Wednesday

मुस्तहब्बत को फर्ज़ व वाजिब समझना और फराइज़ को अहमियत न देना

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आजकल अवाम अहले सुन्नत में एक बड़ी तादाद उन लोगों की है जिन्होंने नमाज़, रोज़ा, ज़कात वगैरह इस्लाम में ज़रूरी बातों को छोड़ कर नियाज़, नज़्र, फातिहा वगैरह बिदआते हसना को लाज़िम व ज़रूरी समझ लिया है, यह एक गलतफहमी है। इसमें कोई शक नहीं कि नियाज़,फ़ातिहा, मीलाद शरीफ़ मुरव्वजा सलात व सलाम यअनी जैसे आजकल पढ़ा जाता है, बारह रबीउलअव्वल को जुलूस निकालना, ग्यारहवीं शरीफ, 22 रजब और 14 शाबान और 10 मुहर्रम वगैरह को खाने, खिचड़े, पूड़ी, हलवे, पुलाव और मालीदे पर फ़ातिहा दिलाना, उर्स करना,
बुज़ुर्गों के मज़ारात पर हाज़िरी देना, कब्र पर अज़ान देना, हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के नाम को सुनकर अँगूठे चूमना, मुर्दो के तीजे, दसवें और चालीसवें करना, ये सब अच्छे काम हैं, इन्हें करने में कोई हर्ज और गुनाह नहीं। जो इन्हें गलत कहते हैं, वो खुद गलत हैं। लेकिन जो इन्हें फर्ज़ और वाजिब (शरअन लाज़िम व ज़रुरी)।ख्याल करते हैं, वो भी भूल में हैं। इस मज़मून से हमारा मकसद सिर्फ उनकी इस्लाह करना है।

सुन्नी भाईयों! नियाज़, फातिहा, उर्स, मीलाद वगैरह ऊपर
ज़िक्र की हुई बातों में मुन्किरीन वहाबियों से इख्तिलाफ सिर्फ यह है कि वो इनको बुरा कहते हैं और उलेमाए अहले सुन्नत इन सब कामों को अच्छा काम बताते हैं। लेकिन फर्ज़ व वाजिब (शरअन लाज़िम व ज़रूरी) ये भी नहीं कहते। फर्ज़ और वाजिब तो इस्लाम में ये काम हैं :-

पाँचों वक़्त नमाज़ बाजमाअत की सख्ती के साथ पाबन्दी करना। रमज़ान के महीने के रोज़े रखना। साहिबे निसाब को साल में एक बार ज़कात निकालना। जिसके बस की बात हो उसके लिए पूरी ज़िन्दगी में एक बार हज करना। ज़िना, शराब, जुए, सूद, झूट, गीबत, ज़ुल्म, पिक्चर, गाने, तमाशे वगैरह से।बचना। माँ बाप की फरमाबरदारी करना। जिसका आप पर जो हक है उसको अदा करना। कर्ज़ लेकर जल्द से जल्द देने की कोशिश करना। मज़दूर की मज़दूरी देने में देर न करना वगैरह। हक यह है अगरचे हक कड़वा होता है कि नियाज़ व नज़्र ,मीलाद व फातिहा, उर्स व मज़ारात की हाज़िरी का फैज़ और फाइदा सही मअनों में उन्हीं को हासिल होता है जो उन कामों पर अमल करते हैं जिनका हमने अभी ऊपर ज़िक्र किया है। जो लोग नमाज़ रोज़े को छोड़ कर हराम कमाते, हराम खाते, हराम करते और फिर बुज़ुर्गों की नियाज़ दिलाते, उनके नाम पर बड़ी बड़ी देगें पकाते, मज़ारात पर हाज़िरी देते हैं उनकी वजह से मजहब ए अहले सुन्नत बदनाम हो रहा है।

 यह जान लेना भी ज़रूरी है कि दूसरे फिरकों में जिन लोगों को इस्लाम से ख़ारिज और काफ़िर कहा गया है वह नियाज़ व फातिहा न दिलाने की वजह से नहीं बल्कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम और दीगर अम्बियाए इज़ाम की शान में गुस्ताखी करने की वजह से उन्हें गुमराह व बदमज़हब या काफिर वगैरहा करार दिया गया है।

अलबत्ता इसमें भी कोई शक नहीं कि नियाज़ व फातिहा, उर्स व मीलाद वगैरा आजकल अहले हक की अलामत निशान और पहचान बन गई हैं लिहाज़ा इन कामों को आम तौर से छोड़ा न जाये और फर्ज़ व वाजिब भी न समझा जाये । बस अच्छे काम समझ कर शरीअते इस्लामिया के दाइरे में रह कर करते रहें। और किसी के ईसाले सवाब के लिए उसकी फातिहा को किसी ख़ास दिन के साथ लाज़िम व ज़रूरी समझना भी गलतफहमी है। बल्कि हर एक की फातिहा हर दिन और हर वक़्त हो सकती है। और किसी।निसबत से किसी दिन को खास कर लेने में भी कोई हर्ज नहीं जबकि उसको लाज़िम और ज़रूरी न समझे।
आलाहज़रत फरमाते हैं :-यह तअय्युनात (दिनों को फ़ातिहा के लिए खास करना) उर्फी है इनमें असलन हर्ज नहीं जबकि इन्हें शरअन लाज़िम न जाने। यह न समझे कि इन्हीं दिनों में सवाब पहुँचेगा,आगे पीछे नहीं।
(फतावा रज़विया, जिल्द 4,सफा 216)

खुलासा यह कि दिनों को तय कर लेना अपनी सुहूलत और रिवाज के तौर पर है और इसमें हर्ज नहीं मगर इसे लाज़िम न जाने कि हम दिन तय कर लेंगे तभी सवाब पहुँचेगा और दिन आगे पीछे हो जाने से सवाब न पहुँचेगा यह गलत है।
और दूसरी जगह फरमाते हैं :
ईसाले सवाब हर दिन मुमकिन है और खुसूसियत के साथ।किसी एक तारीख का इल्तिज़ाम (पाबन्दी) जबकि उसे शरअन लाज़िम न जाने मुज़ाइका (हरज) नहीं।
 (फतावा रज़विया, जिल्द 4,सफा 224)
 (गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 172)

Monday

हाथों के डोरे और कड़े

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बाज़ मजारात के मुजाविर और सज्जादानशीन लोग ज़ाइरीन के हाथों में सुर्ख या पीले रंग के डोरे बाँध देते हैं। ऐसे काम हिन्दुओं के बाबा और साधू लोग करते थे, वह तीरथ यात्रियों के हाथों में लाल पीले डोरे बॉध देते हैं अब मज़ारात के मुजाविर और सज्जादों में भी इसका रिवाज़ हो गया है। यह बात मुनासिब नहीं है और मुसलमानों को गैर मुस्लिमों की नकल और उनकी मुशाबहत से बचना चाहिए और हाथों में डोरे और कड़े न डालना चाहिए और न डलवाना चाहिए।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 172)

Sunday

क्या बुराई और भलाई का तअल्लुक सितारों से भी है?

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कुछ लोग समझते हैं कि बुराई भलाई और नफा नुकसान का तअल्लुक सितारों से है हालाँकि ऐसा कुछ नहीं है।
आलाहज़रत फ़रमाते हैं :-
मुसलमान मुतीअ पर कोई चीज़ नहस (मनहूस) नहीं और काफिरों के लिए कुछ सअद (भलाई) नहीं। बाकी कवाकिब (सितारों) में कोई सआदत व नहूसत नहीं अगर उनको खुद
मुअस्सिर जाने मुश्रिक (काफिर) है और उनसे मदद माँगे तो हराम है और उनकी रिआयत जरूर ख़िलाफे तवक्कुल है।  (फतावा रज़विया, जिल्द 10, किस्त 2 ,सफा 265)

बाज़ नुकूश व तावीजात के बारे में सितारों का हिसाब लगा कर कुछ औकात को खास किया जाता है तो उसके बारे में मुसलमान को यह अक़ीदा खना चाहिए कि खुदाए तआला ने बाज़ औकात को बाज़ कामों के लिए बाज़ दूसरे औकात के मुकाबले में पसन्द फरमाया है और किसी साअत और घड़ी को किसी दूसरे से किसी खास काम के लिए अफ़ज़ल व बेहतर बनाया है। लेकिन मनहूस किसी वक़्त को नहीं समझना चाहिए और होता वही है जो अल्लाह तआला चाहता है और खुदाए तआला व रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम  पर ईमान और उनकी इताअत से बढ़कर कोई सआदत व बरकत, नफा और भलाई नहीं और उनकी नाफरमानी और कुफ़ से बढकर कोई नहूसत नहीं ---- और ऐसे ही बाज़ कामों के लिए बाज़ दिनों की फजीलत आई है जैसे सफर के लिए जुमेरात या पीर का दिन और नाखुन तरशवाने और बाल कटवाने के लिए जुमे का दिन। इसका मतलब यह नहीं कि और दिन मनहूस हैं या उनमें वह काम नाजाइज़ व गुनाह है बल्कि किसी दिन भी सफ़र करना और किसी दिन नाखून और बाल कटवाना नाजाइज़ व गुनाह नहीं है, हर दिन जाइज़ है। हाँ मखसूस और वो दिन जो ऊपर जिक्र हुए उनमें ये काम दूसरे दिनों से ज्यादा बेहतर व अफज़ल व पसन्दीदा हैं।

बाज़ जगह औरतें बुध के दिन घर से निकलने और सफ़र करने को मना करती हैं। यह उनकी जहालत है। बुध के दिन की तो खास तौर पर हदीस में फजीलत आई है। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम का इरशाद है :-
"जो काम बुध के दिन शुरू किया जाता है, पूरा होता है।"
यह हदीस आलाहज़रत इमामे अहले सुन्नत ने फतावा रज़विया जिल्द 12 सफा 160 पर नकल फ़रमाई है।
सदरुश्शरी हज़रत मौलाना अमजद अली साहब अलैहिर्रहमह फ़रमाते हैं :-
नजूम की इस किस्म की बातें जिनमें सितारों की तासीरात बताई जाती हैं कि फलाँ सितारा तुलू होगा तो फलॉ बात होगी,  यह भी बेशरअ है। इसी तरह नक्षत्रों का हिसाब कि फलाँ नक्षत्र से बारिश होगी, यह भी गलत है। हदीस में इस पर सख्ती से इन्कार फरमाया है।
(बहारे शरीअत ,हिस्सा 16 सफा 257)

बहुत से लोग मंगल के दिन कोई नया काम शुरू करने को बुरा जानते हैं और औरतें इस दिन नहाने को बुरा जानती हैं,ये सब भी उनकी गैर इस्लामी और जाहिलाना बातें हैं।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 170)

धोबी के यहाँ खाना खाना जाइज़ है।

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कुछ लोग धोबी के यहाँ खाना खाने को बुरा जानते हैं, यह।बहुत बुरी बात है। धोबी हो या कोई मुसलमान उसके यहाँ खाना खाने में कोई हर्ज नहीं और बिला शुबह जाइज़ है। जो लोग धोबियों के यहाँ खाने को बुरा जानते हैं और उनके यहाँ के खाने को नापाक बताते हैं, वो निरे जाहिल हैं।

आलाहज़रत अलैहिर्रहमह फरमाते है:-
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धोबी के यहाँ खाना खाने में कुछ हर्ज नहीं, यह जो जाहिलों  में मशहूर है कि धोबी के यहाँ का खाना नापाक है, महज़ बातिल (झूठ) है।(अलमलफूज़ ,हिस्सा अव्वल,सफ़हा 13)

(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 169)

Saturday

क्या उल्लू कोई मनहूस परिन्दा है?

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उल्लू एक परिन्दा है जिसको लोग मनहूस ख्याल करते हैं। हालाँकि इस्लामी नुक्तए नज़र से यह एक गलत बात है। उल्लू को मनहूस ख्याल करना एक जाहिलाना अकीदा है।
सहीह बुख़ारी की हदीस में है :
"रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:- छुआछूत कोई चीज नहीं, उल्लू में कोई नहूसत नहीं और सफ़र (चेहलम) का महीना भी मनहूस नहीं।" (मिश्कात बाब उल फाल वत्तैर सफा 391)
सदरुश्शरीआ हज़रत मौलाना अमजद अली साहब फरमाते हैं :-‘हाम्मह' से मुराद उल्लू है। जमानए जाहिलियत में अहले अरब इसके मुतअल्लिक किस्म किस्म के ख्यालात रखते थे और अब भी लोग इसको मनहूस समझते हैं। जो कुछ भी हो हदीस ने इसके मुतअल्लिक हिदायत की कि इसका एतिबार न किया जाये। माहे सफ़र को लोग मनहूस जानते हैं, हदीस में फ़रमाया, यह कोई चीज़ नहीं। (बहारे शरीअत हिस्सा 16 सफा 124)
खुलासा यह है कि उल्लू को मनहूस समझना गलत है। नफा नुकसान का मालिक सिर्फ अल्लाह तबारक व तआला है। जो वह चाहता है, वही होता है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह , पेज 169)

Thursday


जानवरों से उनकी ताक़त से ज़्यादा काम लेना

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आजकल आमतौर से लोग इस बात का ख्याल नहीं रखते। जानवरों पर उनकी ताकत से ज्यादा बोझ लाद देना और मार मार कर उन्हें चलाना, ज़ुल्म है। यूँ ही उन बेज़ुबानों के चारा पानी और गर्मी व जाड़े की फिक्र न करना भी ज़ुल्म है। दूध देने वाले जानवरों का सारा दूध खींच लेना और फिर उसके बच्चे को दिन दिन भर के लिए भूका प्यासा रखना ज़ुल्म है। ऐसा करने वाले ज़ालिम हैं और ये ज़्यादा कमाई और आमदनी के लिए ये सब करते हैं। लेकिन कमाई के बाद भी ऐसे लोग परेशान रहते हैं और उन्हें ज़िन्दगी में सुकून मयस्सर नहीं आता और हमेशा बेचैन व परेशान रहते हैं।
सदरुश्शरीआ हज़रत मौलाना अमजद अली साहब अलैहिर्रहमह फरमाते हैं:-जानवर से काम लेने में ज़रूरी है कि उसकी ताकत से ज़्यादा काम न लिया जाये। बाज़ यक्का और तांगे वाले इतनी ज़्यादा सवारियाँ बिठाते हैं कि घोड़ा मुसीबत में पड़ जाता है, यह नाजाइज़ है।
जानवर पर जुल्म करना, ज़िम्मी काफ़िर पर जुल्म से ज़्यादा बुरा है और ज़िम्मी काफिर पर ज़ुल्म मुसलमान पर ज़ुल्म करने से भी ज़्यादा बुरा है। क्यूंकि जानवर का कोई मुईन व मददगार अल्लाह तआला के सिवा नहीं। इस गरीब को इस ज़ुल्म से कौन बचाये। (बहारे शरीअत ,हिस्सा 16 सफ़ा 285)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 168)



Wednesday

जानवरों को लड़ाना
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कुछ लोग तफरीह व तमाशे के लिए मुर्ग,बटेर, तीतर,हाथी, मेंढे और रीछों वगैरह को लड़ाते हैं। यह जानवरों को लड़ाना इस्लाम में हराम है। हदीस में है
"रसूलुल्लाह  सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने जानवरों को लड़ाने से मना फ़रमाया।"
(जामेअ तिर्मिज़ी ,जिल्द 1, सफ़ा 204, सुनन अबू दाऊद जिल्द 1,सफा 346)
और यह जानवरों को लड़ाना, उन पर जुल्म है। आपकी तो तफ़रीह हो रही है, और उनका लड़ते लड़ते काम हुआ जा रहा है। मज़हबे इस्लाम इसका रवादार नहीं। बेज़बानों पर ज़ुल्म व ज़्यादती से इस्लाम मना फ़रमाता है। कबूतरबाज़ी भी नाजाइज़ है।
आलाहजरत फरमाते हैं।
"तमाशे के लिए कबूतरों को भूका उड़ाना, जब उतरना चाहें, उतरने न देना और दिन भर उड़ाना, ऐसा कबूतर पालना हराम है। (फतावा रज़विया, जिल्द 10 ,किस्त 1, सफ़ा 165)
 और येतमाशे देखना, इनमें शिरकत करना भी नाजाइज़ है।
(बहारे शरीअत ,हिस्सा 16,सफा 131)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 167)

Tuesday

क़ुरआने करीम गिर जाये तो उसके बराबर तोल कर अनाज ख़ैरात करना

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क़ुरआने करीम अगर हाथ या अलमारी से गिर जाये तो कुछ लोग उसको तोल कर बराबर वज़न का आटा,चावल वगैरा खैरात करते हैं, और उस खैरात को उसका कफ्फारा ख्याल
करते हैं, यह उनकी गलतफहमी है।
क़ुरआने करीम जानबूझ कर गिरा देना या फेंक देना तो।बहुत ही ज़्यादा बुरा काम है। किसी भी मुसलमान से इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह ऐसा करेगा और जो।तौहीन व तहकीर के लिए ऐसा करेगा वह तो खुला काफ़िर है। तौबा करे फिर से कलिमा पढ़े, निकाह हो गया हो तो फिर से निकाह करे।

लेकिन अगर धोके से भूल में कुरआन शरीफ़ हाथ से छूट गया या अलमारी वगैरह से गिर गया तो उस पर कोई गुनाह नहीं है। भूल चूक माफ है। लेकिन फिर भी अगर बतौरे।खैरात कुछ राहे खुदा में खर्च कर दे तो अच्छी बात है और निहायत मुनासिब व बेहतर है। लेकिन क़ुरआन शरीफ़ को तोलना और उसके वज़न के बराबर कोई चीज़ खैरात करना और उस ख़ैरात को कफ्फारा समझना नासमझी और।बेइल्मी है। कुरआने करीम को तोलने और वज़न के बराबर सदका करने का इस्लाम में कोई हुक्म नहीं है।कुरआन व हदीस और फ़िक़्ह की किताबों में कहीं ऐसा हुक्म नहीं आया है। हाँ सदका व खैरात एक उम्दा काम है। लिहाज़ा जो कुछ आप से हो सके थोड़ा या ज़्यादा राहे खुदा में खर्च कर दें, सवाब मिलेगा और नहीं  किया  तब भी गुनाह व अज़ाब नही।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 166)

Monday

बैआना (एडवान्स) ज़ब्त करना

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आजकल अक्सर ऐसा होता है कि एक शख्स किसी से कोई माल खरीदता है और बेचने वाले को कुछ रक़म पेशगी देता है। जिसको बैआना कहते हैं। फिर किसी वजह से वह माल लेने से इन्कार कर देता है तो बेचने वाला बैचने की रकम ख़रीदार को वापस नहीं करता बल्कि ज़ब्त कर लेता है और पहले से यह तय किया जाता है कि अगर सौदा न ख़रीदी तो बैआना जब्त कर लेंगे। यह बैआना ज़ब्त करना शरअ के मुताबिक मना है और यह बैआने की रकम इस तरह उसके लिए हलाल नहीं बल्कि हराम है।

आलाहज़रत अलैहिर्रहमा फ़रमाते हैं:- बैआना आजकल तो यूँ होता है कि अगर खरीदार बाद बैआना देने के, न ले तो बैआना ज़ब्त, और यह कतअन हराम है।
(अलमलफूज़ हिस्सा 3, सफ़ा 27)

हाँ अगर बैअ तमाम हो ली थी और बिला किसी शरई वजह के ख़रीदार ख्वामख्वाह ख़रीदने से फिरता है तो बेचने वाले को हक हासिल है कि वह बैअ को लाज़िम जाने और माल उसके हवाले करे और कीमत उससे हासिल करे ख्वाह काज़ी व हाकिम या पंचायत वगैरह की मदद से लेकिन उसको माल न देना फिर उसकी रकम वापस न करना हराम है।


आलाहज़रत अलैहिर्रहमा फरमाते हैं :-बैअ न होने की हालत में बैआना ज़ब्त कर लेना जैसा कि जाहिलों में रिवाज है ज़ुल्मे सरीह है (खुला हुआ ज़ुल्म है)
मजीद फरमाते हैं :- यह कभी न होगा कि बैअ को फस्ख (रद्द) हो जाना मानकर मबीअ (सौदा) ज़ैद को न दे और उसके रुपये इस जुर्म में कि तू क्यूं फिर गया, ज़ब्त कर ले।
(फ़तावा रज़विया, जिल्द 7, सफ़ा 7)

भाईयो! हराम खाने से बचो सुकून व चैन जिसे अल्लाह तआला देता है उसे मिलता है दौलत और पैसे से नहीं। आपने बहुत से मालदारों को बेचैन व परेशान देखा होगा।और बहुत से गरीबों को चैन व सुकून में आराम से सोते देखा होगा और असली चैन की जगह तो जन्नत है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 165)



Saturday


नस्ब और बिरादरी बदलना

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यह बीमारी भी काफ़ी आम हो गई है कि हैं किसी कौम और बिरादरी के और खुद को दूसरी कौम व बिरादरी का ज़ाहिर कर रहे हैं और चाहते हैं कि इस जरीए से बरतरीफज़ीलत और इज़्ज़त हासिल होगी हालांकि ऐसा करने से न इज़्ज़त मिलती है न फ़ज़ीलत। इज़्ज़त व जिल्लत तो अल्लाह तआला के दस्ते कुदरत में है जिसे जो चाहता है अता फरमाता है। ये अपना नस्ब बदलने वाले बहुत बड़े बेवकूफ, अहमक, जाहिल, बेगैरत व बेशर्म हैं।
हदीस शरीफ में है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया जो जानते हुए अपने बाप के सिवा दूसरे को अपना बाप बताये, उस पर जन्नत हराम है।
(सहीह बुख़ारी जिल्द 2 सफ़ा 1001, सहीह मुस्लिम ,जिल्द
1 सफा 442)
और एक दूसरी हदीस में अपना नस्ब बदलने वाले और अपने बाप के अलावा किसी दूसरे को बाप बताने वालों के बारे में हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि उन पर अल्लाह तआला और फ़िरिश्तों और सारे लोगों की लानत है। (सहीह मुस्लिम, जिल्द 1, सफ़ा 465)
आजकल खुद को सय्यिद कहलाने और आले रसूल बनने का शौक बहुत ज़ोर पकड़ गया है। देखते ही देखते हज़ारों लाखों जो सय्यिद नहीं थे वह सय्यिद बन गये जिसकी वजह से अब सय्यिदों का इहतिराम भी मुश्किल होता जा रहा है क्यूंकि नकली सय्यिदों की भरमार है। खुद मेरी मालूमात में ऐसे काफ़ी लोग हैं। जो अब तक कुछ और थे और अब चालीस और पचास की उम्र में वह सय्यिद और।आले रसूल बन गये। ये सब बहुत बड़े वाले मक्कार और धोकेबाज़, फरेबी और जालसाज हैं जिन पर खुदाए तआला की लानत है।
मुरादाबाद शहर में अभी जल्द ही एक मौलवी ने 55 साल की उम्र में खुद को आले रसूल और सय्यिद कहलवाना शुरू कर दिया है और कहता है कि मेरे पीर ने मुझे सय्यिद बना दिया गोया।कि सियादत के साथ मज़ाक हो रहा है।
और इसमें काफ़ी दख़ल हमारी कौम के बाज़ अफ़राद की इस बेजा अकीदत का भी है कि उनकी नज़र में इल्म व अमल तकवा व तहारत की कोई कद्र नहीं बस जो किसी बड़े का बाप बेटा है वही कुछ है। हालाँकि इस्लामी नुक़्तए नज़र से और तो और खुद सादाते किराम, जिनका इहतिराम व अदब ईमान की पहचान है। आलिमे दीन जो तफसीर व हदीस व फ़िह का इल्म काफ़ी रखता हो वह उन सादात से अफ़ज़ल है जो आलिम न हों।
हदीस में है रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया :-
"जिसका अमल उसे पीछे ढकेल दे, वह नस्ब से आगे नहीं बढ़ सकता।"
(सहीह मुस्लिम ,जिल्द 2, सफ़ा 345)
।"
आलाहज़रत इमाम अहले सुन्नत मौलाना अहमद रज़ा खाँ साहब अलैहिर्रहमह फरमाते हैं, फ़ज़्ले इल्म फज्ले नस्ब से अशरफ व आज़म है। सय्यिद साहब कि आलिम न हों अगरचे सालेह हों आलिम सुन्नी सहीहुल अक़ीदा के मरतबे को नहीं पहुँच सकते।
(फतावा रजविया, जिल्द 6, सफ़ा 56)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 163)

Thursday

अक़ीके का गोश्त दादा दादी और नाना नानी  के लिए नाजाइज़ समझना

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कुछ लोग अकीके का गोश्त दादा दादी और नाना नानी के लिए खाने को नाजाइज़ ख्याल करते हैं यह बहुत बड़ी जहालत नादानी और गलतफहमी है। अकीके का गोश्त दादा दादी और नाना नानी के लिए खाना बिला शुबा जाइज़ है बल्कि जहाँ इस खाने को बुरा जानते हों वहाँ उनके लिए खाना ज़रूरी है।
और वह खायेंगे तो रिवाज़ मिटाने का सवाब पायेंगे।
आलाहजरत इमामे अहले सुन्नत मौलाना अहमद रजा खाँ साहब अलैहिर्रहमतु वर्रिदवान से इस बारे पूछा गया तो फ़रमाया:-सब खा सकते हैं, उकूदुददरिया में है :
                             احكامها احكام الا ضحية
(अलमलफूज़ हिस्सा अव्वल सफ़ा 46)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 162)

Wednesday

मर्द और औरतों का एक दूसरे की मुशाबहत करना

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आजकल मर्दों में औरतों की और औरतों में मर्दों  की मुशाबहत इख्तियार करने और उनके अन्दा व लिबास व चाल ढाल अपनाने का मर्ज़ पैदा हो गया है हालाँकि हदीसे पाक में ऐसे लोगों पर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने लानत फ़रमाई है जो मर्द होकर औरतों की और औरत होकर मर्दों की वज़अ क़तअ अपनायें।

एक हदीस में है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि हमारे गिरोह से नहीं वह औरत जो मर्दाना रखरखाव अपनाये और वह मर्द जो जनाना ढंग इख्तियार करे।
अबू दाऊद की हदीस में है कि एक औरत के बारे में सय्यिदा आइशा सिद्दीक़ा रदियल्लाहु तआला अन्हा को बताया गया कि वह मर्दाना जूता पहनती है तो उन्होंने फरमाया कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम  ने मर्दानी औरतों पर लानत फ़रमाई है।
खुलासा यह है कि जो वज़अ क़तअ रखरखाव लिबास वगैरह मर्दों के साथ खास हों उनको औरतें न अपनायें और जो औरतों के साथ ख़ास हो उसको मर्द न अपनायें।

आजकल कुछ औरतें मर्दों की तरह बाल कटवाने लगी हैं यह उनके लिए हराम है और यह मरने के बाद सख़्त अजाब पायेंगी।
ऐसे ही कुछ मर्द औरतों की तरह बाल बढ़ाते हैं सूफी बनने के लिए लम्बी लम्बी लटें रखते हैं, चोटियाँ गूँधते और जूड़े बना लेते हैं, ये सब नाजाइज़ व ख़िलाफ़ शरअ है। तसव्वुफ और फकीरी बाल बढ़ाने और रंगे कपड़े पहनने का नाम नहीं बल्कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की सच्ची पैरवी करना और ख्वाहिशाते नफ़्सानी को मारने का नाम है। (बहारे शरीअत हिस्सा 16 सफ़ा 198)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 162)

Tuesday

औरत का नामहरम मनिहारों के हाथ से चूड़ियाँ पहनना

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यह हरामकारी काफी राइज है। औरतों को मनिहारों के हाथों में हाथ देकर चूड़ियाँ पहनना सख्त हराम है। बल्कि इसमें दो हराम हैं, एक गैर मर्द को हाथ दिखाना और दूसरा उसके हाथ में हाथ देना।
हमारी इस्लामी माँ बहनों को चाहिए कि अल्लाह तआला से डरें, उसके अज़ाब से बचें और इस फ़ेले हराम को फौरन छोड़ दें। बाज़ार से चूड़ियाँ ख़रीद लिया करें और घर में या तो औरतें एक दूसरे को पहना दें या घर वालों में से किसी महरम से पहन लें या शौहर अपनी बीवी को पहना दें तो गुनाह से बच जायेंगी।
जो मर्द अपनी औरतों को मनिहारों से चूड़ियाँ पहनवाते हैं। या उससे मना नहीं करते वह बहुत बड़े बेगैरत और दयूस हैं।
सय्यिदी आलाहज़रत अलैहिर्रहमह इस मसअले के मुताल्लिक फरमाते हैं : -हराम हराम हराम हाथ दिखाना गैर मर्द को हराम, उसके हाथ में हाथ देना हराम ,जो मर्द अपनी औरतों के साथ उसे रवा रखते हैं दय्यूस हैं।
(फतावा रज़विया जिल्द १० निस्फ़ आख़िर सफ़ा 208)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 160)

Monday

क्या औरतों को जानवर ज़ुबह करना नाजाइज़ है?

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औरत भी जानवर ज़ुबह(ज़िबह) कर सकती है और उसके हाथ का ज़ुबह किया हुआ जानवर हलाल है। मर्द और औरत सब उसे खा सकते हैं। मिश्कात शरीफ़ किताबुस्सैद वलज़िबाह सफ़ा 357 पर बुख़ारी शरीफ के हवाले से इसके जाइज़ होने की साफ़ हदीस मौजूद है जिसमें यह है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने एक लड़की के हाथ की जुबह की हुई बकरी का गोश्त खाने की इजाज़त दी।
मजीद तफसील के लिए देखिए सय्यिदी मुफ्ती आज़म हिन्द अलैहिर्रहमह का फतावा मस्तफ़विया जिल्द सोम सफ़ा 153 और फतावा रज़विया जिल्द 8 सफ़ा 328 और सफ़ा 332, -- खुलासा यह कि औरतों के लिए भी मर्दों की तरह हलाल जानवरों और परिन्दों को ज़ुबह करना जाइज़ है जो इसे ग़लत कहे वह खुद गलत और निरा जाहिल बल्कि शरीअत पर इफ्त्तिरा करने वाला है।
 समझदार बच्चे का जुबह किया हुआ जानवर भी हलाल है। और मुसलमान अगर बदकार और हरामकार हो तो ज़बीहा उसका भी जाइज़ है, नमाज़, रोज़े का पाबन्द न हो, उसके हाथ का भी ज़ुबह किया हुआ जानवर हलाल है। हाँ नमाज़ छोड़ना और हराम काम करना इस्लाम में बहुत बुरा है।
 दुर्रेमुख्तार में है:-ज़िबह करने वाले के लिए मुसलमान और आसमानी किताबों पर ईमान रखने वाला होना काफी है अगरचे औरत ही हो।
(दुर्रेमुख्तार, किताबुज़्ज़बाएह , जिल्द 2,सफहा,228,मतबअ मुजतबाई)
आलाहज़रत मौलाना शाह अहमद रजा खाँ अलैहिर्रहमह।फरमाते हैं।:-जुबह के लिए दीने समावी (आसमानी दीन) शर्त है, आमाल शर्त नहीं।
(फतावा रज़विया, जिल्द 8 सफ़ा 333)
हाँ जो लोग काफ़िर गैर मुस्लिम हों या उनके अक़ीदे की ख़राबी या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की शान में गुस्ताखी की वजह से उन्हें इस्लाम से ख़ारिज व मुरतद क़रार दिया गया है उनके का ज़बीहा हराम व मुरदार है।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह,पेज 160)

Friday

घर वालों को तंगी और परेशानी में छोड़ कर नफ़्ल इबादत करना

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कुछ लोगों को देखा गया है कि वह इबादत व रियाज़त में
लगे रहते हैं। इशराक,चाश्त,अव्वाबीन तहज्जुद की नमाज़ों को अदा करते, तस्बीह व वज़ीफे पढ़ते हैं और उनके बीवी बच्चे या बूढ़े और मुफलिस माँ बाप रोटी के टुकड़ों के लिए मुहताज और तेरा मेरा मुँह देखते नज़र  आते हैं। यह ऐसे लोगों की भूल है और वह नहीं जानते बन्दगाने खुदा में से हक वालों के हक अदा करना भी खुदाए तआला की इबादत और उसकी खुशनूदी हासिल करने का ज़रीया है। नफ्ल इबादत में मशगूलियत अगर बीवी बच्चों और मुफलिस माँ बाप के ज़रूरी इख़राजात से रोकती हो तो पहले बीवी बच्चों की किफ़ालत करे फिर वक़्त पाये तो नवाफिल में मशगूल हो। अलबत्ता पाँचों वक़्त की फ़र्ज़ नमाज़ हरगिज़ किसी सूरत माफ नहीं, उसकी अदाएगी हर हाल हर एक पर निहायत लाज़िम व ज़रूरी है, ख़्वाह कैसे भी करे और कुछ भी करे।

और आजकल इस दौर में अगर कोई शख्स सिर्फ फ़र्ज़ नमाजों को पाबन्दी के साथ बाजमाअत अदा करता हो, रमज़ान के रोज़े रखता हो अगर ज़कात फ़र्ज़ हो तो ज़कात निकालता हो, हज फर्ज़ हुआ हो तो ज़िन्दगी में सिर्फ एक बार हज कर चुका हो, और हराम काम मसलन शराब, जुआ, चोरी, ज़िनाकारी ,सूदखोरी, गीबत व बदकारी खयानत व बदअहदी, सिनेमा, गाने बाजे और तमाशों वगैरह से बचता हो और हत्तल इमकान यानी जहाँ तक हो सके सुन्नतों का पाबन्द हो और इसके साथ साथ जाइज़ पेशे के ज़रीए बीवी बच्चों की किफालत करता हो और ईमान व अकीदा दुरुस्त रहे तो यकीनन वह अल्लाह वाला है,अल्लाह  तआला का प्यारा है और वह अल्लाह तआला का मुकद्दस नेक बन्दा है। ख्वाह वह नफ्ल नमाज़े और नफ़ली इबादत अदा न कर पाता हो, वज़ीफ़े और तस्वीह, इशराक व चाश्त व अवाबीन वगैरह में मशगूल न रहता हो।
 हदीस पाक में है रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया- :" फ़र्ज़ इबादत के बाद हलाल रोज़ी की तलाश फ़र्ज़ है।"(मिश्कात शरीफ़ सफ़ा 242)

और फरमाते हैं :-"सबसे ज्यादा उम्दा व अफज़ल वह माल है जो तुम अपने घर वालों पर खर्च करो।" (मिश्कात सफा 170)
सदरुश्शरिया हज़रत मौलाना अमजद अली अलैहिर्रहमह फरमाते हैं, 'इतना कमाना फर्ज़ है जो अपने लिए और अहल व अयाल के लिए और जिन का नफ़का उसके ज़िम्मे वाजिब है, उनके नफ़के के लिए और कर्ज़ अदा करने के लिए किफायत कर सके।" (बहारे शरीअत हिस्सा 16 सफ़ा 218)
और फरमाते हैं, "क़दरे किफायत से ज़्यादा इसलिए कमाता है कि फुकरा व मसाकीन की ख़बरगीरी कर सके या करीबी रिश्तेदारों की मदद करे तो यह मुसतहब है और यह नपल इबादत से अफ़ज़ल है।” (बहारे शरीअत हिस्सा 16 सफ़ा 218)
फिर फरमाते हैं जो लोग मसाजिद और खानकाहों में बैठ जाते हैं और बसर औकात (गुज़ारे) के लिए कुछ काम नहीं करते और खुद को मुतवक्किल बताते हैं हालांकि उनकी निगाहें इसकी।मुन्तज़िर रहती हैं कि कोई हमें कुछ दे जाये,वह मुतवक्किल नहीं। इससे बेहतर यह था कि वह कुछ काम करते और उससे बसर औकात यअनी गुजारा करते।
इसी तरह आजकल बहुत से लोगों ने पीरी, मुरीदी को पेशा बना लिया है। सालाना मुरीदों में दौरा करते हैं और मुरीदों से तरह तरह की रकमें खसोटते हैं और उनमें कुछ ऐसे हैं कि झूट फ़रेब से भी काम लेते हैं, यह नाजइज़ है।
(बहारे शरीअत हिस्सा 16 सफ़ा 218)
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 157)




क्या जो इस्लामी बातों की जानकरी न होने की वजह से अमल नही करते उनकी पकड़ न होगी?*

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*आजकल काफी लोग ऐसे हैं जो दीनी बातों, इस्लामी अकीदों, पाकी, नापाकी, नमाज़ व रोज़ा और ज़कात वगैरहा के मसाइल नहीं जानते और सीखने की कोशिश भी नहीं करते और खुदा तआला व रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने किस बात को हराम फरमाया और किसे हलाल किसे जाइज़ और किसे नाजाइज़ उन्हें इसका इल्म नहीं और न इल्म सीखने की परवाह ,और खिलाफ़े शरअ हरकतें करते हैं। गलत सलत नमाज़ अदा करते हैं, लेन देन ख़रीद व फरोख्त और रहन सहन में मज़हबे इस्लाम के ख़िलाफ़ चलते हैं और उनसे कोई कुछ कहे या उन्हें गलत बात से रोके ख़िलाफ़ शरअ पर टोके तो वो कहते हैं, हम जानते ही नहीं हैं लिहाज़ा हम से कोई मुआखज़ा और सुवाल न होगा और हम बरोज़े कियामत  दिये जायेंगे।*

*यह उन लोगों की सख्त गलतफहमी है, सही बात यह है कि
अन्जान गलतकारों की डबल सजा होगी, एक इल्म हासिल न करने की और उलमा से न पूछने की और दूसरे गलत काम करने की। और जो जानते हैं लेकिन अमल नहीं करते उन्हें एक ही अजाब होगा यअनी अमल न करने का , इल्म न सीखने का गुनाह उन पर न होगा।*

*आजकल आदमी अगर कोई सामान गाड़ियाँ, कपड़े ज़ेवरात खाने पीने की चीज़ खरीदे और उसको उस चीज़ के गलत व ख़राब या उसमें धोखेबाज़ी का शुबह हो जाये तो जॉच परख करायेगा, लोगों से मशवरा करेगा, जानकारों को लाकर दिखायेगा, खूब छान फटक करेगा लेकिन इस्लाम के मुआमले में मनमानी करता रहेगा, उल्टी सीधी नमाज़ पढ़ता रहेगा। वुज़ू व , नहाने धोने में इस्लामी तरीके का ख्याल नहीं रखेगा, लेन देन और मुआमलात में हराम को हलाल और हलाल को हराम समझाता रहेगा लेकिन आलिम मौलवियों से मालूम नहीं करेगा कि मैं जो करता हूँ यह गलत है या सही?*

 *यह इसलिए हुआ कि अब इन्सान को दुनिया के नुकसान
की तो फिक्र है लेकिन आख़िरत के घाटे की कोई फिक्र नहीं हालाँकि वह मौत से किसी सूरत बच न सकेगा और कब्र व जहन्नम के अज़ाब से भाग निकलना उसके बस की बात न होगी। दुनियवी हुकूमतों और सल्तनतों की ही मिसाल ले लीजिए अगर कोई शख्स किसी हुकूमत के किसी कानून के खिलाफ वर्ज़ी करे और फिर कह दे कि मैं जानता ही नहीं हैं तो हुक्काम और पुलिस उसकी बात नहीं सुनेंगे और उसे सज़ा दी जायेगी। मिसाल के तौर पर कोई शख्स बगैर लाइसेंस के ड्राइवरी करे या बगैर रोड टैक्स  जमा करे गाड़ियाँ और मोटर चलाये और जब पकड़ा जाये तो कहे मुझको पता नहीं था कि गाड़ी चलाने के लिए ये काम करना पड़ते हैं, तो हरगिज़ उसकी बात नहीं सुनी जायेगी। ऐसे ही कोई शख्स बगैर टिकट के रेल में सफर करने लगे या पैसेन्जर का टिकट ले और एक्सप्रेस में सफर करने लगे, सेकेन्ड क्लास का टिकट लेकर फर्स्ट क्लास में बैठ जाये और जब पकड़ा जाये तो कह दे कि मैं जानता ही नहीं रेल में सफर के लिए टिकट लेना पड़ता है या यह एक्सप्रेस है मैं नहीं पहचान सका और यह फर्स्ट क्लास है मुझको नहीं मालूम तो क्या चेक करने वाले उसको छोड़ देंगे? हरगिज़ नहीं। ऐसे ही दीन के मामले में जो लोग ग़लत सलत करते हैं वो भी यह कहने से नहीं छूटेंगे कि हम जानते ही न थे और कियामत के दिन उन्हें दुहरी सज़ा होगी, एक न जानने की और दूसरी न करने की। इन सबकी तफसील व तहकीक के लिए देखिए आलाहज़रत अलैहिर्रहमा के फरमूदात अलमलफूज़ हिस्सा अव्वल सफ़ा 27 पर। इस सिलसिले में जो लोग कोई दीनी इस्लामी मालूमात हासिल करना चाहें वह हमसे खत व किताबत के ज़रिये राब्ता कर सकते हैं हमें जो मालूमात होगी, हम उन्हें बता देंगे। हमारा पता किताब के टाइटिल पर है।*
*(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 155)*

सुअर के नाम लेने को बुरा जानना

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मज़हबे इस्लाम में सुअर खाना हराम है और उसका गोश्त पोस्त, खूनहड्डी, बाल, पसीना, थूक वगैरा पूरा बदन और उससे ख़ारिज होने वाली हर चीज नापाक है और इस मअना कर सुअर से नफरत करना ईमान की पहचान और मोमिन की शान है, लेकिन कुछ लोग जिहालत की वजह से इसका नाम भी जबान से निकालने को बुरा जानते हैं। यहाँ तक कि बाज़ निरे अनपढ़ गंवार यह तक कह देते हैं कि जिसने अपने मुंह से सुअर का नाम लिया चालीस दिन तक उसकी जबान नापाक रहती है। जहालत यहाँ तक बढ़ चुकी है कि एक मरतबा एक गाँव में इमाम साहब ने मस्जिद में तकरीर के वक़्त यह कह दिया कि शराब पीना ऐसा है जैसे सुअर खाना, तो लोगों ने इस पर खूब हंगामा किया कि इन्होंने मस्जिद में सुअर का नाम क्यूँ लिया यहाँ तक कि इस जुर्म में बेचारे इमाम साहब का हिसाब कर दिया गया।

भाईयो! किसी बुरी से बुरी चीज़ का भी बुराई के साथ नाम लेना बुरा नहीं है। हाँ अगर कोई किसी बुरी चीज़ को अच्छा कहे हराम को हलाल कहे तो यह यकीनन गलत है बल्कि बुरी चीज़ की बुराई बगैर नाम लिए हो भी नहीं सकती।* *शैतान, इबलीस ,फ़िरऔन,हामान, अबूलहब और अबूजहल का नाम भी तो लिया जाता है। ये हों या और दूसरे खुदाए तआला  व रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के दुश्मन वह सबके सब सुअर से बदरजहा बदतर हैं, बल्कि।इब्लीस,फिरऔन,हामान और अबूलहब का नाम तो कुरआन में भी है और हर कुरआन पढ़ने वाला नाम लेता।

खुदाए तआला और उसके महबूब सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के जितने दुश्मन हैं और उनकी बारगाहों में गुस्ताख़ी और बेअदबी करने वाले हैं, ये सब सुअर से कहीं ज़्यादा बुरे हैं। ये सब जहन्नम में जायेंगे और जानवर कोई भी हो हराम हो हलाल हो वह हरगिज़ जहन्नम में नहीं जायेगा बल्कि हिसाब व किताब के बाद फ़ना कर दिये जायेंगे।

खुलासा यह है कि सुअर का नाम लेकर उसके बारे में हुक्मे शरअ से आगाह करना हरगिज़ कोई बुरा काम नहीं, ख्वाह मस्जिद में हो या गैरे मस्जिद में, वाज़ व तकरीर में हो या गुफ्तगू में। आख़िर कुरआन में भी तो उसका नाम कई जगह आया है,क्यूंकि अरबी में जिसको खिन्ज़ीर कहते हैं उसी को हिन्दुस्तान वाले सुअर कहते हैं, तो अगर नमाज़ में वही आयतें तिलावत की गई जिनमें सुअर के हराम फरमाने का ज़िक्र है तो उसका नाम नमाज़ में आयेगा और मस्जिद में भी ।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह, पेज 154)