Tuesday

छोटी तकतीअ में कुरआन 

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कुछ लोग बहुत ज़्यादा बारीक ख़त में लिखे हुये और बहुत छोटे साइज़ में कुरआन छापते हैं जिन्हें हमाइल शरीफ कहा जाता है बच्चों के गले में डालने के लिए तावीज़ की तरह पूरे कुरआन को बहुत बारीक और छोटा कर देते हैं यह नाजाइज़ है।
दुर्रे मुख्तार में हैः                                                                        يكره تصغير مصحف

यानी कुरआने करीम को छोटा बनाना  मकरूह है।
(दुर्रे मुख्तार ,किताब हजर वल इबाहत फस्ल फिलबैअ,जि.2 ,स.245) ।
आला हज़रत फरमाते हैं:
हजरत उमर फारूके आज़म रदियल्लाहु तआला अन्हु ने एक शख्स के पास कुरआन मजीद लिखा हुआ देखा है। इसको मकरूह रखा और उस शख्स को मारा।(फतावा रज़विया,जि.4,स.610)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 191)

गुर्दे खाने का मसअला

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गुर्दे खाना जाइज़ है लेकिन हुज़ूर अकदस सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने पसन्द न फरमाया इस वजह से कि पेशाब इसमें हो कर मसाने में जाता है ।
(अलमलफूज़ स.341 रज़वी किताब घर देहली)
इस का खुलासा यह है कि हलाल जानवर के गुर्दे खाये जा सकते हैं उन्हें खाना हराम नहीं लेकिन हजुर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम को ना पसन्द थे इसलिए न खाना बेहतर है ।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 191)

Sunday

तीजे के चनों का मसअला

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न्याज व फातिहा तीजे दसवीं,चालीसवीं,और तबारक वगैरा यह सब सिर्फ जाइज़ अच्छे और मुस्तहब काम हैं न शरअन फ़र्ज़ हैं न वाजिब न सुन्नत कोई न करे तब भी कोई हर्ज व गुनाह नहीं लेकिन आज कल उन कामों को इतना ज़रूरी समझ लिया गया है कि गरीब से गरीब आदमी के लिए भी उन का करना इतना ज़रूरी हो गया है कि ख्वाह कही से करे कैसे ही करे उधार कर्ज़ लेकर मगर करे ज़रूर यह सुन्नियत के नाम पर ज़्यादती हो रही है।

हक यह है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम और आप के सहाबा व ताबेईन के ज़माने में मय्यत को सवाब पहुँचाते और उसकी मगफिरत की दुआ के लिए सिर्फ जनाज़े की नमाज़ होती थी और किसी चीज़ का रिवाज़ न था यह सब काम बहुत बाद में राइज हुये कुछ मौलवियों ने उन्हें एक दम नाजाइज़ व हराम कह दिया सिर्फ इसलिए कि यह सब नये काम है। लेकिन उलमा-ए-अहले हक अहले सुन्नत वलजमाअत ने फरमाया कि यह सब काम अगचें नये हैं मगर अच्छे हैं बुरे नहीं लिहाज़ा जाइज़ हैं मुस्तहब हैं लेकिन उन्होने भी फर्ज़  या वाजिब या शरअन लाज़िम व ज़रूरी नहीं कहा मैंने इस बयान को तफ़सील व तहकीक के साथ अपनी किताब “बारहवीं शरीफ़ जलसे जुलूस"और दरमियान उम्मत में भी
लिख दिया है।
 आज कल बाज़ जगह तो गरीब से गरीब आदमी के लिए भी इस न्याज़ व फातिहा के रिवाज़ो को जो ज़रूरी खियाल किया जा रहा है यह बड़ी ज़्यादती है ।

तीजे के मौके पर जो चनों पर कलमा पढने का मुआमला है इसकी हकीकत सिर्फ इतनी है कि एक हदीस में यह आया है कि जो सत्तर हजार 70000/मर्तबा कलमा पढ़े या किसी दूसरे को पढ़ कर बख्शे तो इस की मगफिरत
हो जाती है।

आला हज़रत फरमाते हैं:
कलमा तय्यबा सत्तर हज़ार(70000) मर्तबा मअ दुरूद शरीफ पढ़ कर बख्श दिया जाये इन्शाअल्लाह पढ़ने वाले और जिस को बख्शा है दोनों के लिए ज़रीआ निजात
होगा। (अलमलफूज, जि.1 ,स.103/मतबूआ रज़वी किताब घर देहली)

 हजरत मौलाना अली कारी मक्की रहमतुल्लाहि तआला अलैहि ने भी मिरकात शरह मिश्कात किताबुस्सलात
बाब मा अललमामूमे मिनलमुताबअत फस्ले सानी, स.102 में इस हदीस को नकल किया है।
 अन्वारे सातिआ स.232/पर भी मिरकात शरह मिश्कात के हवाले से यह सत्तर हजार की हदीस मन्कूल है।
बुज़ुर्गों ने इस गिन्ती को पूरा करने के लिए साढ़े बारा सेर दरमियानी किस्म के चनों का अन्दाजा लगाया था।

आज कल की नई तोल के मुताबिक चुंकि “किलो इस सेर से कुछ छोटा होता है लिहाजा साढ़े चौदह किलो या फिर ज्यादा से ज्यादा पन्द्रह किलो चनों में पूरा सोयम् यानी सत्तर हजार बार कलमा मुकम्मल हो जायेगा।
 बरेली शरीफ से शाइअ फतावा मरकज़ी दारूलइफता में है।
चने की मिक़दार शरअन मुतअय्यन नहीं हाँ हदीस पाक में यह आया है कि "जिस ने या जिस के लिए सत्तर हज़ार कलमा शरीफ पढ़ा गया अल्लाह तआला अपने फज़ल व करम से उसे बख्श देता है। लोगों ने अपनी आसानी के लिए चने इख्तियार कर लिए कि उस में शुमारे कलमा  है और बाद में सदका भी और मशहूर है कि साढ़े बारह सेर चने में यह तादाद पूरी हो जाती है।
(फ़तावा मरकज़ी, दारूलइफता स.302)
कुछ मुल्लाजी लोग 32 बत्तीस किलो चने ख़रीदवाते है यह उन की ज़्यादती है खास कर गरीबों मजदूरों पर तो एक तरह का ज़ुल्म है और वह सोयम के चने पढ़ने की मज्लिस हो या कोई और आम लोगों को जमा कर के बहुत देर तक बैठाना भी इस्लामी मिजाज़ के खिलाफ है।
आला हज़रत फरमाते हैं:
शरीअत मुत्तहरा रिफक व तन्सीर (नर्मी और आसानी)को पसन्द फ़रमाती है न कि मआज़ल्लाह तदीक व तशदीद (तंगी और सख्ती) (फतावा रजविया जदीद11/151)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 188)

Saturday

नूर नामा और शहादत नामे

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"नूर नामा'नाम से एक किताब उर्दू नज़्म में खूब पढ़ी जाती है उस में हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की पैदाइश का वाकिआ और आप के नूर का किस्सा जिस तरह बयान किया गया है वह बे असल और गलत है किसी मुस्तनद व मोअतबर हदीस व तारीख की किताब में उस का ज़िक्र नहीं ।
ऐसे ही शहादत नामा नाम से जो किताबें हज़रत सय्यदिना इमाम हसन और सय्यदिना इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हुमा के वाकिआत व हालात से मुतअल्लिक राइज हैं वह भी अकसर गलत बे सरोपा वाकिआत व हिकायत पर मुश्तमिल हैं।

आला हज़रत फरमाते हैं:
नूर नामे के नाम से जो रिसाला मशहूर है उस की रिवायत बे असल है उसको पढ़ना जाइज़ नहीं।
(फतावा रज़विया जदीद, जि.26,स.610)

और फ़रमाते हैं:
शहादत नामे नज़्म या नसर जो आजकल अवाम में राइज हैं अकसर रिवायते बातिला व बे सरोपा से ममल और अकाज़ीब मोज़ूआ (गढ़ी हुई झूटी हिकायतें) पर मुश्तमिल हैं ऐसे बयान का पढ़ना सुनना मुतलकन हराम व नाजाइज़ है। (फतावा रज़विया, जदीद जि.24 ,स.513)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 188)

Thursday

क्या कब्र पर तख्ते रखने में मर्द व औरत में फर्क है?

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कुछ लोग पूछते हैं कि मय्यत को कब्र में रखने के बाद अगर मर्द हो तो तख़्ते लगाना किधर से शुरू करना चाहिए सिरहाने या पाइंती से और औरत के लिए किधर से मसअला यह है कि मर्द हो या औरत तख़्ते सिरहाने से लगाना शुरू करें और दोनों में फर्क समझना गलती है।
(फतावा मुस्तफविया स.271 मतबूआ रज़ा एकेडमी मम्बई)
यानी दोनों के तख्ते सिरहाने से शुरू किये जायें।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 187)

क्या औरत पीर हो सकती है?

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औरत का पीर बनना मुरीद करना जाइज़ नहीं न मर्दों को न औरतों को। आज कल तो यह तक सुनने में आया है कि औरतें पीर बन कर मुरीदों में दौरे तक करने लगी हैं।

यह सब गलत बातें और औरतों का पीरी मुरीदी करना सही नहीं।
इमाम अब्दुलवहाब शोअरानी अपनी मशहूर किताब मीज़ानुश्शरीअतुल कुबरा में तहरीर फरमाते हैं:
قد اجمع اهل الكشف على اشتراط الذكورة فى كل داع الى    الله
बुज़ुर्गों का इस बाबत पर इत्तिफ़ाक है कि दाई इलल्लाह होने के लिए मर्द होना शर्त है ।
(मीज़ानुश्शरीअतुल कुबरा बाबुल अक़्ज़िया जि.2,स.189)

आज कल औरतों के जलसे हो रहे हैं और औरतों को मुबल्लेगा और मुकर्रिरा बना कर जगह जगह घुमाया जा रहा है यह भी सब मेरी समझ में नहीं आता।
और इमाम अब्दुलवहाब शोअरानी का जो कौल हमने नकल किया उससे भी हमारे ख्याल की ताईद होती है।
वल्लाहु तआला अअलमु 

आला हज़रत फरमाते हैं:
सलफ़ सालेहीन से ले कर आज तक कोई औरत न पीर बनी न बैअत किया 
(फतावा रज़विया जदीद,जि.21,स.494)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 187)

हज़रत बिलाल के अज़ान न देने का वाकिआ

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हजरत बिलाल रदियल्लाहु तआला अन्हु के मुतअल्लिक एक वाकिआ बयान किया जाता है कि एक मर्तबा कुछ हज़रात ने उन की अज़ान पर एतराज़ किया वह शीन को सीन कहते हैं हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने उन को माजूल कर दिया और किसी दूसरे साहब ने अज़ान दी तो सुबह न हुई जब अज़ान हज़रत बिलाल ने दी तब सुबह हुई।
यह वाकिआ बे असल है मुस्तनद व मोअतबर हदीस व तारीख की किताबों में कही नहीं जो साहब बयान करें। उन से मालूम करना चाहिए कि उन्होंने यह वाकिआ कहाँ देखा। और यह हदीस कि हज़रत रसूल पाक सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमायाः
                                  سين بلال عند الله شين
  बिलाल की सीन भी अल्लाह के नज़दीक शीन है।
     इस हदीस को हज़रत मौलाना अली कारी मक़्क़ी रहमतुल्लाहि तआला अलैहि ने गढ़ी हुई फ़रमाया है।
(मौज़ूआत कबीर स 43,फतावा बहरूल उलूम जि.5,स.380)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज  186)

क्या इमाम के लिए मुकतदियों की नियत करना ज़रूरी है?

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बाज़ जगह कुछ ना ख्वान्दे जाहिल लोग इमामों को परेशान करते हैं और उन से इमामत की नियत पूछते हैं। हालांकि इमाम के लिए अलग से मुक्तदियों की इमामत की नियत करने की कोई ज़रूरत नहीं।
फतावा आलम गिरी में है:
والا ما ينوى ماينوى المنفرد ولا يحتاج الى نيت الا ماماة
और इमाम भी वही नियत करेगा जो अकेला आदमी नियत करता है और इमाम को इमामत की नियत की कोई ज़रूरत नहीं ।
(फतावा आलम गिरी जि.1,बाब 3,फ़स्ल4,स.66)
और ज़बान से नियत के अल्फाज़ अदा करना तो किसी के लिए भी किसी नमाज़ में ज़रूरी नहीं क्योंकि नियत दिल के इरादा का नाम है। उस की तफ़सील हम ने अपनी किताब
इमाम और मुकतदी में लिखी है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 185)

औरत का कफ़न मैके वालों के ज़िम्मे लाज़िम समझना

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यह एक गलत रिवाज़ है l यहॉ तक कि कुछ जगह मैके वाले अगर नादार व गरीब हों तब भी औरत का कफन उनको देना जरूरी ख्याल किया जाता है और उनसे जबरदस्ती लिया जाता हैं और उन्हें ख्वाह सताया जाता है  हालाकि इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है ।
मसअला यह है कि मय्यत का कफन अगर मय्यत ने माल न छोडा हो तो जिन्दगी में जिसके ज़िम्मे उसका नान व नफका  था वह कफ़न दे और औरत के बारे में  खास तौर से यह है कि उसने अगरचे माल छोडा भी हो तो तब भी उसका कफन शौहर के जिम्मे है I (बहारें शरीअत हिस्सा 4 सफहा 139)
खुलासा यह है कि औरत का कफन या दूसरे खर्चे मैके वालों के ज़िम्मे ही लाज़िम ख्याल करना और बहरहाल उनसे दिलवाना, एक गलत रिवाज़ है, जिसको मिटाना ज़रूरी है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 59)

मय्यत के बाद और बच्चे की पैदाइश के बाद पूरे घर की पुताई सफाई को ज़रूरी समझना

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कुछ लोग घर में मय्यत हो जाने या बच्चा पैदा होने के बाद घर की पुताई कराते हैं और समझते है कि घर नापाक हो गया उसकी धुलाई सफाई और पुताई कराना ज़रूरी है I हालाकि यह उनकी गलतफ़हमी है और इस्लाम में ज्यादती हैI यूँ पुताई सफाई अच्छी चीज है ,जब ज़रूरत समझे करायें लेकिन क्या पैदा होने या मय्यत हो जाने की क्या वजह से उसको कराना और लाजिम जानना जाहिलों वाली बातें हैं, जिन्हें समाज से दूर करना जरूरी है ।
 (गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 60)

मय्यत के सर में कंघी करना

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कुछ जगह मय्यत को ग़ुस्ल देने के बाद तजहीज़ व तकफीन के वक़्त उसके बालों में कंघी करने लगता हैं, यह मना हैं कि हज़रते सय्यदिना आइशा सिद्दिक़ा रदियल्लाहु अन्हा से मय्यत के सर में कंघी करने के बारे में सवाल किया गया तो आपने मना फ़रमाया कि क्यूँ अपनी मय्यत को तकलीफ पहुँचाते हो।
(फतावा रज़विया ,जिल्द 4,सफहा 33,बहवाला किताब उल आसार इमाम मुहम्मद)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 60)

Wednesday

नमाज़े जनाज़ा में तकबीर के वक़्त आसमान की तरफ मुँह उठाना

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आजकल काफी लोग ऐसा करते हुए देखे गए हैं कि जब नमाज़े जनाज़ा में तकबीर कही जाती है तो हर तकबीर के वक़्त ऊपर की जानिब मुँह उठाते हैं हालाकिं इसकी कोई अस्ल नही बल्कि नमाज में आसमानकी तरफ़ मुह उठाना मकरूहे तहरीमी है l (बहारे शरीअत) और हदीस शरीफ में है रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया* क्या हाल है उन लोगों का जो नमाज़ में आसमान की तरफ आँखे उठाते हैं इससे बाज़ रहें या उनकी आँखें उचक ली जायेगी* ।
(मिश्कात ब हवाला सहीह मुस्लिम सफ़हा 90)
खुलासा यह कि नमाज़े जनाज़ा हो या कोई और नमाज़ कसदन आसमान की तरफ नज़र उठाना मकरुह है और नमाज़े जनाज़ा मे तकबीर वक़्त ऊपर को नज़र उठाने का जो रिवाज़ पड़ गया है यह गलत है, बे अस्ल है ।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 

मय्यत का खाना

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मय्यत के तीजे, दसवें या चालीसवें वगैरहा के मौके पर दावत करके  खाना खिलाने का जो रिवाज है यह भी महज़ गलत है और खिलाफे शरअ है I हाँ गरीबों और  फकीरों को बुलाकर खिलाने में हरज नही । *आला हज़रत फरमाते हैं मुर्दे का खाना सिर्फ फकीरो के लिए है आम दावत के तौर पर जो करते है यह मना है गनी न खाए*।
(अहकामे शरीअत , हिस्सा दोम, सफ'हा 16 )

*और फरमाते हैं मौत में दावत बे मअना है फ़तहुल कदीर में इसे बिदअते मुसतकबहा फरमाया* I

(फतावा रजविया, जिल्द 4 ,सफहा 221)

शौहर का बीवी के जनाज़े को उठाना

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अवाम में यह ग़लत मशहूर है कि शौहर बीवी के मरने के बाद न देख सकता है न उसके जनाज़े को हाथ लगा सकता है और न कान्धा दे सकता है I

सही बात यह है कि शौहर के लिए अपनी बीवी को मरने वो बाद देखना भी जाइज़ है और उसके जनाज़े को उठाना और कान्धा देना, कब्र में उतारना भी जाइज है । (फतावा रज़विया, जिल्द 4, सफहा, 91)

मय्यत को ग़ुस्ल देने के बाद ग़ुस्ल करना

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मय्यत को गुस्ल देने के बाद गुस्ल करना अच्छा है लेकिन जरूरी नहीं कि जिस ने मय्यत को गुस्ल दिया हो वह बाद में खुद गुस्ल करे इसको जरूरी ख्याल करना गलत है ।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 19)

नमाज़े जनाज़ा के बाद उसी वुज़ू से दूसरी नमाज़ पढ़ना कैसा है? 

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कुछ जगहों पर लोग समझते हैं कि जिस वुज़ू नमाज़ जनाज़ा पढ़ी हो उससे दूसरी नमाज़ नही पढ़ी जा सकती हालांकि यह गलत और बे-अस्ल बात है। बल्कि इसी वुज़ू से फ़र्ज़ हो या सुन्नत व नफ्ल हर नमाज़ पढ़ना ठीक है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 19)

Tuesday

हिजड़े की नमाज़े जनाज़ा

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कुछ लोग हिजड़े की नमाज़े जनाज़ा पढ़ने न पढ़ने के बारे शक करते हैं कि पढ़ना जाइज़ है या नहीं तो मसअला यह है कि हिजड़ा अगर मुसलमान है तो उस की नमाज़े जनाज़ा पढी जायेगी और उस को मुसलमानों के कब्ररिस्तान में दफन किया जायेगा।
कुछ लोग पूछते हैं कि हिजड़े की नमाज़ की नियत और उस में जो दुआ पढ़ी जायेगी वह मरदों वाली हो या औरतों वाली शायद उन लोगों को यह मालूम नहीं कि मरदों और औरतों की नमाज़े जनाज़ा और उस की नियत में कोई फर्क नहीं दोनों का तरीका एक ही है और वहीं तरीका हिजड़े के लिए भी रहेगा। हाँ नाबालिग बच्चे और बच्ची की दुआ में फर्क है और वह बहुत मामूली ज़मीरों का फर्क है तो अगर हिजड़ा नाबालिग बच्चा हो तो उस के लिए लड़के वाली दुआ पढ़ दें या लड़की वाली हर तरह नमाज दुरूस्त हो जायेगी ।
(फतावा रज़विया जदीद ज•9 ,स•74 ,फतावा बहरुल उलूम जि•5 ,स•174)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 185)

जूते चप्पल पर खड़े हो कर जनाज़े की नमाज़ पढ़ने का मअसला

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जनाज़े की नमाज़ आम तौर पर खाली पडे रास्तों और खेतों मैदानों वगैरा में पढ़ी जातीहै। कुछ लोग इन ज़मीनों को नापाक ख्याल करते हुये जूते चप्पल उतार उन पर खड़े हो कर नमाज़ अदा कर लेते हैं तो ऐसा करना जाइज़ बल्कि बेहतर है और नमाज़ दुरूस्त हो जायेगी किसी चीज़ मिटटी,कपड़े,बदन ज़मीन वगैरा के पाक और नापाक होने की तीन सूरतें हैं।
1- यकीन से पता है कि वह पाक है।
2- यकीन से पता है कि वह नापाक है।
3- इस के पाक और नापाक होने में शक है। पता नहीं
कि पाक है या नापाक है।
 पहली सूरत में तो वह पाक है ही लेकिन तीसरी सूरत में भी जब कि उसके पाक और नापाक होने में शक हो तब भी इस को पाक माना जायेगा नापाक नहीं,नापाक तभी कहेंगे जब नापाकी का यकीन हो या गालिबे गुमान।
कोई भी ज़मीन जब तक इस के नापाक होने का पता न हो वह पाक कहलायेगी आप इस पर खड़े हो कर बगैर कुछ बिछाये भी नमाज़ पढ़ सकते हैं।
जूते का तला भी जब खूब पता हो कि इस पर कोई नापाक चीज़ लगी है तभी उस को नापाक कहा जायेगा। सिर्फ शक व शुब्ह की बिना पर नापाक नहीं कहा जा।सकता जूते के तला पाक हो सकता है उलमा-ए-किराम ने फरमाया कि जूते की तले पर अगर कोई नापाक चीज़ लगी भी हो, उस को पहन कर चला। घास या मिटटी पर कुछ देर चलने से जो रगढ़ पैदा हुई उस से भी जूते का तला पाक हो सकता है।
अब इस सिलसिले में मसाइल की तफ़सील हस्बे
ज़ैल है।
ज़मीन अगर नापाक है यानी उस के नापाक होने का यकीन है उस के ऊपर नंगे पैर खड़े हो कर बगैर कुछ बिछाये नमाज़ पढ़ी नमाज़ नहीं होगी।
ज़मीन अगर पाक है या उसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता कि पाक है या नापाक तो उस पर बगैर कुछ बिछाये नंगे पैर खड़े हो कर नमाज़ पढ़ी जा सकती है।
ज़मीन नापाक है लेकिन जूते पहन कर नमाज़ पढी और जूते का तला पाक है नमाज़ सही हो जायेगी।
 ज़मीन भी नापाक है जूते का तला भी नापाक है। लेकिन जूते उतार कर उन पर खड़े हो कर नमाज़ पढ़ी नमाज़ हो जायेगी क्योंकि अब उस नापाकी का बदन जिस्म से कोई तअल्लुक नहीं और अगर पहने हो तो वह नापाकी जिस्म का हिस्सा मानी जायेगी।
खुलासा यह है कि ज्यादा एहतियात उसी में है कि जूते उतार कर उन पर खड़े हो कर नमाज अदा करे यह सब से बेहतर और मुहतात तरीका है।
आला हज़रत फरमाते हैं: ।
अगर वह जगह पेशाब वगैरा से नापाक थी या जिस
के जूतों के तले नापाक थे और उस हालत में जूता पहने हुये नमाज़ पढ़ी उन की नमाज़ न हई। एहतियात यही है।
कि जूता उतार कर उस पर पाव रख कर नमाज़ पढ़ी जाये। कि ज़मीन या तला अगर नापाक हो तो नमाज़ में खलल न
आये ।(फतावा रज़विया जदीद 9/188)
और एक मकाम पर लिखते हैं।
अगर कोई शख्स बहालते नमाज निजासत पर खड़ा हुआ और उसके दोनों पैरों में जूते या जुराबे हैं तो उसकी नमाज़ सही न होगी और अगर यह चीज़ें जुदा है तो हो जाएगी । (फ़तावा रज़विया जदीद 962)
  एक जगह लिखते हैं :- शुबह से कोई चीज़ नापाक नहीं होती कि असल तहारत है।
   ( फतावा रज़विया जदीद जि•4,स•394)
   (गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 183)

Sunday

गमी का चाँद गमी की ईद

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इस्लाम में तीन(3) दिन से ज़्यादा किसी मैयत का गम मनाना यानी जान बूझ कर ऐसे काम करना जिस से गम ज़ाहिर हो नाजाइज़ है ऐसे ही किसी के गम में चाँद को
गम का चाँद या किसी महीने का गम को महीना कहना मना है।
जिस घर में किसी का इन्तिकाल हो गया हो उस के बाद जब पहली ईद आती है तो इस ईद को इस घर वालों के लिए कुछ औरतें गमी की ईद कहती हैं ईद के दिन मैयत के घर की औरतों से मिल जुल कर खूब रोती हैं यह सब गैर इस्लामी बातें हैं।
ईद का दिन इस्लामी त्यौहार और खशी का दिन है। न कि रोने और पीटने का दिन। उस दिन कोई गम हो भी तो इस को ज़ाहिर न करे दिल में रहने दे चेहरे पर गम व रंज के आसार ज़ाहिर न होने दे चेहरे से खुशी और हंस मुख रहे।
हदीस पाक में है हुज़ूर पाक सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम जब मदीने तशरीफ लाये तो मदीने के लोग साल में दो मर्तबा खुशी मनाते थे। (महरगान और नीरोज़) हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने पूछा यह कौन से दिन हैं? लोगों ने कहाःज़माना-ए-जाहिलियत में हम इन दिनों में खुशी मनाते थे हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया अल्लाह तआला ने उनसे बेहतर दो (2) दिन अता फरमाये है ईदुल फित्र और ईदुज़्ज़हा। (अबूदाऊद बाब सलातुल ईदैन हदीस 1134 स,161)

 इस हदीस से खूब ज़ाहिर हो गया कि ईद का दिन खुशी मनाने का दिन है गम मनाने रोने पीटने का दिन नहीं। सदरुश्शरीआ मौलाना अमजद अली साहब आज़मी रहमतुल्लाहि तआला अलैहि फ़रमाते हैं:
ईद के दिन खुशी जाहिर करना मुस्तहब है।
(बहारे शरीअत,4/781 मतबूआ मकतबतुलमदीना देहली)
कुछ जगहों पर शबे बरात और मुहर्रम के चाँद को औरतें गमी का चाँद कहती हैं और नई दुल्हन के लिए ज़रूरी ख्याल किया जाता है कि वह यह चाँद सुसराल में न देखे बल्कि मैके में आकर देखे तो यह सब जाहिल औरतों की मन गढंत वहम परस्ती की बातें हैं उन से बचना ज़रूरी है।कोई भी औरत कोई सा चाँद कही भी देख सकती है हाँ जवान लड़कियों और औरतों को खुली छतों पर चाँद देखने के लिए चढना मना है ताकि बे पर्दा न हो।

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 181)

इस्लाम में सब से अच्छा काम

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इस्लाम में सब से अच्छा काम पाँचों वक़्त की नमाज़ की पाबन्दी है और मस्जिदों को बनाना और उन्हें नमाज़ व अज़ान से आबाद करना और आबाद रखने के लिए कोशिश करना है मस्जिद के साज व सामान लौटे चटाई वज़ू का इन्तिज़ाम इस की देख भाल सफाई करने वाले अज़ान देने वाले मुअज़्ज़िनों और नमाज़ पढ़ाने वाले इमामों का ख्याल करना और उन्हें हर तरह खुश रखना,बेहतरीन काम है और इस सिलसिले में जो खर्चा हो वह बेहतरीन खर्चा है।
आला हज़रत मौलाना अहमद रज़ा खाँ बरेलवी रहमतुल्लाहि तआला अलैहि फ़रमाते हैं।
"ईमान के बाद पहली शरीअत नमाज़ है।"
 (फतावा रज़विया जदीद जि.5 स 83)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 181)

Friday

सब से बेहतर मुसलमान 

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आजकल कुछ लोग तो वह हैं कि दुनिया के काम धंधों में लग कर दीन को बिलकुल भुला बैठे हैं। जैसे कि उन्हें सब दिन दुनिया में रहना है। और कुछ वह हैं कि दीनदार बने तो काम धंदा छोड़ बैठे काहिल,सुस्त और आराम तल्ब हो गये या इस चक्कर में हैं कि इसी दीनदारी की नाम पर लोग हमें कुछ दे जायें। इन दोनों किस्म के लोग से इस्लाम की सही तरजुमानी नहीं होती। सब से बेहतर मुसलमान वह है जो अपना कुछ काम धंधा करता हो । साथ ही साथ नमाज़ रोज़े का पाबन्द, दीनदार मुसलमान हो,हलाल व हराम में फ़र्क रखता हो।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 180)

Sunday

इस ज़माने की एक बड़ी नेकी 

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अगर आप अपनी,अपने बेटे या भाई की शादी करना हैं। और आप के अजीजों,करीबों,रिशते दारों या अहले
ना में कोई गरीब लड़की है। जिस से आपका रिशता शअन दुरूस्त है,तो उस से बगैर खर्चा कराये बगैर बारात वगैरा चढ़ाये हुये और बगैर जहेज लिए हुये और दम सादा निकाह कीजिए जैसे कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने किए थे। और उस को साथ इज़्ज़त के अपने घर में बीवी बना कर रखिये। यह ज़माने की बहुत बड़ी हमदर्दी और नेकी है। और ऐसा करने वालों को जिहाद का सवाब मिलेगा। आज लोग ख्वाम ख्वाह की हमदर्दियाँ तो दिखाते हैं। अज़ीज़ों, रिशते दारों और खान्दान वालों की तरफ से लड़ने मरने को तैयार जाते हैं। लेकिन जवान लड़कियां घरों में पल रही हैं। उनकी वजह से लोग परेशान हैं और यह उनके रिशते मन्ज़ूर नहीं करते। हमदर्दी इस का नाम है कि आप के अज़ीज़ को जो परेशानी हो वह दूर की जाये। जब्कि वह आप के बस की बात है। यह कहाँ की हमदर्दी,रिशतेदारी और कराबत है कि आप दौलत और मालदारी की वजह से इधर उधर रिशते तलाश कर रहे हैं। और आप के अज़ीज़ अपनी लड़की के लिए परेशान और दुखी हैं।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 179)

Saturday

बेवुज़ू अजान पढ़ने का मसअला

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बेवुज़ू अज़ान नहीं पढ़ना चाहिए। लेकिन अगर कोई पढ़ दे तो अज़ान दुरूस्त हो जाती है और उस अज़ान के बाद जो नमाज़ पढ़ी जायेगी वह भी दुरूस्त है। लेकिन बेवुज़ू अज़ान पढ़ने की आदत डाल लेना मुनासिब नहीं है।

आला हज़रत फरमाते हैं।
 “बेवज़ू अज़ान पढ़ना जाइज़ है,बई माना कि अज़ान हो जायेगी लेकिन चाहिए नहीं ।
 (फतावा रज़विया,जि.5,स.373 )

खुलासा यह कि कभी बे वुज़ू भी अज़ान पढ़ी जा सकती है। लेकिन बेहतर और अच्छा तरीका यही है कि अज़ान बावुज़ू पढ़ी जाये।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 179)

क्या इस्लाम में ताजियादारी जाइज़ है?

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कुछ लोग मुहर्रम और सफ़र के महीने में ताजिये बनाते उन्हें ढोल बाजों के साथ घुमाते और उनके साथ सीना पीटते,मातम करते हुये उन्हें नक्ली और फर्ज़ी कर्बला में ले जा कर दफन करते हैं। यह सब बातें इस्लाम में मना हैं, नाजाइज़ व गुनाह हैं।
 प्यारे इस्लामी भाइयो! हमारा आपका प्यारा मज़हब जो "इसलाम" है,वह एक साफ सुथरा, संजीदा और शरीफ
अच्छा भला,सीधा सच्चा मज़हब है। वह खेल तमाशों, गाने
बाजों,ढोल ढमाकों, नाच,कूद फांद,मातम और सीना कूबी
वाला मजहब नहीं है। आजकल की ताजियेदार और उसको
जाइज़ बताने वाले,दुनिया को यह ज़हिन दे रहे हैं कि इस्लाम भी दूसरे धर्मों की तरह मेलों ठेलों और खेल तमाशों
वाला मज़हब हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि ताजिये बनाना जाइज़ है,उसको घुमाना वगैरा नाजाइज़ है। यह बात भी एक दम दुरूस्त नहीं बल्कि आजकल जो ताजिया बनाया जाता है,उस को बनाना भी मना है क्योंकि यह हज़रत इमाम हुसैन के रौज़े और मज़ार का सही नुक्शा नहीं। बल्कि इजाज़त सिर्फ इतनी है कि हजरत इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु के मज़ार पुर अन्वार का सही नक्शा किसी कागज़ वगैरा पर बना हुआ अपने पास या घर में रखे जैसे खाना-ए-काबा,गुंबदे खजरा,बगदाद शरीफ अजमेर शरीफ वगैरा के बने हुये नक्शे कलन्डरों वगैरा में और अलग से भी आते हैं और लोग बरकत हासिल करने के लिए उन्हे घरों में टांगते हैं।(हवाले और तफसील से जानने के लिए देखिये फतावा रज़विया जि.10 किस्त अव्वल स.36)

मुहर्रम के महीने की 7,12,13 तारीख को जो मेहंदी बनाई या निकाली जाती है,यह भी एक बेकार और गढ़ी हुई रस्म है ,राफ़ज़ी और शीआ मज़हब की पैदावार है, इस्लाम का इस से कोई तअल्लुक नहीं,जिहालात का नतीजा है।
अहले सुन्नत वलजमाअत का मज़हब यह है कि हज़रत इमाम हुसैन और दूसरे शहीदाने करबला और  बुज़ुर्गाने दीन से सच्ची मोहब्बत यह है कि उनके नक्शे क़दम पर चला जाये और उनके रास्ते तरीके,ढंग और चाल चलन को अपनाया जाये। और उसके साथ साथ उनकी रूह को सवाब पहुँचाने के लिए नफ़िल पढ़े जायें,रोज़े रखे जायें,कुरआने करीम की तिलावत की जाये या सदका खैरात कर के अहबाब दोस्तों, रिशतेदारों या गरीबों मिस्कीनों को खाना,खिचड़ा,हलवा,मलीदा जो मयस्सर हो वह खिला कर उस का सवाब उनकी पाक रूहों को पहुँचाया जाये,जिस को फ़ातिहा कहते हैं, तो यह बे शक जाइज़ उम्दा और अच्छा काम है और उस से अल्लाह तआला राज़ी होता है। और अपने रब की रज़ा हासिल करना हर मुसलमान के लिए हर ज़रूरत से ज़्यादा ज़रूरी है। और न्याज़,फातिजा,सदका,खैरात में भी यह ज़रूरी है कि अपने नाम शोहरत और दिखावे के लिए न हो। बल्कि।जो भी और जितना भी हो खालिस अल्लाह तआला की रज़ा हासिल करने और बुज़ुर्गों को सवाब पहुँचाने के लिए हो। आजकल कुछ लोग लम्बी लम्बी न्याज़े दिलाते,खूब देगें पका पका कर खिलाते है और उनका मकसद अपनी नामवरी और शौहरत होता है और वह दिखावे के लिए ऐसा करते हैं। उनकी यह नियाज़ै कबूल नहीं होंगी।

यह भी सुन्ने में आया है कि कोई शख्स ताजियेदारी और उसके साथ की जाने वाली खुराफात से मना करे । कुछ लोग उसे वहाबी कह देते हैं और समझते हैं। ताजियेदारी सुन्नियों का काम है और उस से मना करना वहाबियों का तरीका है। हांलाकि ऐसा नहीं बल्कि कभी किसी सही सुन्नी आलिम ने ताजियेदारी को जाइज़ नहीं कहा है बल्कि सब ने हमेशा नाजाइज़ व गुनाह लिखा और आला हज़रत मौलाना अहमद रजा खाँ फाज़िले बरेलवी रहमतुल्लाहि तआला अलैहि की किताबों में तो जगह जगह उसको हराम बताया गया है और उस बारे में उनके फतावा का मजमूआ एक किताब की शक्ल में छप भी चुका है जिस का नाम रिसाला-ए-ताजिये दारी है। लिहाजा जो हमारे भाई तफ़सील से इस मसअले को पढ़ना चाहें वह सुन्नी कुतुब ख़ानों से इस रिसाले को हासिल कर के पढ़ें।

और जो मौलवी ताजियेदारी को जाइज़ कहते हैं, वह ऐसा पब्लिक को खुश करने और उन से प्रोग्रामो के ज़रिए नज़राने वगैरा हासिल करने के लिए करते हैं। उन्हें चाहिए कि पब्लिक को खुश रखने के बजाये अल्लाह तआला और उस के रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम  को राज़ी रखने की फिक्र करे क्योंकि हराम को हलाल बताने वालों की जब क़ब्र व हश्र में पिटाई होगी तो यह पब्लिक बचाने नहीं जायेगी और उन जलसों प्रोग्रामों और नज़रानों की रकमों के ज़रीए वहाँ जान नहीं छूटेगी। बल्कि यही ताजियेदार जिन को खुश रखने के लिए यह मौलवी गलत मसअले बताते हैं,कयामत के दिन उनका दामन पकड़ेंगे।

यह भी मुम्किन है कि ताजियेदारी और उस के साथ की जाने वाली खुराफातों को जाइज़ कहने वाले मौलवी वहाबियों के एजेन्ट हों और उनसे खुफिया समझौता किये हुये हों क्योंकि वहाबियत को उस ज़रिये से फायदा  पहुँचता


और काफी लोग अपनी जिहालत की वहज से हमारे माहौल में खिलाफे शरअ हरकात देख कर वहाबियों की तारीफ करने लगते हैं हांलाकि यह उन की भूल है और सुन्नी उलमा की किताबें न पढ़ने का नतीजा है।

हाँ इतना जानना ज़रूरी है कि वहाबी ताजियेदारी को शिर्क और ताजियेदारों को मुशिरक व काफ़िर तक कह देते हैं। लेकिन सुन्नी उलमा उन्हें मुसलमान और अपना भाई ही ख्याल करते हैं। बस बात इतनी है कि वह एक गुनाह कर रहे हैं। खुदाए तआला उन्हें इस से बचने की तौफिक अता फरमाये । ताजियेदारी से मुतअल्लिक तफसीली मालमात हासिलकरने के लिए मेरी किताब मुहर्रम में क्या जाइज़ क्या नाजाइज़ का मुताला करें |
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 176)

Tuesday

बोहनी के मुतअल्लिक गलत ख्यालात

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खरीद व फरोख्त के मुआमले में सवेरे को जो सबसे पहली रकम हासिल होती है, उसको ‘बोहनी' कहते हैं। आमतौर से लोग पहली सौदा न पटे और पहला ग्राहक वापस चला जाये तो इस बात को बुरा मानते हैं और कहते हैं कि बोहनी खराब हो गई और इससे सारे दिन की दुकानदारी के लिए बदशगुन लेते हैं। ये सब काफिरों और गैर मुस्लिमों की बातें और वहमपरस्तियाँ हैं, जो मुसलमानों में भी पैदा हो गई हैं। एक मुसलमान के लिए ज़रूरी है कि वह इन ख्यालात को दिल में जगह न दे और यह अकीदा रखे कि नफा नुकसान का मालिक अल्लाह तआला है जब जिसको जो चाहे अता फरमाये और बोहनी खराब होने से कुछ नहीं होता।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 175)


Friday

 

छींक आ जाये तो बदशगुन मानना 

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कुछ जगहों पर बाज़ हमारे अनपढ़ मुसलमान भाई छींक आने को बुरा जानते हैं और उससे बदशगुनी लेते हैं हालांकि छींक आना इस्लाम में अच्छी बात है और छींक अल्लाह तअाला को पसन्द है। लिहाज़ा जिसको छींक आये, वह अल्लाह तआला का शुक्र करे। हदीस शरीफ में है, हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम  फरमाते हैं :-
बेशक अल्लाह तआला छींक को पसन्द और जमाही का
नापसन्द फ़रमाता है तो जिसको छींक आये वह "अल्हम्दु लिल्लाह" कहे और जो दूसरा शख्स उसको सुने वह जवाब दे (यानी ‘यरहमुकल्लाह' कहे) और जमाही शैतान की तरफ से है इसका जहाँ तक बस चले न आने दे और जमाही में जो मुंह से आवाज़ निकलती है, उसको सुन कर शैतान हँसता है। (बुखारी जिल्द 1, सफा 919)
 (गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 175)