ख्वाहिशाते नफ़्सानी को मारने का नाम है। (बहारे शरीअत हिस्सा 16 सफ़ा 198)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 162)

Tuesday

औरत का नामहरम मनिहारों के हाथ से चूड़ियाँ पहनना

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
यह हरामकारी काफी राइज है। औरतों को मनिहारों के हाथों में हाथ देकर चूड़ियाँ पहनना सख्त हराम है। बल्कि इसमें दो हराम हैं, एक गैर मर्द को हाथ दिखाना और दूसरा उसके हाथ में हाथ देना।
हमारी इस्लामी माँ बहनों को चाहिए कि अल्लाह तआला से डरें, उसके अज़ाब से बचें और इस फ़ेले हराम को फौरन छोड़ दें। बाज़ार से चूड़ियाँ ख़रीद लिया करें और घर में या तो औरतें एक दूसरे को पहना दें या घर वालों में से किसी महरम से पहन लें या शौहर अपनी बीवी को पहना दें तो गुनाह से बच जायेंगी।
जो मर्द अपनी औरतों को मनिहारों से चूड़ियाँ पहनवाते हैं। या उससे मना नहीं करते वह बहुत बड़े बेगैरत और दयूस हैं।
सय्यिदी आलाहज़रत अलैहिर्रहमह इस मसअले के मुताल्लिक फरमाते हैं : -हराम हराम हराम हाथ दिखाना गैर मर्द को हराम, उसके हाथ में हाथ देना हराम ,जो मर्द अपनी औरतों के साथ उसे रवा रखते हैं दय्यूस हैं।
(फतावा रज़विया जिल्द १० निस्फ़ आख़िर सफ़ा 208)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 160)

Monday

क्या औरतों को जानवर ज़ुबह करना नाजाइज़ है?

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
औरत भी जानवर ज़ुबह(ज़िबह) कर सकती है और उसके हाथ का ज़ुबह किया हुआ जानवर हलाल है। मर्द और औरत सब उसे खा सकते हैं। मिश्कात शरीफ़ किताबुस्सैद वलज़िबाह सफ़ा 357 पर बुख़ारी शरीफ के हवाले से इसके जाइज़ होने की साफ़ हदीस मौजूद है जिसमें यह है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने एक लड़की के हाथ की जुबह की हुई बकरी का गोश्त खाने की इजाज़त दी।
मजीद तफसील के लिए देखिए सय्यिदी मुफ्ती आज़म हिन्द अलैहिर्रहमह का फतावा मस्तफ़विया जिल्द सोम सफ़ा 153 और फतावा रज़विया जिल्द 8 सफ़ा 328 और सफ़ा 332, -- खुलासा यह कि औरतों के लिए भी मर्दों की तरह हलाल जानवरों और परिन्दों को ज़ुबह करना जाइज़ है जो इसे ग़लत कहे वह खुद गलत और निरा जाहिल बल्कि शरीअत पर इफ्त्तिरा करने वाला है।
 समझदार बच्चे का जुबह किया हुआ जानवर भी हलाल है। और मुसलमान अगर बदकार और हरामकार हो तो ज़बीहा उसका भी जाइज़ है, नमाज़, रोज़े का पाबन्द न हो, उसके हाथ का भी ज़ुबह किया हुआ जानवर हलाल है। हाँ नमाज़ छोड़ना और हराम काम करना इस्लाम में बहुत बुरा है।
 दुर्रेमुख्तार में है:-ज़िबह करने वाले के लिए मुसलमान और आसमानी किताबों पर ईमान रखने वाला होना काफी है अगरचे औरत ही हो।
(दुर्रेमुख्तार, किताबुज़्ज़बाएह , जिल्द 2,सफहा,228,मतबअ मुजतबाई)
आलाहज़रत मौलाना शाह अहमद रजा खाँ अलैहिर्रहमह।फरमाते हैं।:-जुबह के लिए दीने समावी (आसमानी दीन) शर्त है, आमाल शर्त नहीं।
(फतावा रज़विया, जिल्द 8 सफ़ा 333)
हाँ जो लोग काफ़िर गैर मुस्लिम हों या उनके अक़ीदे की ख़राबी या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की शान में गुस्ताखी की वजह से उन्हें इस्लाम से ख़ारिज व मुरतद क़रार दिया गया है उनके का ज़बीहा हराम व मुरदार है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 160)

Friday

घर वालों को तंगी और परेशानी में छोड़ कर नफ़्ल इबादत करना

⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬⏬
कुछ लोगों को देखा गया है कि वह इबादत व रियाज़त में
लगे रहते हैं। इशराक,चाश्त,अव्वाबीन तहज्जुद की नमाज़ों को अदा करते, तस्बीह व वज़ीफे पढ़ते हैं और उनके बीवी बच्चे या बूढ़े और मुफलिस माँ बाप रोटी के टुकड़ों के लिए मुहताज और तेरा मेरा मुँह देखते नज़र  आते हैं। यह ऐसे लोगों की भूल है और वह नहीं जानते बन्दगाने खुदा में से हक वालों के हक अदा करना भी खुदाए तआला की इबादत और उसकी खुशनूदी हासिल करने का ज़रीया है। नफ्ल इबादत में मशगूलियत अगर बीवी बच्चों और मुफलिस माँ बाप के ज़रूरी इख़राजात से रोकती हो तो पहले बीवी बच्चों की किफ़ालत करे फिर वक़्त पाये तो नवाफिल में मशगूल हो। अलबत्ता पाँचों वक़्त की फ़र्ज़ नमाज़ हरगिज़ किसी सूरत माफ नहीं, उसकी अदाएगी हर हाल हर एक पर निहायत लाज़िम व ज़रूरी है, ख़्वाह कैसे भी करे और कुछ भी करे।

और आजकल इस दौर में अगर कोई शख्स सिर्फ फ़र्ज़ नमाजों को पाबन्दी के साथ बाजमाअत अदा करता हो, रमज़ान के रोज़े रखता हो अगर ज़कात फ़र्ज़ हो तो ज़कात निकालता हो, हज फर्ज़ हुआ हो तो ज़िन्दगी में सिर्फ एक बार हज कर चुका हो, और हराम काम मसलन शराब, जुआ, चोरी, ज़िनाकारी ,सूदखोरी, गीबत व बदकारी खयानत व बदअहदी, सिनेमा, गाने बाजे और तमाशों वगैरह से बचता हो और हत्तल इमकान यानी जहाँ तक हो सके सुन्नतों का पाबन्द हो और इसके साथ साथ जाइज़ पेशे के ज़रीए बीवी बच्चों की किफालत करता हो और ईमान व अकीदा दुरुस्त रहे तो यकीनन वह अल्लाह वाला है,अल्लाह  तआला का प्यारा है और वह अल्लाह तआला का मुकद्दस नेक बन्दा है। ख्वाह वह नफ्ल नमाज़े और नफ़ली इबादत अदा न कर पाता हो, वज़ीफ़े और तस्वीह, इशराक व चाश्त व अवाबीन वगैरह में मशगूल न रहता हो।
 हदीस पाक में है रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया- :" फ़र्ज़ इबादत के बाद हलाल रोज़ी की तलाश फ़र्ज़ है।"(मिश्कात शरीफ़ सफ़ा 242)

और फरमाते हैं :-"सबसे ज्यादा उम्दा व अफज़ल वह माल है जो तुम अपने घर वालों पर खर्च करो।" (मिश्कात सफा 170)
सदरुश्शरिया हज़रत मौलाना अमजद अली अलैहिर्रहमह फरमाते हैं, 'इतना कमाना फर्ज़ है जो अपने लिए और अहल व अयाल के लिए और जिन का नफ़का उसके ज़िम्मे वाजिब है, उनके नफ़के के लिए और कर्ज़ अदा करने के लिए किफायत कर सके।" (बहारे शरीअत हिस्सा 16 सफ़ा 218)
और फरमाते हैं, "क़दरे किफायत से ज़्यादा इसलिए कमाता है कि फुकरा व मसाकीन की ख़बरगीरी कर सके या करीबी रिश्तेदारों की मदद करे तो यह मुसतहब है और यह नपल इबादत से अफ़ज़ल है।” (बहारे शरीअत हिस्सा 16 सफ़ा 218)
फिर फरमाते हैं जो लोग मसाजिद और खानकाहों में बैठ जाते हैं और बसर औकात (गुज़ारे) के लिए कुछ काम नहीं करते और खुद को मुतवक्किल बताते हैं हालांकि उनकी निगाहें इसकी।मुन्तज़िर रहती हैं कि कोई हमें कुछ दे जाये,वह मुतवक्किल नहीं। इससे बेहतर यह था कि वह कुछ काम करते और उससे बसर औकात यअनी गुजारा करते।
इसी तरह आजकल बहुत से लोगों ने पीरी, मुरीदी को पेशा बना लिया है। सालाना मुरीदों में दौरा करते हैं और मुरीदों से तरह तरह की रकमें खसोटते हैं और उनमें कुछ ऐसे हैं कि झूट फ़रेब से भी काम लेते हैं, यह नाजइज़ है।
(बहारे शरीअत हिस्सा 16 सफ़ा 218)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 157)