क्या क़व्वाली सुनना जाइज़ है?
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इस्लामी भाईयो ! आज कल बुज़ुर्गाने दीन के मज़ारात पर उनके उर्सों का नाम लेकर खूब मौज मस्तियां हो रही हैं और अपनी रंग रंगेलियों, बाजों, तमाशों, औरतों की छेड़छाड़ के मजे उठाने के लिए अल्लाह वालों के मज़ारों को इस्तेमाल किया जा रहा है और ऐसे लोगों को न खुदा का ख़ौफ़ है, न मौत की फिक्र और न जहन्नम का डर।
आज कुफ्फार व मुशरिकीन यह कहने लगे हैं कि इस्लाम भी दूसरे मजहबों की तरह नाच, गानों, तमाशों, बाजों और बेपर्दा औरतों को स्टेजों पर लाकर बे हाई का मुज़ाहिरा करने वाला मज़हब है लिहाज़ा अहले कुफ़्र के इस्लाम कबूल करने की जो रफ्तार थी उसमें बहुत बड़ी कमी आ गई है।
मज़हबे इस्लाम में बतौर लहव व लइब ढोल, बाजे और मज़ामीर हमेशा से हराम रहे हैं। बुखारी शरीफ की हदीस है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहुतआलाअलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया :
"जरूर मेरी उम्मत में ऐसे लोग होने वाले हैं जो ज़िना रेशमी कपड़ों, शराब और बाजों ताशों को हलाल ठहरायेंगे।"
(सही बुख़ारी, जिल्द 2, किताबुल अशरिबह, सफहा 837)
दूसरी हदीस में हुज़ूर नबीए करीम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने कियामत की निशानियां बयान करते हुए फ़रमाया :
"कियामत के करीब नाचने गाने वालियों और बाजे ताशों
की कसरत हो जाएगी।"
(तिर्मिजी, मिश्कातबाबे अशरातुस्साअह सफ़हा 470)
फतावा आलमगीरी जो अब से साढ़े तीन सौ साल पहले बादशाहे हिन्दुस्तान मुहीयुद्दीन औरंगज़ेब आलमगीर रहमतुल्लाह तआला अलैह के हुक्म से उस दौर के तकरीबन सभी मुसतनद व मोतबर उलमाए किराम ने जमा होकर मुरतब फरमाई जो अरबी जबान (भाषा) में तकरीबन तीन हज़ार सफ़हात और छह जिल्दों पर फैला हुआ एक अज़ीम इस्लामी इन्साइक्लोपीडिया है।
उस में लिखा है।
"सिमा, कव्वाली और रक्स (नाच कूद)जो आज कल के नाम निहाद सूफियों में राइज है यह हराम है इस में शिरकत जाइज़ नही।"
( फतावा आलमगीरी ,जिल्द 5, किताबुल कराहियह ,बाब 17 ,सफहा 352)
आलाहज़रत मौलाना शाह अहमद रज़ा खां साहब अलैहिर्रहमा का फतवा अरब व अजम में माना जा रहा है उन्होंने मज़ामीर के साथ कव्वालियों को अपनी किताबों में कई जगह हराम लिखा है। कुछ लोग कहते हैं मज़ामीर के साथ कव्वाली चिश्तिया सिलसिले में राइज और जाइज़ है। यह बुज़ुर्गाने चिश्तिया पर उनका खुला बोहतान है बल्कि उन बुजुर्गों ने भी मज़ामीर के साथ कव्वाली सुनने को हराम फरमाया है। सय्यिदना महबूबे इलाही निज़ामुद्दीन देहलवी रहमतुल्लाहि तआला अलैह ने अपने ख़ास ख़लीफ़ा सय्यिदना फ़ख़रुद्दीन ज़रदारी से मसअलए कव्वाली के मुतअल्लिक एक रिसाला लिखवाया जिसका नाम ‘कश्फुल किनान अन उसूलिस्सिमा’ है। इसमें साफ लिखा है : हमारे बुज़ुर्गों का सिमा इस मज़ामीर के बोहतान से बरी है (उनका सिमा तो है) सिर्फ कव्वाल की आवाज़ अशआर के साथ हो जो कमाल सनअते इलाही की ख़बर देते हैं।
कुतबुल अकताब सय्यिदना फरीदुद्दीन गंज शकर रहमतुल्लाह तआला अलैह के मुरीद और सय्यिदना महबूब इलाही निज़ामुद्दीन देहलवी रहमतुल्लाह तआला अलैह के ख़लीफ़ा सय्यिदना मुहम्मद बिन मुबारक अलवी किरमानी रहमतुल्लाहि तआला अलैह अपनी मशहूर किरताब ‘सैरुल औलिया’ में तहरीर फरमाते हैं:
“महबूब इलाही ख्वाजा निज़ामुद्दीन देहलवी अलैहिर्रहमतु वर्रिदवान ने फरमाया कि चन्द शराइत के साथ सिमा हलाल है
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(1) सुनाने वाला मर्द कामिल हो छोटा लड़का और औरत न हो।
(2)सुनने वाला यादे खुदा से ग़ाफ़िल न हो।
(3) जो कलाम पढ़ा जाएफ़हश, बेहयाई और मसखरगी न हो।
(4) आलए सिमाअ यानी सारंगी मज़ामीर व रुबाब से पाक हो।
(सैरुल औलियाबाब 6, दर सिमा, वज्द व रक्स, सफ़हा 501)
इसके अलावा ‘सैरुल औलियाशरीफ़' में एक और मकाम पर है कि एक शख्स ने हजरते महबूब इलाही ख्वाजा निज़ामुद्दीन रहमतुल्लाहि तआला अलैह से अर्ज किया कि इन अय्याम में बाज़ आस्तानादार दुरवेशों ने ऐसे मजमे में जहाँ चंग व रुबाब व मज़ामीर था, रक्स किया तो हज़रत ने फरमाया कि उन्होंने अच्छा काम नहीं किया जो चीज़ शरअ में नाजाइज़ है वह नापसन्दीदा है। उसके बाद किसी ने बताया कि जब यह जमाअत बाहर आई तो लोगों ने उन से पूछा कि तुम ने यह क्या किया वहीं तो मज़ामीर थे तुम ने सिमा किस तरह सुना और रक्स किया? उन्होंने कहा हम इस तरह सिमा में डूबे हुए थे कि हमें यह मालूम ही नहीं हुआ कि यहाँ मज़ामी हैं या नहीं। हज़रत सुल्तानुल मशाइख ने फरमाया यह कोई जवाब नहीं इस तरह तो हर गुनाहगार हरामकार कह सकता है।
(सैरुल औलिया, बाब 9 , सफ़हा 530)
यानी कि आदमी ज़िना करेगा और कह देगा कि मैं बेहोश था मुझको पता नहीं कि मेरी बीवी है या गैर औरत, शराबी कहेगा कि मुझे होश नहीं कि शराब पी या शरबत।
इसके अलावा उन्हीं हज़रते सय्यिदना महबूब इलाही निज़ामुद्दीन हक़ वालिदैन अलैहिर्रहमतु वर्रिदवान के मलफूज़ात पर मुशतमिल उन्हीं के मुरीद व खलीफा हज़रत ख्वाजा अमीर हसन अलाई सन्जरी की तसनीफ़ ‘वाइदुल फवाद शरीफ़' में है।
हज़रते महबूब इलाही की खिदमत में एक शख्स आया और बताया कि फलां जगह आपके मुरीदों ने महफ़िल की है और वहाँ मज़ामीर भी थे हज़रत महबूब इलाही ने इस बात को पसन्द नहीं फ़रमाया। और फ़रमाया कि मैंने मना किया है मज़ामीर (बाजे) हराम चीज़े वहाँ नहीं होना चाहिए इन लोगों ने जो कुछ किया अच्छा नहीं किया इस बारे में काफ़ी ज़िक्र फरमाते रहे। इसके बाद हज़रत ने फरमाया कि अगर कोई किसी मकाम से गिरे तो शरअ में गिरेगा और अगर कोई शरअ से गिरा तो कहाँ गिरेगा।
(फवाइदुल फवाद,जिल्द 3, मजलिस पन्जुम,सफ़हा 512, मतबूआ उर्दू अकादमी ,देहली,तर्जमा ख्वाजा हसन निज़ामी)
मुसलमानो! जरा सोचो यह हजरत ख्वाजा निज़ामुद्दीन देहलवी रदियल्लाहु तआला अन्हु का फतावा है जो तुमने ऊपर पढ़ा। इन अक़वाल के होते हुए क्या कोई कह सकता है कि खानदाने चिश्तिया में मज़ामीर के साथ कव्वाली जाइज़ है? हाँ यह बात वही लोग कहेंगे जो चिश्ती हैं, न कादरी उन्हें तो मज़ेदारियां और लुत्फ़ अन्दोज़ियां चाहिए।
और अब जबकि सारे के सारे कव्वाल बे नमाज़ी और फ़ासिक व फाजिर हैं। यहाँ तक कि बाज़ शराबी तक सुनने में आए हैं। यहाँ तक कि औरतों और अमरद लड़के भी चल पड़े हैं। ऐसे माहौल में इन कव्वालियों को सिर्फ वही जाइज़ कहेगा जिसको इस्लाम व कुरआन ,दीन व ईमान से कोई महब्बत न हो और हरामकारी, बहायाई, बदकारी उसके रग व पय में सराहत कर गई हो। और कुरआन व हदीस के फ़रामीन की उसे कोई परवाह न हो। क्या इसी का नाम इस्लाम है कि मुसलमान औरतों को लाखों के मजमे में लाकर उनके गाने बजाने कराए जायें फिर उन तमाशों का नाम बुज़ुर्गों का उर्स रखा जाए। काफ़िरों के सामने मुसलमानों और मजहबे इस्लाम को जलील व बदनाम किया जाए?
कुछ लोग कहते हैं कि कव्वाली अहल के लिए जाइज़ और नाअहल के लिए नाजाइज़ है। ऐसा कहने वालों से हम पूछते हैं। कि आजकल जो कव्वालियों की मजलिसों में जो लाखों लाख के मजमे होते हैं क्या यह सब अल्लाह वाले और असहाबे इसतगराक हैं? जिन्हें दुनिया व मताए दुनिया का कतअन होश नहीं? जिन्हें यादे खुदा और ज़िक्र इलाही से एक आन की फुरसत नहीं?
ख़र्राटे की नीदों और गप्पों, शप्पों में नमाज़ों को गंवा देने वाले, रात दिन नंगी फ़िल्मोंगन्दे गानों में मस्त रहने वाले, मां बाप की नाफरमानी करने और उनको सताने वाले, चोर लकोर, झूटे फ़रेबी, गिरेहकाट वगैरा क्या सब के सब थोड़ी देर के लिए कव्वालियों की मजलिस में शरीक हो कर अल्लाह वाले हो जाते और उसकी याद में महव हो जाते हैं? या पीर साहब ने अहल का बहाना तलाश करके अपनी मौज मस्तियों का सामान कर रखा है? कि पीरी भी हाथ से न जाए और दुनिया की मौज मस्तियों में भी कोई कमी न आए। याद रखो कब्र की अँधरी कोठरी में कोई हीला व बहाना न चलेगा।
कुछ लोगों को यह कहते सुना गया है मज़ामीर के साथ कव्वाली नाजाइज़ होती तो दरगाहों और ख़ानकाहों में क्यूं होती?
काश यह लोग जानते कि रसूले पाक सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की हदीसों बुज़ुगाने दीन के मुकाबले में आजकल के फ़ासिक दाढ़ी मुन्डाने वाले नमाज़ों को कसदन छोड़ने वाले बाज़ ख़ानकाहियों का अमल पेश करना दीन से दूरी और सख्त नादानी है जो हदीसें हमने ऊपर लिखीं और बुज़ुर्गाने दीन के अक़वाल नक़ल किये गए उनके मुकाबिल न किसी का कौल मोतबर होगा न अमल। आजकल खानकाहों में किसी काम का होना उसके जाइज़ होने की शरई दलील नहीं है।
बाज़ खानकाहों की जबानी यह भी सुना कि हम कव्वालियां इसलिए कराते हैं कि ज़्यादा लोग जमा हो जायें और उर्स भारी हो जाए। यह भी सख्त नादानी है गोया आपको अपनी नामवरी की फिक्र है आख़िरत की फिक्र नहीं। आपको कोई जानता न हो,आपके पास कोई बैठता न हो, आप गुमनाम हों और हरामकारियों से बचते हो। नमाजों के पाबन्द हों, बीवी बच्चों के लिए हलाल रोज़ी कमाने में लगे हों और आपका परवरदिगार आप से राज़ी हो यह हज़ार दर्जे बेहतर है इससे कि आप मशहूरे जमाना शख्सियत हों। आपके हज़ारों मुरीद हों, हर वक़्त हज़ारों मोअतकिदीन का झमगटटा लगा रहता हो या लाखों मजमे में बोलने वाले ख़तीब और मुकर्रिर हों। बड़े अल्लामा व मौलाना शुमार किये जाते हों लेकिन हरामकारियों में इनहिमाक, नमाज़ों से गफलत ,शोहरत व जाह तलबी,दौलत की नाजाइज़ हवस की वजह से।।मैदाने महशर में खुदाए तआला के सामने शर्मिन्दगी हो। कियामत के दिन ख़िफ़्फत उठानी पड़े। वलइयाजु बिल्लाहि तआला कहीं जहन्नम का रास्ता न देखना पड़े।
मेरे भाईयो! दिल में यह तमन्ना रखे यही खुदाए कदीर से दुआ किया करो कि ख्वाह हम मशहूरे ज़माना पीर और दिलों में जगह बनाने वाले ख़तीब हों या न हों लेकिन हमारा रब हम से राज़ी हो जाए ईमान पे मौत हो जाए और जन्नत नसीब हो जाए। और खुदाए तआला हमें चाहे थोड़ों में रखे लेकिन अच्छों और सच्चों में रखे। फ़कीरी और दुरवेशी भीड़ और मजमा जुटाने का नाम नहीं है। फ़कीर तो तन्हाई पसन्द होते हैं और भीड़ से भागते हैं अकेले में यादे खुदा करते हैं।
उनकी याद उनका तसव्वुर है उन्हीं की बातें
कितना आबाद मेरा गोशए तन्हाई है।
आख़ीर में एक बात यह भी बता देना ज़रूरी है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया कि ‘‘जो कोई ख़िलाफ़ शरअ काम की बुनियाद डालते है तो उस पर अपना और सारे करने वालों को गुनाह होता है।’’ लिहाजा जो मज़ामीर के कव्वालियां कराते हैं और दूसरों को भी इसका मौका देते हैं उन पर अपना,कव्वालों और लाखों तमाशाइयों का गुनाह है मरते ही उन्हें अपनी करतूतों का अन्जाम देखने को मिल जाएगा।
हमारी इस तहरीर को पढ़ कर हमारे इस्लामी भाई बुरा न मानें बल्कि ठन्डे दिल से सोचें अपनी और अपने भाईयों में
इस्लाह की कोशिश करें।
अल्लाह तआला प्यारे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के सदके व तुफ़ैल तौफीक बख्शे।
(गलत फहमियां और उनकी इस्लाह ,पेज 140)