Monday

दो बे सनद हदीसे

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वतन की मोहब्बत ईमान से है।
जाबेह बकर और कातेअ शजर वाली हदीस यानी जिस हदीस में गाये ज़िबह करने वाले या पेड़ काटने वाले की बख्शिश नहीं बयान किया जाता है।
आला हजरत फरमाते है:
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वतन की मोहब्बत ईमान का हिस्सा है न हदीस से साबित है न हर गिज़ उस के यह मअना
(फतावा रज़विया जदीद जि.15 स292)
और फरमाते हैं:
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जिबह का पेशा शरअन मम्नूअ नहीं न उस पर कुछ मुवाखिज़ा है वह जो हदीस लोगों ने दरबार-ए-जाबेह बकर व कातिअए  शजर बना रखी है महज़ बातिल व मोज़ूअ है।
(फतावा रज़विया जदीद जि.20स.250)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 199)

Tuesday

रिशवत लेने और देने का मसअला

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हदीस पाक में है:-}रसलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने रिशवत देने और लेने वाले पर लअनत फ़रमाई। (मिश्कात,बाब रिज़्क़ुलवला,सफहा 326)

लेकिन यह रिशवत लेने देने की चार सूरतें हैं।
(1) कोई मनसब या ओहदा कबूल करने के लिए रिशवत
देना और लेना दोनों हराम हैं।
(2) अपने हक में फैसला कराने के लिए हाकिम को रिशवत दे यह भी दोनों के लिए हराम है ख्याह वह फैसला हक़ पर हो या न हो क्योंकि फैसला करना हाकिम की ज़िम्मेदारी है इसके लिए इसको कुछ लेना या किसी का उस को कुछ देना हराम है। अफसरों को कोई काम करने के लिए कुछ माल देना और उनका लेना दोनों हराम हैं।
(3) अपने जान व माल इज़्ज़त व आबरू की हिफाज़त के लिए किसी ज़ालिम को कुछ देना पड़ जाये तो यह देना जाइज़ है लेकिन लेने वाले के लिए यह भी हराम है। मैं समझता हूँ कि इस का मतलब यह है कि अगर कोई शख्स आप को गाली गलोज करता हो,लूटने मारने की धम्की देता हो,उस वक़्त उसको कुछ देकर आप अपने जान व माल की हिफाज़त कर लें तो यह जाइज़ है हाकिमों अफसरों को जो कुछ दिया जाता है यह तो बहरहाल सब रिशवत है और हराम है ख्वाह अपना हक़ हासिल करने या अपने हक़ में सही फैसला कराने के लिए दे क्योकि हक़ फैसला करना इस की डियूटी है।
(4) किसी शख्स को इसलिए रिशयत दी कि वह उसको बादशाह या हाकिम तक पहुँचा दे तो यह देना जाइज़ है
लेकिन लेने वाले के लिए हराम है।(फतावा रज़विया जदीद
जि.18 स.496,शरह सही मुस्लिम मौलाना गुलाम रसूल
सईदी. जि5. स.70)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 197)

Thursday



  दलाली का पेशा

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बेचने और खरीदने वाले के दरमियान सौदा कराने वाले को दलाल कहते हैं इस मुआमले में उस को कुछ मेहनत और दौड़ धूप भी करना पड़ती है वक़्त भी खर्च होता है लिहाज़ा वह उसकी उजरत ले सकता है बेचने वाले से या खरीद ने वाले से या दोनों से जैसा भी वहाँ रिवाज़ हो हर तरह जाइज़ है लेकिन यह पेशा कोई अच्छा काम नहीं अगचे हराम व नाजाइज़  भी नहीं ।
(शामी जि.7स.93बहारे शरीअत ,जि.11स639 मकतबतुल मदीना)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 197)

Monday

बुज़ुर्गों के नाम के चिराग जलाना

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आज कल इस का काफी रिवाज़ हो गया,किसी बुज़ुर्ग के नाम का चिराग जला कर उस के सामने बैठते हैं। यह गलत है हाँ अगर इस चिराग जलाने का कोई मकसद हो इस से किसी राह गीर वगैरा को फाइदा पहुँचे या दीनी तालीम हासिल करने पढ़ने पढ़ाने वालो को राहत मिले या किसी जगह ज़िक्र व शुक्र इबादत व तिलावत करने वालों को इस से नफ़अ पहुँचे तो ऐसी रोशनियाँ करना बिलाशुबह जाइज़ बल्कि कारे सवाब है और जब इस में सवाब है तो उस से किसी बुज़ुर्ग की रूहे पाक को सवाब पहुँचाने की नियत भी की जा सकती है आमाल और वजाइफ की किताबों में जो आसेब वगैरा के इलाज़ के लिए छोटा चिराग और बड़ा चिराग रोशन करने के लिए लिखा है वह अलग चीज़ है वह किसी बुज़ुर्ग के नाम से नहीं रोशन किया जाता।
खुलासा यह है कि यह जो हुज़ूर गौसे पाक रदियल्लाहु तआला अन्हु वगैरा किसी बुज़ुर्ग के नाम के चिराग जला कर उस के सामने बैठने का मामूल है यह बे सनद बे सुबूत बे मकसद है और बे असल है।
हदीस पाक में है हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि
वसल्लम ने फरमायाः
जो हमारे दीन में कोई ऐसी बात निकाले जिस की उस
में असल न हो तो वह कबूल नहीं है।
(इब्ने माजा 3 हदीस 17)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 196)

Thursday

माथे या मांग में सिन्दूर

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मुसलमान औरतों को माथे पर सिन्दूर लगाना और सर की मांग में सिन्दूर भरना जाइज़ नहीं क्योंकि यह गैर मुस्लिमों की औरतों में राइज है लिहाज़ा ऐसा करने में उनकी मुशाबहत है और हदीस पाक में है जो जिस कौम की मुशाबहत करे वह उन्हीं में है।
(फतावा अजमलिया,जि.4 स.101)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 196)

Monday

क्या हज़रत फातमा रदियल्लाहु तआला अन्हा की रूह मलकुलमौत ने नहीं क़ब्ज़ की ?

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कुछ लोग कहते हैं कि ख़ातूने जन्नत हज़रत सय्यदा फ़ातमा ज़हरा रदियल्लाहु तआला अन्हुमा की रूहे मुबारक अल्लाह तआला ने बज़ाते खुद कब्ज़ फ़रमाई मलकुलमौत ने आप की रूह कब्ज़ नहीं की यह बात शायद इसलिए कही जाती है कि हज़रत सय्यदा फातमा रदियल्लाहु तआला अन्हा बहुत बा हया और पर्दे वाली थीं तो मालूम होना चाहिए कि फिरिशते बे नफ्स बे गुनाह और मासूम हैं उन से पर्दा नहीं फिरिश्ते तो उनके घर में उनकी खिदमत के लिए आते रहते थे हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के काशाना-ए-नबूवत में बे शुमार फिरिश्ते ख़ास कर हज़रत जिब्राईल अलैहिस्सलाम अकसर आते जाते रहते थे कभी हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने किसी अपनी ज़ोजए मोहतरमा से नहीं फरमाया कि यह फलाँ फिरिश्ता इस वक़्त मेरे पास है तुम उस से पर्दा करो एक मर्तबा हुज़ूर पाक सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की पहली रफ़ीकाए मोहतरमा सय्यदा ख़दीजातुल कुबरा रदियल्लाहु तआला अन्हा सय्यदा फातमा की वालिदा मोहतरमा भी हैं वह हाज़िरे ख़िदमत थीं हजरत जिब्राईल अमीन हाज़िर हुये तो हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने सय्यदा ख़दीजातुल कुबरा से यह तो फ़रमाया यह जिब्राईल (अलैहिस्सलाम) मेरे पास हैं यह तुम्हें अल्लाह तआला का सलाम पहुँचाने आये हैं, लेकिन यह न फ़रमाया कि तुम उन से पर्दा करो। यह सब बातें अहादीस की किताबों में आसानी से देखी जा सकती हैं और इल्म वालों से छुपी हुई नहीं हैं।
खुलासा यह है कि यह बात बे सनद और रिवयतन सही नहीं कि हज़रत फातमा रदियल्लाहु तआला अन्हा की रूह अल्लाह तबारक व तआला ने बगैर मलकुल मौत खुद कब्ज़ फ़रमाई । मलकुलमौत फिरिश्ते के ज़रीये नहीं
हज़रत बहरुल उलूम से एक मर्तबा यह सवाल किया गया तो उन्होंने जवाब में फ़रमाया तमाम इंसानों की रुह कब्ज़ करने वाले मलकुलमौत हैं कुरआन शरीफ में है।

قل يتوفاكم مالك الموت الذى و كل بكم ثم إلى ربكم ترجعون (السجده-١١)

तर्जमा- तुम सब लोगों की रूह कब्ज करने के लिए मलकुलमौत मुकर्रर हैं। (फतावा बहरुल उलूम 2/76)

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 193)

Friday

खाने के शुरू में नमक या नमकीन 

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बाज़ रिवायात में है कि जब खाना खाओ तो नमक से शुरू करो और नमक पर ख़त्म करो यह सत्तर बीमारियों का एलाज है।
 कुछ हज़रात इस सुन्न्त की अदायेगी के लिए खाने से पहले और बाद में नमक चाटना ज़रूरी ख्याल करते हैं। हांलाकि इस सुन्नत की अदायेगी के लिए नमक चाटना जरूरी नहीं बल्कि नमकीन खाना पहले और बाद में खाया


जाये तब भी यह सुन्नत अदा हो जायेगी क्योंकि खाने में भी नमक ज़रूर होता है और नमक जिसे अरबी में (मिल्ह) ملح कहते हैं इसके मअना नमकीन और खारी चीज़ के भी आते हैं कुरआन करीम में समन्दर के पानी के लिए फ़रमाया गया।
{هذا ملح اجاج} [ الفرقان 53]

यह खारी है निहायत तल्ख
 (कन्ज़ूल ईमान,सूरह फुरकान,आयत 53)

मौलवी मुहम्मद हुसैन साहब मेरेठी रहमतुल्लाहि तआला अलैहि फ़रमाते हैं कि आला हज़रत के लिए सेहरी में फिरीनी और चटनी लाई गई, मैंने पूछा हुज़ूर चटनी फिरीनी का किया जोड़ | फरमाया नमक से खाना शुरू करना और नमक पर ही ख़त्म करना सुन्नत है इसलिए यह चटनी आई है। (हयाते आला हज़रत, जि.1, स.151 ,मतबूआ बरकात रज़ा पूरबन्दर)

तो आला हज़रत के नज़दीक भी इस सुन्नत की अदायेगी के लिए नमकीन खाना पहले और बाद में खाना काफी है नमक चाटना ज़रूरी नहीं वरना वह चटनी के बजाये नमक मंगवाते।
 अल्लामा आलम फकरी लिखते हैं,हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहु तआला अन्हुमा से मरवी है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि तीन लुकमे नमकीन खाने से पहले और तीन लुक्मे खाने के बाद बनी आदम को बहत्तर बलाओ से महफूज रखते हैं।
(आदाब सुन्नत 94)
 खुलासा यह कि जब दसतर ख्वान पर नमकीन मीठा सब तरह का खाना मौजूद हो तो सुन्नत है नम्कीन खाये फिर मीठा और बाद में फिर नम्कीन और इस सुन्नत की अदायेगी के लिए यही काफी है दसतर ख्वान पर नमक रखने या उसको मंगा कर चाटने की ज़रूरत नही।
 (गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 193)

होली,दीवाली की फातिहा

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होली,दीवाली यह खालिस गैर मुस्लिमों के त्यौहार है ।इस्लाम और मुसलमानों का उन से कोई तअल्लुक नहीं। मुसलमानों को उन दिनों में ऐसे रहना चाहिए जैसे आज कुछ है ही नहीं और इन दिनों को किसी किस्म की कोई खुसूसियत नहीं देना चाहिए।
कही कही कुछ लोग होली के मौका पर होलिका नाम की औरत की फातिहा दिलाते हैं कुछ लोगों ने होलीका का नाम मुराद बीवी रख लिया है और उस नाम से फ़ातिहा दिलाते हैं और कहते हैं कि होलीका हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम पर आशिक हो गई थी और उन पर ईमान लाई थी तो यह सब गढ़ी हुई हिकायते और झूटी कहानियाँ हैं जिनका हकीकत से किसी किस्म को कोई तअल्लुक नहीं और हरगिज़ होली को कोई हैसियत देते हुये इससे मुतअल्लिक किसी किस्म की कोई फातिहा नहीं करना चाहिए (फतावा बहरुलउलूम जि•1,स•162)
दीवाली के मौके पर कुछ लोग मछली पका कर फातिहा पढ़वाते हैं यह भी गलत हैं कहते हैं कि दीवाली के मौके पर करने धरने और टूटके बहुत होते हैं और मछली पर फातिहा पढ़ने से वह बे असर हो जाते हैं तो यह सब जाहिलाना ख्यालात और वहम परस्ती की बातें और एक मुसलमान को उन सब से बचना ज़रूरी है अगर दीवाली के मौका पर मछली पर फातिहा का रिवाज़ पड़ गया तो कभी यह भी हो सकता है कि घरों को सजाना और रोशनिया करना हिन्दूओं की दीवाली होगी और मछली पर फातिहा मुसलमानों की दीवाली लिहाज़ा इन दिनों में किसी किस्म का कोई नया काम नहीं करना चाहिए और आम हालात में जैसे रहते हैं वैसे ही रहना चाहिए।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 192)

Tuesday

नमाज़ में अत्तहियात वगैरा से पहले बिस्मिल्लाह पढ़ना

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नमाज में अलहम्दु शरीफ से पहले बिस्मिल्लाह पढना सुन्नत है और उस के बाद जब कोई सूरत शुरू करे तब भी बिस्मिल्लाह पढ़ना मुस्तहब है। उस के अलावा रुक सजदे,कादा वगैरा में बिस्मिल्लाह पढ़ने की इजाजत नहीं। अत्तहियात से पहले या दुआये कुनूत या दुरूद शरीफ और
उस के बाद की दुआ से पहले बिस्मिल्लाह पढ़ना मना है। क्योंकि बिस्मिल्लाह कुरआन की आयत है और नमाज में कियाम की हालत में अलहम्दु शरीफ और उसके बाद किरअत कुरआन मशरुअ है उसके अलावा किरअत मम्नूअ
है। (फतावा रजविया जदीद जि.6,स.350)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 191)

छोटी तकतीअ में कुरआन 

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कुछ लोग बहुत ज़्यादा बारीक ख़त में लिखे हुये और बहुत छोटे साइज़ में कुरआन छापते हैं जिन्हें हमाइल शरीफ कहा जाता है बच्चों के गले में डालने के लिए तावीज़ की तरह पूरे कुरआन को बहुत बारीक और छोटा कर देते हैं यह नाजाइज़ है।
दुर्रे मुख्तार में हैः                                                                        يكره تصغير مصحف

यानी कुरआने करीम को छोटा बनाना  मकरूह है।
(दुर्रे मुख्तार ,किताब हजर वल इबाहत फस्ल फिलबैअ,जि.2 ,स.245) ।
आला हज़रत फरमाते हैं:
हजरत उमर फारूके आज़म रदियल्लाहु तआला अन्हु ने एक शख्स के पास कुरआन मजीद लिखा हुआ देखा है। इसको मकरूह रखा और उस शख्स को मारा।(फतावा रज़विया,जि.4,स.610)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 191)

गुर्दे खाने का मसअला

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गुर्दे खाना जाइज़ है लेकिन हुज़ूर अकदस सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने पसन्द न फरमाया इस वजह से कि पेशाब इसमें हो कर मसाने में जाता है ।
(अलमलफूज़ स.341 रज़वी किताब घर देहली)
इस का खुलासा यह है कि हलाल जानवर के गुर्दे खाये जा सकते हैं उन्हें खाना हराम नहीं लेकिन हजुर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम को ना पसन्द थे इसलिए न खाना बेहतर है ।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 191)

Sunday

तीजे के चनों का मसअला

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न्याज व फातिहा तीजे दसवीं,चालीसवीं,और तबारक वगैरा यह सब सिर्फ जाइज़ अच्छे और मुस्तहब काम हैं न शरअन फ़र्ज़ हैं न वाजिब न सुन्नत कोई न करे तब भी कोई हर्ज व गुनाह नहीं लेकिन आज कल उन कामों को इतना ज़रूरी समझ लिया गया है कि गरीब से गरीब आदमी के लिए भी उन का करना इतना ज़रूरी हो गया है कि ख्वाह कही से करे कैसे ही करे उधार कर्ज़ लेकर मगर करे ज़रूर यह सुन्नियत के नाम पर ज़्यादती हो रही है।

हक यह है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम और आप के सहाबा व ताबेईन के ज़माने में मय्यत को सवाब पहुँचाते और उसकी मगफिरत की दुआ के लिए सिर्फ जनाज़े की नमाज़ होती थी और किसी चीज़ का रिवाज़ न था यह सब काम बहुत बाद में राइज हुये कुछ मौलवियों ने उन्हें एक दम नाजाइज़ व हराम कह दिया सिर्फ इसलिए कि यह सब नये काम है। लेकिन उलमा-ए-अहले हक अहले सुन्नत वलजमाअत ने फरमाया कि यह सब काम अगचें नये हैं मगर अच्छे हैं बुरे नहीं लिहाज़ा जाइज़ हैं मुस्तहब हैं लेकिन उन्होने भी फर्ज़  या वाजिब या शरअन लाज़िम व ज़रूरी नहीं कहा मैंने इस बयान को तफ़सील व तहकीक के साथ अपनी किताब “बारहवीं शरीफ़ जलसे जुलूस"और दरमियान उम्मत में भी
लिख दिया है।
 आज कल बाज़ जगह तो गरीब से गरीब आदमी के लिए भी इस न्याज़ व फातिहा के रिवाज़ो को जो ज़रूरी खियाल किया जा रहा है यह बड़ी ज़्यादती है ।

तीजे के मौके पर जो चनों पर कलमा पढने का मुआमला है इसकी हकीकत सिर्फ इतनी है कि एक हदीस में यह आया है कि जो सत्तर हजार 70000/मर्तबा कलमा पढ़े या किसी दूसरे को पढ़ कर बख्शे तो इस की मगफिरत
हो जाती है।

आला हज़रत फरमाते हैं:
कलमा तय्यबा सत्तर हज़ार(70000) मर्तबा मअ दुरूद शरीफ पढ़ कर बख्श दिया जाये इन्शाअल्लाह पढ़ने वाले और जिस को बख्शा है दोनों के लिए ज़रीआ निजात
होगा। (अलमलफूज, जि.1 ,स.103/मतबूआ रज़वी किताब घर देहली)

 हजरत मौलाना अली कारी मक्की रहमतुल्लाहि तआला अलैहि ने भी मिरकात शरह मिश्कात किताबुस्सलात
बाब मा अललमामूमे मिनलमुताबअत फस्ले सानी, स.102 में इस हदीस को नकल किया है।
 अन्वारे सातिआ स.232/पर भी मिरकात शरह मिश्कात के हवाले से यह सत्तर हजार की हदीस मन्कूल है।
बुज़ुर्गों ने इस गिन्ती को पूरा करने के लिए साढ़े बारा सेर दरमियानी किस्म के चनों का अन्दाजा लगाया था।

आज कल की नई तोल के मुताबिक चुंकि “किलो इस सेर से कुछ छोटा होता है लिहाजा साढ़े चौदह किलो या फिर ज्यादा से ज्यादा पन्द्रह किलो चनों में पूरा सोयम् यानी सत्तर हजार बार कलमा मुकम्मल हो जायेगा।
 बरेली शरीफ से शाइअ फतावा मरकज़ी दारूलइफता में है।
चने की मिक़दार शरअन मुतअय्यन नहीं हाँ हदीस पाक में यह आया है कि "जिस ने या जिस के लिए सत्तर हज़ार कलमा शरीफ पढ़ा गया अल्लाह तआला अपने फज़ल व करम से उसे बख्श देता है। लोगों ने अपनी आसानी के लिए चने इख्तियार कर लिए कि उस में शुमारे कलमा  है और बाद में सदका भी और मशहूर है कि साढ़े बारह सेर चने में यह तादाद पूरी हो जाती है।
(फ़तावा मरकज़ी, दारूलइफता स.302)
कुछ मुल्लाजी लोग 32 बत्तीस किलो चने ख़रीदवाते है यह उन की ज़्यादती है खास कर गरीबों मजदूरों पर तो एक तरह का ज़ुल्म है और वह सोयम के चने पढ़ने की मज्लिस हो या कोई और आम लोगों को जमा कर के बहुत देर तक बैठाना भी इस्लामी मिजाज़ के खिलाफ है।
आला हज़रत फरमाते हैं:
शरीअत मुत्तहरा रिफक व तन्सीर (नर्मी और आसानी)को पसन्द फ़रमाती है न कि मआज़ल्लाह तदीक व तशदीद (तंगी और सख्ती) (फतावा रजविया जदीद11/151)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 188)

Saturday

नूर नामा और शहादत नामे

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"नूर नामा'नाम से एक किताब उर्दू नज़्म में खूब पढ़ी जाती है उस में हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की पैदाइश का वाकिआ और आप के नूर का किस्सा जिस तरह बयान किया गया है वह बे असल और गलत है किसी मुस्तनद व मोअतबर हदीस व तारीख की किताब में उस का ज़िक्र नहीं ।
ऐसे ही शहादत नामा नाम से जो किताबें हज़रत सय्यदिना इमाम हसन और सय्यदिना इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हुमा के वाकिआत व हालात से मुतअल्लिक राइज हैं वह भी अकसर गलत बे सरोपा वाकिआत व हिकायत पर मुश्तमिल हैं।

आला हज़रत फरमाते हैं:
नूर नामे के नाम से जो रिसाला मशहूर है उस की रिवायत बे असल है उसको पढ़ना जाइज़ नहीं।
(फतावा रज़विया जदीद, जि.26,स.610)

और फ़रमाते हैं:
शहादत नामे नज़्म या नसर जो आजकल अवाम में राइज हैं अकसर रिवायते बातिला व बे सरोपा से ममल और अकाज़ीब मोज़ूआ (गढ़ी हुई झूटी हिकायतें) पर मुश्तमिल हैं ऐसे बयान का पढ़ना सुनना मुतलकन हराम व नाजाइज़ है। (फतावा रज़विया, जदीद जि.24 ,स.513)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 188)

Thursday

क्या कब्र पर तख्ते रखने में मर्द व औरत में फर्क है?

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कुछ लोग पूछते हैं कि मय्यत को कब्र में रखने के बाद अगर मर्द हो तो तख़्ते लगाना किधर से शुरू करना चाहिए सिरहाने या पाइंती से और औरत के लिए किधर से मसअला यह है कि मर्द हो या औरत तख़्ते सिरहाने से लगाना शुरू करें और दोनों में फर्क समझना गलती है।
(फतावा मुस्तफविया स.271 मतबूआ रज़ा एकेडमी मम्बई)
यानी दोनों के तख्ते सिरहाने से शुरू किये जायें।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 187)

क्या औरत पीर हो सकती है?

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औरत का पीर बनना मुरीद करना जाइज़ नहीं न मर्दों को न औरतों को। आज कल तो यह तक सुनने में आया है कि औरतें पीर बन कर मुरीदों में दौरे तक करने लगी हैं।

यह सब गलत बातें और औरतों का पीरी मुरीदी करना सही नहीं।
इमाम अब्दुलवहाब शोअरानी अपनी मशहूर किताब मीज़ानुश्शरीअतुल कुबरा में तहरीर फरमाते हैं:
قد اجمع اهل الكشف على اشتراط الذكورة فى كل داع الى    الله
बुज़ुर्गों का इस बाबत पर इत्तिफ़ाक है कि दाई इलल्लाह होने के लिए मर्द होना शर्त है ।
(मीज़ानुश्शरीअतुल कुबरा बाबुल अक़्ज़िया जि.2,स.189)

आज कल औरतों के जलसे हो रहे हैं और औरतों को मुबल्लेगा और मुकर्रिरा बना कर जगह जगह घुमाया जा रहा है यह भी सब मेरी समझ में नहीं आता।
और इमाम अब्दुलवहाब शोअरानी का जो कौल हमने नकल किया उससे भी हमारे ख्याल की ताईद होती है।
वल्लाहु तआला अअलमु 

आला हज़रत फरमाते हैं:
सलफ़ सालेहीन से ले कर आज तक कोई औरत न पीर बनी न बैअत किया 
(फतावा रज़विया जदीद,जि.21,स.494)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 187)

हज़रत बिलाल के अज़ान न देने का वाकिआ

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हजरत बिलाल रदियल्लाहु तआला अन्हु के मुतअल्लिक एक वाकिआ बयान किया जाता है कि एक मर्तबा कुछ हज़रात ने उन की अज़ान पर एतराज़ किया वह शीन को सीन कहते हैं हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने उन को माजूल कर दिया और किसी दूसरे साहब ने अज़ान दी तो सुबह न हुई जब अज़ान हज़रत बिलाल ने दी तब सुबह हुई।
यह वाकिआ बे असल है मुस्तनद व मोअतबर हदीस व तारीख की किताबों में कही नहीं जो साहब बयान करें। उन से मालूम करना चाहिए कि उन्होंने यह वाकिआ कहाँ देखा। और यह हदीस कि हज़रत रसूल पाक सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमायाः
                                  سين بلال عند الله شين
  बिलाल की सीन भी अल्लाह के नज़दीक शीन है।
     इस हदीस को हज़रत मौलाना अली कारी मक़्क़ी रहमतुल्लाहि तआला अलैहि ने गढ़ी हुई फ़रमाया है।
(मौज़ूआत कबीर स 43,फतावा बहरूल उलूम जि.5,स.380)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज  186)

क्या इमाम के लिए मुकतदियों की नियत करना ज़रूरी है?

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बाज़ जगह कुछ ना ख्वान्दे जाहिल लोग इमामों को परेशान करते हैं और उन से इमामत की नियत पूछते हैं। हालांकि इमाम के लिए अलग से मुक्तदियों की इमामत की नियत करने की कोई ज़रूरत नहीं।
फतावा आलम गिरी में है:
والا ما ينوى ماينوى المنفرد ولا يحتاج الى نيت الا ماماة
और इमाम भी वही नियत करेगा जो अकेला आदमी नियत करता है और इमाम को इमामत की नियत की कोई ज़रूरत नहीं ।
(फतावा आलम गिरी जि.1,बाब 3,फ़स्ल4,स.66)
और ज़बान से नियत के अल्फाज़ अदा करना तो किसी के लिए भी किसी नमाज़ में ज़रूरी नहीं क्योंकि नियत दिल के इरादा का नाम है। उस की तफ़सील हम ने अपनी किताब
इमाम और मुकतदी में लिखी है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 185)

औरत का कफ़न मैके वालों के ज़िम्मे लाज़िम समझना

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यह एक गलत रिवाज़ है l यहॉ तक कि कुछ जगह मैके वाले अगर नादार व गरीब हों तब भी औरत का कफन उनको देना जरूरी ख्याल किया जाता है और उनसे जबरदस्ती लिया जाता हैं और उन्हें ख्वाह सताया जाता है  हालाकि इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है ।
मसअला यह है कि मय्यत का कफन अगर मय्यत ने माल न छोडा हो तो जिन्दगी में जिसके ज़िम्मे उसका नान व नफका  था वह कफ़न दे और औरत के बारे में  खास तौर से यह है कि उसने अगरचे माल छोडा भी हो तो तब भी उसका कफन शौहर के जिम्मे है I (बहारें शरीअत हिस्सा 4 सफहा 139)
खुलासा यह है कि औरत का कफन या दूसरे खर्चे मैके वालों के ज़िम्मे ही लाज़िम ख्याल करना और बहरहाल उनसे दिलवाना, एक गलत रिवाज़ है, जिसको मिटाना ज़रूरी है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 59)

मय्यत के बाद और बच्चे की पैदाइश के बाद पूरे घर की पुताई सफाई को ज़रूरी समझना

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कुछ लोग घर में मय्यत हो जाने या बच्चा पैदा होने के बाद घर की पुताई कराते हैं और समझते है कि घर नापाक हो गया उसकी धुलाई सफाई और पुताई कराना ज़रूरी है I हालाकि यह उनकी गलतफ़हमी है और इस्लाम में ज्यादती हैI यूँ पुताई सफाई अच्छी चीज है ,जब ज़रूरत समझे करायें लेकिन क्या पैदा होने या मय्यत हो जाने की क्या वजह से उसको कराना और लाजिम जानना जाहिलों वाली बातें हैं, जिन्हें समाज से दूर करना जरूरी है ।
 (गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 60)

मय्यत के सर में कंघी करना

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कुछ जगह मय्यत को ग़ुस्ल देने के बाद तजहीज़ व तकफीन के वक़्त उसके बालों में कंघी करने लगता हैं, यह मना हैं कि हज़रते सय्यदिना आइशा सिद्दिक़ा रदियल्लाहु अन्हा से मय्यत के सर में कंघी करने के बारे में सवाल किया गया तो आपने मना फ़रमाया कि क्यूँ अपनी मय्यत को तकलीफ पहुँचाते हो।
(फतावा रज़विया ,जिल्द 4,सफहा 33,बहवाला किताब उल आसार इमाम मुहम्मद)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 60)